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TAJ MAHAL PICTURES || Chak De INDIA
अगर कोई बात गले में अटक गई हो तो उगल दीजिये, मन हल्का हो जाएगा...
प्रतियोगिताओं में सभी हों फस्ट
कोई राखी सावंत न रोए कभी
चाहे पहन कर आए हार का हार
जीतने वालों पर करे नहीं प्रहार
Posted by अविनाश वाचस्पति 1 comments
Labels: कविता, नया साल, रोना चिल्लाना
मैं बहुत प्रसन्न हूँ
इसलिए नहीं
कि नया साल आ रहा है एक बार फिर
इसलिए कि मैं बचा रहा एक और साल तक
जी लिया
एक बरस और
बिना किसी खास परेशानी के
और शायद...
बिना किसी मकसद के भी
कितना अच्छा रहा गया साल
कि उस साल में
ना तो मैं किसी दुर्घटना का शिकार हुआ
ना ही फंसा किसी झंझट में बेवजह
किसी ने मुझे घूस लेते हुए भी नही देखा
ना किसी ने छेदमेरी बहन बेटी को
ईश्वर से मेरी यही
प्रार्थना है,
कि आने वाला साल बनाए रखे
ये खुशियाँ(भ्रम)
मैं जिन्दगी से बहुत ज्यादा कुछ नही चाहता........
Posted by संदीप कुमार 0 comments
Labels: नया साल आ रहा है
नये साल की बधाइयां देते हुए हम उन दुश्मनों को गालियां देना न भूलें जो अक्सर हमारे पाले पड़ते हैं। उनके लिए खुलकर कहो .... बहुत हुआ सम्मान....फाड़ेंगे अब....।
ट्रेन में हूं। नया साल हम लोगों का साल होगा। पत्रकार के साथ एक उद्यमी, इंटरप्रेन्योर, धंधेबाज, बिजनेसमैन भी बनना है, ये ध्यान में रखना है हम सभी को। ये कैसे होगा, किस तरह होगा, देखा जाएगा। लेकिन काम करते हुए हमेशा पैसे के बारे में सोचो, पद के बारे में सोचो, तरक्की के बारे में सोचे....यही मेरी अपेक्षा है।
जय भड़ास..
यशवंत,
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
अपने को भड़ास का छोटा सा सदस्य समझता हुआ भडास परिवार की तरफ़ से समस्त दुनिया को नव-वर्ष की
शुभ-कामानाये देता हु ओर कामना करता हु की सभी हिन्दी ब्लोगों के लेखक आपसी मन-मुटाव भुला कर एक दुसरे
का मार्ग-दर्शन करते हु हिन्दी ब्लोग को एसा मंच मुहिया करवायेगे जो समाज को नई दिशा देगा बडे- बजुर्ग कहते
जो क्रांती बंदूक नही कर सकती वो क्रांती लेखक अपनी लेखनी से कर सकता हें एक बार फ़िर सब को नये-साल
की बधाई हो हम रहे या ना रहे भगवान भड़ास मंच को लम्बी उम्र ओर अपना अशीर्वाद दे ताकि भड़ास इसी तरह
सब को मार्ग दिखाता हुआ उन्नती की तरफ़ अग्रसर रहे
जय भड़ास
गुलशन खट्टर
Posted by Anonymous 2 comments
जीने का पूरा ''आन्नद'' ही जीवन की सम्पूर्ण परिपूर्णता है,जो अपने सामान्य क्रियाकलापों को ध्यानपूर्वक सम्पादित करके सदैव प्राप्त किया जा सकता है ।
सभी भड़सियों तथा सबसे बडे भडासी (यशवंत भाई ) को आंग्ल नव वर्ष 2008 की प्रथम सुबह पर लाखो लाख हार्दिक शुभकामनाये
शशिकान्त अवस्थी
कानपुर
Posted by शशिश्रीकान्त अवस्थी 1 comments
Posted by Parvez Sagar 0 comments
Labels: NEW YEAR
Sab bhadasion ko sanjay ka namaskar. Blog padne ka bahut shaunk hai pichle 2 mahino se pad raha hoon, socha kuch likha bhi jaye.
Pehle apne baare main kuch bata doon. Naam to aapko pata chal hi gaya hai sanjay khera, uttrakhand ke udham singh nagar jile ke rudrapur shahar se hoon, family bussines hai, usi main hum bhi hain.
Bhadas nikalne ki bahut ichha hoti hai jab bhi kuch galat dikhta hai, blogging achhi jagah hai apni baat kehne ka ye soch kar bhadas join kia. Hindi typing nai aati to roman main try karne ki sochi.
Ummeed hai bura nai manenge.
Aur batayenge ki hindi main bhadas kaise nikali jati hai matlab typing kaise ki jati hai.
Posted by Unknown 0 comments
सहारा समय परिवार के वारिसों को या तो यह नहीं मालूम है कि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने किसे बेनज़ीर भुट्टो का राजनीतिक वारिस चुना है या फिर लरकाना की जिस बैठक के बाद पार्टी के वरिष्ठ नेता मख़दूम अमीन फ़हीम ने ख़ुद पत्रकारों से कहा कि बेनज़ीर के इकलौते बेटे बिलावल भुट्टो जरदारी को उनलोगों ने अपना नया अध्यक्ष चुन लिया है, उसमें सहारा समय का कोई ख़ास सूत्र मौज़ूद था.
रात के बारह बज़े जब मैं यह पोस्ट लिख रहा हूं तब तक पूरी दुनिया की हरेक साइट इस बात को दिखा और बता रही है कि बिलावल को बेनज़ीर का राजनीतिक वारिस चुन लिया गया है.
बेनज़ीर ने अपनी वसीयत में पति आसिफ अली ज़रदारी को उत्तराधिकारी मनोनीत किया था लेकिन बैठक में ख़ुद ज़रदारी ने ही बिलावल के नाम का प्रस्ताव रखा और पार्टी के तमाम बड़े नेताओं ने उसका अनुमोदन कर दिया.
अलबत्ता, पार्टी ने 19 साल के बिलावल की उम्र और उसकी पढ़ाई का ख्याल करते हुए पार्टी में दो सह-अध्यक्ष बनाए हैं. एक तो बिलावल के पिता और बेनज़ीर के पति आसिफ अली जरदारी हैं और दूसरे वो फ़हीम साहब, जिन्हें सहारा समय परिवार पीपीपी की क़मान थमा रहा है. हाँ, पार्टी ने ये कहा है कि अगर जनवरी में चुनाव हों और वह जीत जाती है तो इस वक़्त प्रधानमंत्री के उम्मीदवार फ़हीम साहब होंगे.
ख़बरें तो इससे आगे पहुँच चुकी हैं. बैठक के बाद बिलावल के अध्यक्ष चुने जाने की घोषणा के दौरान आसिफ अली जरदारी ने पीपीपी के चुनाव में हिस्सा लेने का निर्णय सुनाया और नवाज़ शरीफ़ से भी चुनाव में भाग लेने की अपील की.
नवाज़ की पार्टी के कुछ नेताओं ने देर रात बयान दिया है कि वे भी 8 जनवरी के चुनाव में हिस्सा लेंगे. ये और बात है कि पीएमएल क्यू और ख़ुद राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ शायद चुनाव को टालने का विचार रखते हों.
पता नहीं, सहारा समय का समय ख़राब चल रहा है या ख़बरों को इसी तरह से पेश कर वह ख़ुद को सबसे अलग साबित करना चाहता है.
आप भी पढ़ें ये ख़बरें......
