चिकनी माटी से,
चाक पर,
दीये का सृजन,
कर रहा था कुम्हार .
कभी खो जाता था पुरानी यादों में ,
पिछली दिवाली पर,
खायी थी पूरी ,कचोरी!
साथ में कुछ मिठाई भी !!
मगर
पेट फिर भी भरा न था.
इस बार बनाने हैं दीये ज्यादा,
ताकि,
ना रहे मन की कोई हसरत अधूरी.
मगर-
हाट बाजार में ,
आम आदमी,
क्षण भर ठिठक,
खुबसूरत दीये देख,
आगे बढ़ जाता है.
क्योंकि-
बस के बाहर हो रही जब दाल चपाती.
दीप जलाने को कहाँ तेल ,रुई की बाती .
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