अंग्रेज़ी साइटः-http://www.saharasamay.com/samayhtml/articles.aspx?newsid=91883
हिन्दी साइटः-
http://www.saharasamay.com/flash/hindi/#fullstory?id=110079
Posted by रीतेश 0 comments
Labels: पत्रकारिता, समाचार
नए बरस में नए हों सपने और नया हो प्यार, नयी उमंग संग हो जाये खुशियों की बौछार
भड़ास के सभी पाठकों को नववर्ष की बहुत बहुत शुभकामनाये
प्रशान्त जैन, नवभारत टाइंमस
Posted by Prashant Jain 1 comments
प्रिय यशवंत जी
अभिवादन
कमाल के आदमी हैं आप । आपकी सोच कल के लिए एक तैयार कर रही है एक ज़मीन । वो ज़मीन जिसके ऊपर होगी पुख्ता मकान , बस्तियां , शहर,प्रदेश,देश , यानी कि पूरी दुनियाँ तब जुड़ी होगी विश्व में अन्तर जाल के ज़रिए लोग अखबार से अधिक खबरों के लिए "लैप-टॉप , जेब टॉप " पर
यशवंत जी क्यों न डेली-न्यूज़ तब हर शहर,गाँव , से जुडा हों । रहा विज्ञापनो का सवाल तो बडे नेट वर्क के लिए कोई समस्या नहीं । एक को-ओपरेटिव आधार पर इसे चला सकतें हम । आप भी सोचिए और लोग जुड़ें कारवां बन ही जाएगा ।पावन पवित्र विचारों की यात्रा की शुभ कामनाएं
नव वर्ष की हार्दिक शुभ कामना के साथ
मुकुल
Posted by Girish Kumar Billore 0 comments
Labels: प्रचार-माध्यम, समाचार
रक्षा मंत्रालय ने महिलाओं को सेना की तरफ़ आकर्षित करने के लिये उनका कार्यकाल १० वर्ष से बढा कर १४ वर्ष कर दिया है। परंतु विडंबना यह है कि १४ वर्ष कार्य करने के बावज़ूद इन महिला अधिकारियों को स्थायी सेवा कमीशन नही दिया जाता। भारतीय सेनाओं में महिलाओं की भर्ती की शुरुआत मुख्यतः १९९२ से हुई। इससे पहले उन्हें मात्र चिकित्सकीय सेवाओं के लिये ही रखा जाता था।
१९९२ में जब महिला अधिकारियों का पहला बैच भर्ती हुआ था तब प्रशासन ने कहा था कि महिला अधिकारियों को सर्वप्रथम ५ वर्षों के अल्पकालीन सेवा कमीशन के लिये भर्ती किया जायेगा तदोपरांत इच्क्षुक अभ्यार्थियों को स्थायी सेवा कमीशन दे दिया जायेगा। परंतु जैसे हि ये बैच अपने ५ वर्ष के कार्यकाल को पूरा करने को हुआ तो प्रशासन ने इनका कार्यकाल पहले १० वर्ष और फ़िर उसके बाद १५ वर्ष कर दिया। परंतु रखा इन्हें अल्पकालीन सेवा कमीशन अधिकारियों की श्रेणी के अंतर्गत ही।
महिला अधिकारियों की भर्ती कि शुरुआत होने की १५ वर्षों बाद भी महिला अधिकारियों को स्थायी सेवा कमीशन देने की नीति को लागू नहीं कर पा रहा है। इस संबन्ध मे सेना तीनों शाखाओं की अंतरिम नीतियों का दबाव भी काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार है। उदहरण के लिये भरतीय वायु सेना की अंतरिम नीति के अनुसार उसे अल्पकालीन सेव कमीशन प्राप्त अधिकारियों को स्थायी सेवा कमीशन प्रदान करने की आवश्यकता ही नहीं है और इसी नीति के चलते वे वर्तमान अल्पकालीन सेवा कमीशन प्राप्त अधिकारियों के स्थयी सेवा कमीशन प्राप्त कर्ने हेतु दिये गये आवेदन भी निरस्त कर देते हैं।
हालांकि वायु सेना की यह नयी नीति महिला एवं पुरुष अधिकारी दोनो के लिये लागू होगी परंतु ये महिला अधिकारियों को अधिक प्रभावित करेगी। सशस्त्र सेनाओं में महिला अधिकारियों का चयन अन्य स्थायी सेवा कमीशन प्राप्त अधिकारियों की तरह ही होता है। प्रशिक्षण में भी कोई रियायत नहीं बख्शी जाती। इनकी ज़िम्मेदारियां एवं कार्य भी अपनी ब्रांच के अन्य अधिकारियों के समान ही होते हैं। परंतु फ़िर भी इन्हें स्थायी सेवा कमीशन न दिये जाने का कोई स्पष्ट कारण नज़र नहीं आता।
सशस्त्र सेनाओं में महिलाओं की भूमिका पर आर्म्ड फ़ोर्सेज़ मेडिकल सर्विसेज़ के डायरेक्टर जनरल के द्वारा प्रस्तुत की गयी एक रिपोर्ट के अनुसार सेनाओं में महिलाओं पर यह रोक मुख्यतः लिंग भेद का ही परिणाम है। अपनी इस रेपोर्ट में उन्होने स्थानांतरण पृष्ठभूमि, अनुशासन, शिक्षा आदि बिन्दुओं को आधार बना कर सैनाओं में महिला अधिकारियों की भूमिका और उनकी स्थिति का मूल्यांकन किया।
Posted by विकास परिहार 0 comments
Labels: विकास की रचना
हम जब भी अपनी
भावनाओं को व्यक्त करते हैं।
तो अंतर्मन में कहीं
अपने आप से ही डरते हैं।
(दावा करते हैं)
भावनाओं को शब्दों को सींखचों
में कैद कर लेने का।
समस्त सागर को
अंजुली में भर लेने का।
हर दिन, हर पल, हर क्षण
वैचारिक परतंत्रता का ज़हर पिया करते हैं।
और यह सोच कर खुश होते हैं
कि हम स्वतंत्रता से जिया करते हैं।
Posted by विकास परिहार 0 comments
Labels: कविता, विकास की रचना
Dear friend,
I have been training this year to run the Austin Marathon on Feb 17, 2008. 26.2 miles - Its one of the most challenging tasks I have ever undertaken, requiring quite a bit of physical and mental endurance and commitment for training since October this year.
On the other hand, there has been no shortage of motivation. It has been fun so far and also meaningful, knowing that all these efforts raise awareness about underprivileged children in India and about what we can do for them. I am committed to raising $100 per mile ($2620 total) through my marathon and I am counting on your help in reaching that target.
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Why am I doing it?
Millions of children in India never go to school. Almost half of those that do drop out of school before completing primary education. Access to education is improving, but the education that poor children receive in most schools in India is of abysmal quality - very few teachers, crumbling to no infrastructure, poor to non-existent learning materials etc.
Thats why I have been training as part of Team Asha. Asha for Education is a non-profit organization that supports several grass-roots initiatives in India for children's education. One of the initiatives that I have been involved with for a while now is Gramin Shiksha Kendra (GSK) in Sawai Madhopur, Rajasthan.
I first visited Uday, a school run by GSK, in May 2005, and the project immediately impressed me with the commitment of all the stake-holders, including the rural community, teachers and children. GSK aims to create model schools that impart a very high quality of education with socio-economic relevance to the local community. GSK, established in 2003, has already captivated the imagination of the people in even the neighboring villages and they have already set up a second school in the area. Currently, both schools are supporting over 225 children (up from 65 in 2004).
I believe that the success of this project can go a long way towards providing a model of education that can be inspiring for all children and communities in India. To learn more about this exciting project, please ping me any time or visit the project's page:
http://www.ashanet.org/projects/project-view.php?p=603
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How you can help
Sponsor my marathon. Asha is a zero-overhead organization and all your donations reach the project. Also, donations to Asha are tax-exempt in the US. Please visit my runner's page and follow the links to donate (online or by check).
http://www.ashanet.org/austin/soh/runners08/08-murali-n.html
Wish you happy holidays and a great new year ahead!
Thanks,
-Murali
--
Maneesh Pandey
3/39, Housing Board
Sawai Madhopur
Rajasthan - 322001
Phone: 07462- 233553(R), 223449(O), 09828588549
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 1 comments
Posted by विनीत उत्पल 0 comments
Labels: अकिंचन भारत, जलवायु संकट, विनीत उत्पल
((पुरानी डायरी के पन्नों पर दर्ज यह कविता वर्ष 1991 में मतलब 16 साल पहले, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान लिखी थी। इस कविता से टपकते आदर्शवाद को पढ़कर मैं खुद दंग हूं....यशवंत))
व्यवस्था
बचपन का निस्वार्थ जीवन
कल्पनाओं का बचपन
अब नहीं है।
मैं अब
जिम्मेदार लड़का हूं
वयस्क हूं
पिताजी कहते हैं
मुझे कुछ सोचना चाहिए
अपने बारे में
अपने परिवार के बारे में
पड़ोसी की चमक-दमक
हमारे पास भी होनी चाहिए
परिवार के संभावनाओं को
साकार करने के लिए
मैं इलाहाबाद में हूं
अध्ययनरत हूं
मेरे परिवार को संभावना है
मेरे कुछ होने की
कहीं पर हो जाऊं
जी-तोड़ कमाऊं
सात पुश्तों के लिए
जीवन जीना आसां कर दूं
यह दुनियादारी है
मेरे माता पिता भाई बहन
सब मुझसे प्रेम करते हैं
मुझ पर जान न्योछावर करते हैं
क्योंकि मैं लायक हूं
मैं तेज तर्रार हूं...
मैं तेज तर्रार हूं
इसलिए मैं देखता हूं
सोतता हूं
अब तक मैं शोषण के विरुद्ध हूं
लेकिन तब क्या मैं शोषण नहीं करूंगा
नहीं करूंगा अत्याचार
पीकर खून गरीबों का
करूंगा घरवालों का उपकार
खून से सीचे हुए फसलों का
मैं अपहरण नहीं करूंगा
मैं बलात्कार नहीं करूंगा
मजबूरी में जीती हुई लड़कियों का
क्या मैं भी तब निर्मम
पाशविक नहीं हो जाऊंगा
भावना को बौद्धिकता से रंगकर
अपने को धूर्त मक्कार बनाकर
मैं भी लुटेरों की भीड़ में
शामिल नहीं हो जाऊंगा...
क्या गरीबों के खून से मैं अट्टालिका
नहीं बनाऊंगा
क्या गरीबों के पसीनों से कार
नहीं चलाऊंगा
मुझसे ये तमाम प्रश्न
अक्सर मुंह फैलाये
मेरे मुंह पर रेंगते रहते हैं
आदमी कितनी जल्दी बदलता है
विचारों का क्रम
आदर्शों का क्रम
बचपन से टूटना शुरू होते हैं
और
यौवनावस्था तक तोड़ दिए जाते हैं
भावना की जगह बौद्धिकता
खून की जगह पानी
प्रेम की जगह घृणा
भरकर के
जाति धर्म क्षेत्र संप्रदाय
के भेद खड़ा करके
शोषक अपना कार्य करते हैं
मैं किसे दोष दूं? अपने को-
परिवार को, समाज को
या फिर व्यवस्था को?
हां व्यवस्था को
अनाचार का नंगा खेल
भ्रष्टाचार से भरा खेल
खेलने के लिए
खिलाड़ी तैयार किए जाते हैं
बहुत बिरले होते हैं जो
पूंजीवादी मृगमरीचिका से निकलकर
जीवन समय का भेद समझकर
समानता व समा की नींव पर
अपने आदर्शों को मजबूत कर
तलवार के सामने
अपना सिर उठाकर
लुटेरों का विरोध करते हैं।
मुझे अपने पूंजी से बंधे
अपने संभावनाओं से बंधे
परिवार समाज की जरूरत नहीं।
मुझे तो उसका साथ चाहिए
जो ठंढक में अपनी सांस
खले आकाश के नीचे
फुटपाथ पर गिन रहा है
खून बहाने वाले ठेले खोंमचे वाले....दलितों मजदूरों का
रिक्शा चलाने वाले अनुज का
बर्तन मांगने वाली बहन का
भीख मांगने वाले पिता का
साथ चाहिए।
मैं लुटेरों का खिलाड़ी नहीं बनूंगा
मैं तो गरीबों का
दलितों का
सर्वहारा का
सहारा बनूंगा
लाल बनूंगा।
--यश
(यश नाम से लिखी गई इस कविता को आज लिखते-पढ़ते समय खुद को कामरेड यशवंत सिंह को लाल सलाम कहने से नहीं रोक पा रहा हूं। वो दिन आइसा और माले से जुड़ाव के दिन थे और विचारों व व्यक्तित्व के रूपांतरण के दिन थे। याद है जब उन दिनों एक सीनियर कवि मित्र को यह कविता सुनाई थी तो उन्होंने कहा था कि यह कविता है या भाषण। आज लगता है उन्होंने ठीक ही कहा था....यशवंत)
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 1 comments
भूपेन दा का गाया हुआ....बड़ा प्यारा...
ज़िंदगी के आग में काहे को जलाते हो, कागजी शरीर का चोला
भूख मिटा दे प्यास हटाय दे, खाली है पेट का झोला
हइया ना हइया ना हइया ना हइया....
गोल है मोल है रास्तों के पहिये
गिरे ना शरीर का डोला हो डोला
कल से बोखार है सर पे सवार है
सूरज आग का गोला, गोला....
हइया ना..हइया ना..हइया ना..हइया...
आंखें हैं काजल है जुल्फों के बादल है
लगते हैं दिन रात भाव
बाजारें जिस्म की कितने किस्म की
आओ खरीदार आव
भूखी ये फसलें आदमी की नस्लें
मौला ओ मौला ओ मौला
ज़िंदगी की आग से मुक्ति दिलाये दे
मांगें भिखारियों का टोला
भूखे भिखारियों का टोला
मांगें भिखारियों का टोला हो टोला
जि़ंदगी की आग में....
(कहीं कोई गलती हुई हो तो माफी....पुरानी डायरी से उतारा है....)
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
ओ मेरे आदर्शवादी मन
ओर मेरे सिद्धांतवादी मन
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया!!
उदरम्भरि बन अनात्म बन गये
भूतों की शादी में कनात से तन गये
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर
दुखों के दागों को तमगों सा पहना
अपने ही खयालों में दिन राहत रहना....
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
अब तो सभी मान गए हैं कि भड़ास फिर पूरे फार्म में आ चुका है। इसी के तहत एक और धमाका करते हुए और सभी भड़ासियों और हिंदी मीडिया के मित्रों को नए साल का तोहफा देते हुए भड़ास पर फिर से हिंदी वाले मीडियाकर्मियों के आवाजाही की खबरों का कालम शुरू कर दिया गया है। पहले भड़ास पर यह कालम कनबतियां नाम से चलता था लेकिन अबकी यह कालम बढ़ते जाना रे नाम से शुरू किया गया है। कनबतियां से आशय अफवाह का लगता था जिससे नकारात्मकता की बू आती थी। अब जो सुनते जाना रे जो नाम है वह एक सकारात्मक है और सभी हिंदी मीडियाकर्मियों के आगे बढ़ते जाने की दुवाएं देता हुआ है, जो भड़ास का मकसद भी है। आज संडे को घर पर बैठकर अपने पत्रकार मित्रों से ढेर सारी आवाजाही की खबरें इकट्ठी कीं और कुछ ब्लागों से इधर उधर से उठाया और इकट्ठा कंपाइल कर भड़ास पर डाल दिया। आप सभी मित्रों से अनुरोध है कि पिछली बार की तरह इस बार भी पत्रकारों की आवाजाही के कालम को अपना पूरा सहयोग दें और आप में से किसी को कोई भी पक्की खबर पता हो तो उसे मेरे मोबाइल नंबर पर एसएमएस कर दें या मेरी मेल आईडी पर मेल कर दें।
आज जब मीडिया से जुड़ी खबरें लिखने बैठा तो मुझे खुद भी इतनी सारी नई खबरें मिलीं की आश्चर्यचकित हो गया। लगा, वाकई, मैं काफी कुछ नहीं जानता था। इस कालम के शुरू होने से सभी हिंदी मीडियाकर्मी अपडेट तो रहेंगे ही, मैं भी नई हलचलों से वाकिफ रहूंगा।
बाईं ओर बढ़ते जाना रे कालम को देखें और अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराएं।
यशवंत सिंह
999933oo99
yashwantdelhi@gmail.com
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
ब्लॉगिंग एक ऊर्जा है
जानते हैं सिर्फ ब्लॉगर
पहचानते हैं सिर्फ ब्लॉगर
ही नहीं, वे भी, जो
इसे पढ़ते भूलते भी हैं
करते छापते हैं टिप्पणी
और छानते निकालते भड़ास
बेहतर होने की बने शुरूआत
टिप्पणी ऐसी जोहिला दे
झकझोर दे अंतर्मन को
ब्लॉगिंग के दीवाने लोग
टूटी हुई बिखरी हुई के
मन विचारों से जुड़ते लोग
सीढ़ियों पर चढ़ते उतरते लोग.
बगीची, वाटिका, मोहल्ला,नोटपैड
नुक्कड़,चवन्नी चैप,उड़न तश्तरी
प्रेम ही सत्य है, बतलाते अजदक
से बतियाते, चौखट पर छा जाते
चक्रधर की चकल्लस से चकियाते
फुरसतिया, मसिजीवी और
पूंजी बाजार का हाल बताते
चोंच में आकाश ब्लॉगिंग पर छाते
धमाल मचाते,मिर्ची सेठ बन जाते
चिट्ठाचर्चा चलाते,टहलते फिरते
गुस्ताख, पर करते नहीं गुस्ताखी
प्रभात की परिकल्पना है उनकी
मुसाफिर के हृदय पटल से अब
पारुल…चाँद पुखराज का
मन पखेरू फ़िर उड़ चला
वाह मनी में स्मार्ट निवेश करके
सेहतनामा हंस हंस हंसगुल्ले खाने बढ़ा
तब पंगेबाज हुआ निर्मल आनंद
और नई इबारतें लिख दीन्हीं
एग्रीग्रेटर्स ब्लॉगवाणी, चिट्ठाजगत
नारद, सर्वज्ञ,हिन्दी ब्लॉग्स ने
जिम्मेदारी संभाली अब सारी
एक नई पहचान जुटा डाली
जो बनी फूलों की मनभावन जाली
ज्ञानदत्त पांडेय की मानसिक हलचल
जयप्रकाश मानस की सृजन गाथा
ने सुधारी ब्लॉगिंग की सु-परिभाषा
हिंदीगाथा बनेगी शीघ्र ही अनंतगाथा
इस परिवर्तन को
हम सब सहेजें
ऊर्जा मंथन को।
Posted by अविनाश वाचस्पति 2 comments
Posted by Unknown 0 comments
Posted by RAVI SHEKHAR 0 comments
आनलाइन और आफलाइन हिंदी मीडिया के विस्तार का वर्ष रहा बीता साल, नए वर्ष में प्रसार और हिट्स की जंग होगी, क्वालिटी और मार्केटिंग के हथियार के सहारे
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पिछले एक साल में जिस कदर हिंदी और हिंदी वालों की पूछ बढ़ी है, वह वाकई आश्चर्यजनक है। कल तक इनफीरियारिटी कांप्लेक्स से ग्रस्त रहने वाले और कोने-अंतरे में छिपे रहने वाले हिंदी वाले अब सीना तान कर खड़े हैं। इसकी वजह कोई और नहीं बल्कि मार्केट है। बाजार पर कब्जाने की होड़ में हिंदी मीडिया का जिस कदर विस्तार हो रहा है उससे हिंदी में पढ़े लिखे लोगों की पूछ एकदम से बढ़ गई है। उसी तरह नेट पर एकछत्र राज कायम करने वाली इंगलिश के जवाब में भारत में हिंदी सहित अन्य देसी भाषाओं को जब डायनमिट फांट का शक्ल मिल गया तो एकदम से आनलाइन माध्यमें इन देसी लोगों की पूछ बढ़ गई। इसमें सबसे बड़ी भूमिका निभाई है हिंदी ब्लागिंग ने। अभी तक अपने तक सीमित रहने वाले हिंदी वाले खुद को हिंदी के जरिए पूरी दुनिया से जोड़ने में सफल हो रहे हैं। आनलाइन में हिंदी के खाली मार्केट को कब्जाने के लिए बड़े बड़े ग्रुप कूद पड़े हैं। बीते रहे वर्ष में ढेर सारे बड़े ग्रुपों ने अपने अपने पोर्टल लांच किए। इन पोर्टलो में काम करने के लिए हिंदी के लोगों को लाया गया। इस तरह हिंदी बीत रहे वर्ष में पूरे केंद्र में रही और नए वर्ष में हिंदी आनलाइन और आफलाइन दोनों ही माध्यमों में जबरदस्त जंग होने वाली है। बीत रहे वर्ष में आनलाइन और आफलाइन हिंदी मीडिया ने खुद का विस्तार अभियान शुरू किया। इस क्रम में कई अखबार और कई संस्करण लांच किए गए। कई पोर्टल और कई वेबसाइट्स लांच की गईं। नए वर्ष में इन नए अखबारों और पोर्टलों में ज्यादा से ज्यादा प्रसार और हिट्स की होड़े होगी। इसके लिए जंग कंटेंट और मार्केटिंग के हथियार से लड़ी जाएगी।
हिंदी मीडियाकर्मियों को ज्यादा मेहनत करनी होगी, खुद सीखना होगा और वर्ल्ड क्लास की क्वालिटी देनी होगी
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नए वर्ष में हिंदी पत्रकारों को जो आनलाइन या आफलाइऩ मीडिया, किसी में भी हैं, को ज्यादा मेहनत करनी होगी। मेहनत का आशय है कि उन्हें ज्यादा प्रयोगधर्मी और ज्यादा विजन वाला बनना होगा। इस लिए अब वो दौर नहीं रहा कि हिंदी पत्रकार आफिस में सोते सोते काम करे और उंघते हुए घर जाए। उसके बाद थाली भर दाल भात खा कर सो जाए। अब थोड़ी दिनचर्या अनुशासित करनी होगी। पढ़ाई लिखाई और देश दुनिया की गतिविधियों व प्रयोगों पर नजर रखना होगा। हर क्षेत्र में हो रहे नए डेवलपमेंट से खुद को जोड़ना होगा। वो चाहे तकनालजी हो या फिल्म हो या साहित्य, हर क्षेत्र में विशेषज्ञता स्थापित करनी होगी। विजुअल, लेआउट, प्रजेंटेशन के खेल के साथ साथ फैक्ट्स की क्वालिटी पर भी खासा जोर देना होगा। इसके लिए लगातार सीखना होगा और खुद को अपडेट रखना होगा। हिंदी मीडियाकर्मियों को इस चुनौती से निपटने के लिए उन्हें अपनी पर्सनाल्टी में बदलाव लाना चाहिए। मेरा जो निजी अनुभव है कि हम हिंदी मीडियाकर्मी खुद को एक पत्रकार के दायरे से बाहर नहीं निकाल पाते इसलिए हम अपनी खुद की ग्रोथ रोक देते हैं। हमेशा दोस्ती उन लोगों से करिए जो नई नई चीजों के जानकार हों। मिलते जुलते रहने से और पढ़ते लिखते रहने से दिमाग की खिड़की खुली रहती है।
ट्रेनिंग और लर्निंग की जरूरत पड़ेगी, हमेशा सीखते रहें....
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हालांकि अभी तक ट्रेनिंग और रिफ्रेशर कोर्स जैसी कोई व्यवस्था हिंदी मीडियाकर्मियों के लिए किसी संस्थान ने नहीं की है लेकिन नई चुनौतियों से पार पाने के लिए और पत्रकारों को ज्यादा कुशल बनाने के लिए अब ऐसी किसी ट्रेनिंग की जरूरत महसूस की जाने लगी है। जो पत्रकारर जिस क्षेत्र में कमजोर हो उसे उस क्षेत्र मे विशेष ट्रेनिंग दी जानी चाहिए। अभी तक होता यह है कि वह पत्रकार खुद के प्रयासों से जितना सीख लेता है बस उसी से काम चलता रहता है।
खुद को आनलाइन माध्यमों से हमेशा जोड़े रखें
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तो आप सभी को नए साल में नई चुनौतियों से निपटने की शुभकामनाएं देते हुए एक अनुरोध करूंगा कि आप खुद को हमेशा आनलाइन माध्यमों से जोड़े रखिए और जो भी कुछ नया पढ़ें लिखें उसे अपने साथियों को सिखाते रहिए। एक दूसरे को सिखाने से ही ज्ञान बढ़ता है। मेरे खयाल से नए साल में भड़ास को भी एक नई छवि प्रदान करनी है। और यह छवि हिंदी मीडियाकर्मियों के दिल की भड़ास निकालने के साथ साथ उन्हें ट्रेंड और स्किल्ड बनाने की भी है ताकि वे हर दिक्कतों से पार पा सकें। और हां, नए साल में खुद के घर में कंप्यूटर या लैपटाप मय नेट कनेक्शन के जरूर रखें ताकि आफिस से घर आने पर भी आप खुद को नई चीजों से जोड़े रख सकें। साथ ही आप अपने परिजनों बच्चों को भी इस दुनिया के बारे में सिखाते समझाते रहेंगे जो आगे चलकर उनके काम आएगा।
अच्छे श्रोता बनें, हमेशा पाजिटिव और कूल बने रहें.....यही प्रोफेशनलिज्म है...
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और अंत में, खुद को हमेशा पाजिटिव बनाए रखें। अच्छी बातें सोचें, सकारात्मक रुख रखें, विवादों से बचें। आगे बढ़ने के लिए पूरी पर्सनाल्टी में पाजिटिविटी बहुत जरूरी है। हालांकि डिप्रेशन और टेंशन के हजारों मौके आएंगे लेकिन परीक्षा भी उसी घड़ी में होती है। जब चीजें नार्मल हों तो उस वक्त हर आदमी पाजिटिव होता है, असली चुनौती तो यही है कि जब माहौल निगेटिव हों तो भी धैर्य बनाकर रखा जाए और पाजिटिवली बिहैव किया जाए। यह मेरा अब तक अनुभव है और यही एक प्रोफेशनल बिहैवियर भी है। विवाद जो अतीत में हुए हों उन्हें नए साल पर भुलाइए और हर एक व्यक्ति मं छिपी अच्छाइयों को पहचान कर उनसे सीखिए। सीखने सिखाऩे और सकारात्मक सोच रखने से ही सफलता मिलती है। ज्यादा बोलने और कहने के बजाय सुनने की आदत डालें। हिंदी वालों की एक बहुत बड़ी दिक्कत होती है जो मेरे में भी है, कि सामने वाले की सुनने की बजाय खुद पेलने लगते हैं। एक अच्छा श्रोता ही एक अच्छा नेता या टीम लीडर होता है। कूल रहना हमेशा फायदेमंद रहता है।
अगर ये बातें आपके किसी काम आ जाएं तो भड़ास का मकसद पूरा होगा। अगर आपके कोई सवाल हों या सुझाव हों तो जरूर बताएं। मेरी मेल आईडी है yashwantdelhi@gmail.com और फोन नंबर है 09999330099
फिलहाल इतना ही
जय भड़ास
यशवंत
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 2 comments
जब से हिन्दी ब्लोग़ के बारे मे जानकारी मिली हें रात की नीद उड़ गयी हें कभी लिखा तो नही हें लकिन पड़ने का बहुत शोक हें रोज़ाना सोते वक्त ब्लोग़ पर लिखने के लिय कुछ सोचता हू सुबह जरुर लिखुगा लेकिन काम मे इतना व्यस्त हो जाता हू समय ही नही मिलता अगर समय निकाल ही लिया तो मेरे बच्चे इतने शरारती हे कि उसी वक्त कम्पयूटर पर गेम खेलना शुरु कर देते हे अपने दिल की भडास फ़िर दिल मे रह जाती हे चलो कल लिखे गे
जय भदास
गुलशन
Posted by Anonymous 1 comments
हमारे एक पत्रकार साथी ने "रंगकर्मी" पर एक रचना पोस्ट की है। जिस पर कई प्रतिक्रियाऐं आ रही है। ये रचना आज के समाज पर एक गहरा तंज है। जो शब्दों की शक्ल मे हक़ीकत को बंया करता है। ये रचना अपने भड़ासी साथियों के लिये यहां ड़ाल रहा हूँ। उम्मीद है आपको पसन्द आयेगी।
घर नया खरीदा है, रोशनी नहीं हैं यारों,
वतन हो चुका आजाद, हर शख्स यहाँ लुटेरा है यारों।
बदनसीबी, गरीबी से शिकस्त होती है हर बार,
गरीब हो तुम गरीबी में ही रहो यारों।
कल सुना है की पटरी पर कोई शख्स कटा है,
दुनियावी जहमतों से वो आजाद हो गया यारों।
इन इंसानों की निगाहों में कुछ कमीनापन सा दिखता है,
घर में बहन बेटी हो तो सम्हालों यारों।
हिंद को बदलनें की बात कर रहे थे जो हरामखोर,
विदेशी सरज़मीं पर घर खरीद लिया है यारों।
परदा किये हुए अपनी माँ को देखा है हर बार,
सड़ चुकी जो परम्पराऐं, बदलो नया वक्त है यारों।
नलों में पानी, खंबों में बिजली, पेट मे खाना नहीं, सटीक देश है,
गुजारिश है, जहां मिले नेता, सालों को पटक पटक के मारो यारों।
अनुराग अमिताभ, भोपाल
www.rangkarmi.blogspot.com
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नया साल आने में बस अब चंद रोज बचे हैं। हर साल कुछ ना कुछ सोचते हैं और उसे पूरा करने की कोशिश करते हैं। नए साल में मैं क्या नया रिजोल्यूशन ले रहा हूं, इस पर पिछले कई दिन से सोच रहा हूं। लगता है कि तीन काम तो मुझे नए साल में करने ही चाहिए।
पहला- तेजी से निकलते तोंद को नियंत्रित करने के लिए जो संभव है किया जाना चाहिए। सवाल है इसके लिए क्या क्या किया जा सकता है। उसमें पहला आता है कि जो जीभ को लगाम देना पड़ेगा। नानवेज के प्रति जबरदस्त रुचि को नियंत्रित करना होगा। बकरा, मुर्गा और मछली लगातार खाते रहने की जो आदत है उसे अब नियम में बांधना होगा। मतलब हफ्ते या पंद्रह दिन में एक बार। अब जब ये सब तामसिक भोजन पकता है तो इसके साथ पाचक मदिरा की भी जरूरत महसूस होती है। वैसे मदिरा को तो मैं मैंने काफी नियंत्रित कर दिया है लेकिन नए साल में इसे केवल वीकेंड तक सीमित रखने की कोशिश करूंगा। इन दोनों उपायों पर अगर अमल कर लिया तो मुझे लगता है कि तोंद को ठीक किया जा सकता है। इसके साथ ही फैट जलाने के लिए थोड़ी उछलकूद और कसरत भी करना होगा। ये सब इसलिए जरूरी है क्योंकि उम्र 34 की हो गई और चालीस की होने में देर नहीं लगेगी और अभी नहीं जगे तो चालीस के होते ही डायबटीज समेत कई रोग शरीर में घुस जायेंगे।
दूसरा- समय बचाना होगा। पिछले कई वर्षों से दोस्तों और मित्रों के साथ खूब यारबाजी की। इससे समय किस तरह गुजरा, पता ही नहीं चला। अब जबकि एक नए तरह के काम में हूं और जिम्मेदारियां काफी ज्यादा हो चुकी हैं और सपने काफी बड़े पाल लिए हैं तो उसे पूरा करने के लिए एक एक मिनट अनुशासित रखना होगा। इसलिए अगर नए साल में दोस्तों को कम वक्त दे पाऊं तो कृपया वो बुरा न मानें। हां, उनके लिए तन मन और धन से हाजिर रहूंगा लेकिन समय देने में थोड़ा कंजूसी बरतूंगा।
तीसरा- बच्चों को नए जमाने के हिसाब से ट्रेंड करने के लिए उनकी पढ़ाई लिखाई और उनकी परविरश पर ध्यान दूंगा। अब तक मेरे बच्चे कैसे बड़े हुए, मुझे कुछ नहीं पता। इस बीत रहे वर्ष में कानपुर और दिल्ली में कई कई महीने तो ऐसे गुजरे कि पता ही नहीं चला कि बच्चे कब स्कूल आ रहे हैं और कब जा रहे हैं। मैंने उन्हें केवल देर रात सोते हुए देखा और सुबह मेरे आंख खुलने पे देखता तो पाता कि वे स्कूल चले गए। ऐसे में वे अपनी जिंदगी खुद ही जी रहे हैं। अगर उन्हें थोड़ा गाइड करा जाए तो जाहिर सी बात है कि वे और बेहतर बन सकते हैं।
फिलहाल तो ये तीन बातें ही मैं तय कर रहा हूं। ज्यादा कसमें वादे खाने से वे पूरे नहीं होते सो उतना ही तय करा जाय जितना वश में हो।
इस मौके पर मैं सभी भड़ासियों से अपेक्षा करूंगा कि वे नए साल में खुद के करियर, सेहत और फेमिली के लिए जरूर कुछ न कुछ नया सोचें और उसे न्यू इयर रिजोल्यूशन के रूप में चुनौती के तौर पर स्वीकार कर उस पर अमल करें।
भड़ासियों को अगर बेहतर लगे तो वे बाकी भड़ासियों को भी बताएं कि वो नए साल पर क्या करने वाले हैं।
सभी दोस्तों और भड़ासियों को नए साल की बधाई आज ही दे दे रहा हूं क्योंकि संडे शाम से मैं फिर एक जगह टूर पर जा रहा हूं और संभवतः नया साल ट्रेन में ही सेलीब्रेट करना पड़े।
यशवंत
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 2 comments
((जो किसी कवि का फैन हो जाता है तो वो उनकी लाइनें अपनी डायरी पर उतार लेता है। पुरानी डायरी में कई पन्ने मेरे प्रिय कवि वीरेन डंगवाल की कविताओं और शब्दों से संबद्ध हैं....। लीजिए हू ब हू वे लाइनें...उसी क्रम के साथ.....यशवंत))
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वीरेन डंगवाल
1- इन्हीं सड़कों से चलकर
आते रहे हैं आततायी
इन्हीं पर चलकर आयेंगे
एक दिन
हमारे भी जन
2- एक कवि और कर ही क्या सकता है
सही बने रहने की कोशिश के सिवा
3- दारोगा जी निकल गये बगल से
धड़धड़ाते अपनी बुलेट पर
दूर तक दिखाई देती रही ड्राइवर की सीध में
उनकी तनी हुई पीठ पर आसीन सत्ता
4- मुझ पर संदेह मत करो गौरैया
लो, मैं खिड़की खोलता हूं
जाओ, बाहर उड़ जाओ
धूप में अपने बदन को फुलाओ
और मटमैली ऊन का गुच्छा बनाओ
5- उसके गले की झालर जब हो जायेगी इतनी लुतलुती
कि मुट्ठी में आ जाय
तब वह भी याद करेगी शायद अपने बछड़ेपन को
अपने कोयेदार आंखों के आंसुओं पर बैठी
मक्खियों को उड़ाने के लिए
अपनी भारी सर डोलाती हुई
हल्के हल्के
6- दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप
एक दिन तो होना ही है उसका मुंह बंद
7- हजारों जुल्म से सताये मेरे लोगों
मैं तुम्हारी बददुआ हूं
सघन अंधेरे में तनिक दूर पर झिलमिलाती
तुम्हारी लालसा।
8- ये आदमी भी एक खुर्राट चीज है प्रधानमंत्री
पानी की तरह साफ, शफ्फाफ, निर्मल और तरल।
9- मुझे देखते ही विलापने लगते हैं चीड़ के पेड़
सुनायी देने लगती है किसी घायल लड़की की
दबी दबी कराह।
10- फिर वहीं लौट जाती है नदी
एक छिनार सकुचाहट के साथ
अपने सम्वैधानिक किनारों में
और मधुर मधुर बहने लगती है
जैसे लाठीचार्ज पर झूठमूठ शर्मिंदा
और गोलीकांड को एक सही मजबूरी
साबित करने की कोशिश करती हुई।
11- ((कमीज))
बरबाद लोग
समूची ज़िंदगी
तुम्हीं को घिसते, रगड़ते
और लोहा करते रहते हैं।
12- तुम बहुत शैतान हो मेरे बच्चे,
मैं तुम्हें बहुत पीटूंगा
अच्छा, यह बताओ
क्या तुम मेरी फैली हुई हथेली की गर्मी
महसूस कर सकते हो?
अभी तो तुम्हारे और मेरी हथेली के बीच
तुम्हारी मां का पुलकता हुआ शरीर
और हमारी शंकाएं हैं।
13- हम नहीं होंगे
लेकिन ऐसे ही तो
अनुपस्थित लोग
जा पहुंचते हैं भविष्य तक
14- ((भाप इंजन))
बहुत दिनों में दीखे भाई
कहां गये थे? पेराम्बूर?
शनै: होती जाती है अब जीवन से दूर
आशिक जैसी विकट उसासें वह सीटी भरपूर
15- हद है
न सुनाई पड़ना भी
साबित करे
पहुंच जाना
16- एक व्यक्तिगत उदासी
दो चप्पलों की घिस-घिस
तीन कुत्तों का भौंकना
ऐसे ही बीत गयी
यही भी, पूरा दिन
क्या ही अच्छा हो अगर
ताला खोलते ही दीखें
चार-पांच खत
कमरे के अंधेरे को दीप्त करते।
17- एक गरीब छापेखाने में छपी किताब था जीवन
ताकत के इलाज इतने
कि बन गये थे रोग
18-
((डायरी के पन्ने बताते हैं कि 09 सितंबर 1996 को लिखी गई कविता डायरी के अगले तीन पन्ने में लिखी गई लेकिन क्रम संख्या 18 का नंबर डालकर खाली छोड़ दिया गया.....और आज उपरोक्त कविताएं पढ़कर जी करता है अपने प्रिय कवि को चूम लेने को....यशवंत))
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
((घर पर लप्पू टप्पू (शब्द साभार- मसिजीवी) क्या आ गया, जैसे दर्द की पोटली खुल गई। वो जो कागज सब किसी बैग में समेट कर डस्टबिन की तरह फेंके गये थे, निकल आए हैं। अब तक आठ नौ शहरों में नौकरी की और हर बार किसी कबाड़ी को कागज फेंक कर देते समय इन्हें अंतिम वक्त में रोक कर रख लेता। बस शायद इसलिए की, यार बीते वक्त का ये ही कागज तो गवाह बनेंगे भविष्य में और आज ये ही मुझे नास्टेल्जिक किए पड़े हैं। बीएचयू में सन 95 या 96 के नए साल पर लिखी गई ये कविता मुझे वाकई आज लुभा रही है, दस बारह साल बाद के नए साल पर सुनाने के लिए। हालांकि ये कविता बीएचयू में पढ़ने वाले छात्रों की मानसिकता और लाइफ स्टाइल पर लिखी गई थी लेकिन इसे अगर बड़े परिवेश में लाकर देखें और नए मुहावरे के आधार पर सोचें तो यह हर जगह लागू हुई मालूम पड़ती है....य़शवंत))
हैप्पी न्यू ईयर
इस साल को भी हम,
हैप्पी न्यू ईयर कहते हैं।
यह जानते हुए भी कि
प्रतिदिन बंद कमरों में
घंटों शून्य में तलाशूंगा
अपना उज्जवल भविष्य....
फिर भी इस साल को हम
हैप्पी न्यू इयर कहके पुकारते हैं।
यह जानते हुए भी कि
हर क्षण संवेदनाएं आहत होंगी
कुचल जाएंगी प्रेम करने की चाहत
कैरियर संवारने की होड़ में
फिर भी इस साल को हम
हैप्पी न्यू इयर कहके बुलाते हैं।
यह जानते हुए भी कि
दोहरा जमीरर लिए बगैर एक पग
चलना मुश्किल है
सफलताओं के आकर्षक बाजार में
फिर भी इस साल को हम
हैप्पी न्यू इयर कहके पुकारते हैं।
यह जानते हुए भी कि
निस्तेज हो जाना है किताबों के बीच
बूढ़ी आंखों की रोशनी
न बन पाने की फिक्र में
फिर भी इस साल को हम
उच्ऋंखल हो हो के बुलाते हैं।
यह जानते हुए भी कि
अखबारों में मिलेगा गढ़वा पलामू
और कालाहांडी का हाल
प्लेग का चीनी का शेयर का धमाल
फिर भी इस साल को
समृद्धि का साल हो कहके पुकारते हैं।
यह जानते हुए भी कि
वृत्त में बना यह कुछ किलोमीटरों का आश्रम
नहीं सोचता
अपने से बाहर की दुनिया के बारे में
फिर भी इस साल को हम
सबकी खुशी के लिए स्वागत करते हैं
यह जानते हुए भी कि
अपनी विकृतियों और दमित इच्छाओं
को अभिव्यक्त करने का सुनहरा अवसर है
यह नये साल का त्योहार भी
फिर भी इस साल को हम
बधाई लेल दे के बुलाते हैं।
आ जा आ जा नया साल
जल्दी आ जा
न जाने कितने और साल आयेंगे
और हम--
सब कुछ जानकर भी
हर नये साल को सेलिब्रेट करेंगे
दारू के साथ नाच के साथ
चिल्ला चिल्लाकर बुलायेंगे हैप्पी साल को
फिर हर साल खोजेंगे अपना भविष्य
न जाने किस किस में?
यशवंत सिंह
291, बिरला छात्रावास
का.हि.वि.वि.
वाराणसी
(नये वर्ष की पूर्व संध्या में बी.एच.यू. की हालात पर लिखी गई कविता)
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
20/9/94 को लिखी मेरी एक कविता मिली...हू ब हू पेश है....
आज की कविता का विषय
हजारों की
सैकड़ों परेशानियां
सब दर्द से बेहाल-- अपने अपने !
खंड खंड में बंटे लोग
टुकड़ों में विभक्त
व्यक्तित्तव हो गया-- टुकड़े टुकड़े !
निवीर्य होती पीढ़ियां
सपने न देख पाने का सच
जोंक बनकर नाभिनालबद्ध होने को आतुर--धीरे धीरे
आत्महत्याएं....
संवैधानिक परिणति है
विषपान करती प्रदूषण को ये पीढ़ी शनै: शनै:
यशवंत
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
साल भर हुए
सद्दाम हुसैन को फांसी दिए गए
और ठीक उस वक्त
जब सद्दाम को
फांसी दी जा रही होगी
शांति का मसीहा
जॉर्ज बुश
खर्राटे भर रहा होगा
अपनी आराम गाह में
सारी दुनिया में
अमन और चैन सुनिश्चित करने के बाद
वो डूबा होगा हसीं सपनों में
जहाँ मौजूद होंगी
दज़ला और फ़रात
जलक्रीडा के अनेक साधनों में
उसकी नवीनतम पहुंच
या कि वो खुद
बग़दाद के बाजारों में
अपनी बंदूकों के साथ
सड़क के किनारे
संसार के सबसे शक्तिशाली
लोकतांत्रिक राजा की ओर से
शेष विश्व को यह था
बकरीद और नववर्ष का तोहफा ......
उसकी वैश्विक चिंताओं
और करुणा का नमूना
जॉर्ज डब्लू बुश
इस धरती का सबसे नया भगवान्
पूछ रहा है
हम सबकी अन्तिम इच्छा.
Posted by संदीप कुमार 0 comments
यह बात साफ हो गई कि भाजपा का चुनावी प्रचार इतना कारगर रहा कि कांग्रेस कहीं टीक न सकी । सिर्फ सेकुलर राजनीती का ढिंढोरा पीटकर आप जनता के मूलभूत मुद्दे को गौण कर आपनी हार की जमीन तैयार कर रहे हैं। जैसा कि कांग्रेस ने किया। आज कोई भी लोग यह देखना चाहता है कि इस सरकार ने मेरे जीवन को कितना प्रभावित किया या करेगी। यू पी ए सरकार के कार्यकाल कि कमर तोर महंगाई और जन भात्काऊ मुद्दा ही इतना है कि किसी भी पार्टी को अपने शासित राज्य या किसी राज्य में चुनावी ख़ुशी ही लेकर आएगा बांकी कुछ नहीं। हार कोई मध्य वर्ग बनना चाहता है या अमीर । आपको उस नुस्खा को चुनाव में रखना है जो दिल पर लगे और यह एहसास गरीबों को भी दिलाये कि मैं आपका सच्चा हितैषी हूँ।
Posted by DEEPAK 0 comments
((पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गांव के डोम परिवार के जीवन पर आधारित यह कहानी मैंने बीएचयू में होलटाइमरी के दौरान लिखी थी। इसमें अपने समय के समाज की उन सूक्ष्मतम सच्चाइयों को पकड़ने की कोशिश की गई है जिन्हें हम आमतौर पर देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। इस कहानी को जब लिखा था तो लगा था कि इसे हंस को भेज देना चाहिए। इसे बाकायदा टाइप कराकर राजेंद्र यादव के पास रवाना किया था। कई दिनों बाद राजेंद्र यादव लिखित पोस्टकार्ड मिला जिसमें कई तकनीकी व भाषाई कमियां गिनाने के बाद कहा गया था कि कथ्य तो अच्छा है पर छाप नहीं पा रहे हैं। अब जबकि वो पुराना बैग जिसमें पुराने समय के ढेर सारे लिखे तुड़े मुड़े कागज व डायरियां कैद हैं, को धो पोंछकर निकाला तो लगा कि चलो, इस कहानी को जिंदा कर दिया जाए और भड़ास पर डाला जाए। पाठकों से अनुरोध है कि इसे 12 वर्ष पूर्व लिखी गई एक रचना के तौर पर लें। यह लंबी कहानी है, पढ़ने में दिक्कत तो होगी लेकिन पढ़ने के बाद आप जरूर कई दिनों तक इस कहानी को याद रखेंगे। ये मेरी गारंटी है। तो चलिए, शुरू करते हैं.....यशवंत))
पार्ट एक
गांजा पीने के बाद दुक्खू ने चिलम उलटा कर जमीन से टिका दिया। राख नीचे गिराने के बाद चिलम में से गिट्टी निकाल कर छेद में फूंक मारा। इतमीनान से पैर फैलाकर चिलम की राख अपने माथे पर मला। सांझ का सूरज ठीक बगल में कटहल के पीछे। गांव के पच्छिम टोला की महिलायें निपटान के लिए दुक्खू के घर के बगल से निकलने वाले हगनहटी के रास्ते से आ जा रही हैं। यही वह क्षण होता है जब दुक्खू की सारे दिन की थकान मिनटों में फुर्र हो जाती है। सुबह से शाम तक, अपने घर की महिलाओं, बेटों और नातियों-पनातियों के साथ झपोली और खांची बनाने में बांस की काठियों के साथ खेलते खेलते शरीर का पोर पोर अंकड़ने लगता है। गांजा पीते ही सब कुछ नार्मल होते लगता।
गांजा दुक्खू के कपार में घूमने लगा। आती-जाती महिलाओं के चूड़ियों की खनखनाहट, उनकी बातचीत की फुसफुसाहट, हंसी की खिलखिलाहट से दुक्खू को असीम आनंद मिलने लगा। दड़बों में बंद सूअरों के फूं फां चीं चां से दुक्खू को गुस्सा भी आता लेकिन दुक्खू ने अपना पूरा ध्यान आती जाती महिलाओं पर ही लगा दिया। पता नहीं क्यों, दुक्खू को महिलाओं की चाल चीटियों जैसी लगती। रुक रुक कर बतियाना, फिर उसी रास्ते पर आते-जाते रहना। सब कुछ रोज की तरह निश्चित और तयशुदा....नियमबद्ध, कतारबद्ध।
दुक्खू को महसूस हुआ कि जैसे कुछ लोग बातें करते उसके घर की तरफ ही आ रहे हैं। दुक्खू ने कान खड़ा कर दिया। आवाज पहचानने की कोशिश की। दुक्खू तुरंत बोल पड़े...अरे भानु मालिक, आईं आईं....मचिया लाओ रे...आपने यहां आने का कष्ट कैसे किया, बुलवा लिये होते किसी से....
भानु सिंह ने दुक्खू की बात लगभग अनसुनी करते हुए कहा...ये अभय श्रीवास्तव हैं, कामरेड हैं....साथ वाले व्यक्ति का परिचय कराते हुए भानु सिंह ने कहा....हम लोगों की पार्टी के नेता हैं, इस ब्लाक में यही काम धाम देखेंगे।
दुक्खू ने हाथ जोड़कर हें हें करते हुए तुरंत सलाम किया और दांत दिखाना जारी रखते हुए पूछा.....भानु मालिक...उ जो नेता पहले थे आज नहीं.....?
दुक्खू की बात भानु सिंह तुरंत समझ गए...हां हां...उनका ट्रांसफर हो गया, दूसरे ब्लाक में। अब ये नये साथी आये हैं। गरीबों की लड़ाई के लिए इन्होंने अपनी पढ़ाई लिखाई घर बार सब छोड़ दिया है। होलटाइमर हो गए हैं। अब आप लोगों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर लड़ेंगे।
दुक्खू गर्दन हिलाते रहे और समझने की कोशिश भी करते रहे। पर वे भीतर ही भीतर असामान्य होने लगे। अक्सर ऐसा होता है कि जब कोई बाबू साहब या पंडी जी घर पर आ जाते तो उनसे बतियाते हुए दुक्खू को घबराहट होने लगती...पसीना भी आने लगता...अंदर ही अंदर।
भानु सिंह ने मौन तोड़ा और दुक्खू से पूछा....अभी मुलागी, कतरू नहीं आए हैं क्या?
इस बीच मुलागी बो और कतरू बो काम रोक कर घर के कोने में खड़े होकर ध्यान से बातचीत सुनने लगीं थीं। दुक्खू बो दुक्खू के पीछे खड़ी हो गईं।
दुक्खू ने रास्ते की ओर देखते हए जवाब दिया....नाहीं मालिक। बेलवा तो हो ही गई है, अभी तक आये नहीं सब। हो सकता है मालिक, वो सब ठेका पर बैठ गए हों.....कहते कहते दुक्खू ने हंसने की कोशिश की।
दुक्खू की हंसी बेपरवाह भानु सिंह ने अपना वक्तव्य दिया......ऐसा है दुक्खू, हम लोग पार्टी के काम से आये हैं। किसान सभा का सदस्यता अभियान चल रहा है इस समय। आज पूरे दिन चमटोली और पसियान में मेंबर बनाए हम लोग। आप लोग भी सदस्य बनिए।
दुक्खू ने हाथ जोड़ते हुए कहा....मालिक हम लोग तो आप के साथ हमेशा से हैं। आप जो कहें हम वही करें।
कुर्ता पाजामाधारी नवयुवक कामरेड श्रीवास्तव जी इस बार बोले....ऐसा है साथी दुक्खू जी, इ सब मालिक... बाबू... सरकार... किसी को मत कहा करिए। हम लोगों की पार्टी तो इसी सब नव सामंती संस्कृति के खिलाफ है। सभी लोग एक बराबर। आप साथी कहिए हम लोगों को।
भानु सिंह बीच में ही श्रीवास्तव जी को बताने लगे....मैं तो दुक्खू को समझाते समझाते परेशान हो गया हूं। ये हर बार कहते हैं कि आदत पड़ गई है सरकार। आपसे पहले वाले कामरेड चुन्नीलाल भी समझाते समझाते हार गए लेकिन दुक्खू ने अपनी आदत नहीं बदली। कहते हैं कि अच्छा नहीं लगता छुच्छे बोलना....।
भानु सिंह फिर तुरंत पहले वाली बात पर वापस लौट आए.....मेंबरशिप का शुल्क है दो रुपये एक आदमी के लिए।
कामरेड श्रीवास्तव जी की तरफ हाथ बढ़ाते हुए भानु सिंह बोले....रसीदवा दीजिएगा किसान सभवा का।
दुक्खू अभी तक पुरानी बात से उबर नहीं पाये। बोले...ठीक है मालिक सब। आपन आपन जबान है। जिनगी भर आप लोगों का नमक खाया है। अब बुढ़ापा में इ सब बात कहना बोलना हमको नहीं सुहाता...कहते कहते दुक्खू पीछे खड़ी पत्नी पर एकाएक चिल्लाए.....कतरू की माई...जरा पैसवा लाओ तो।
कतरू की माई ने अपनी साड़ी का एक कोना खोला। मुड़कर एक रुपये के सिक्के जैसे हो चुके दस रुपये के नोट को पकड़ा दिया।
कामरेड ने सबका नाम पूछा और नोट किया...दुक्खू, कतरू, मुलागी, मितिया, छंगुरी, हंसमुखिया....। अपना नाम सुनकर कोने में बैठी और बच्चे को दूध पिलाती मितिया मुस्काने लगी। बहुत दिन बाद किसी के मुंह से अपना नाम सुनी, सो खुशी रोक नहीं पाई।
पैसे लेने व रसीद देने के बाद चलते वक्त भानु सिंह ने सीना फुलाकर दुक्खू से कहा....अब किसी से दबने डरने की जरूरत नहीं है। यह सामंती उत्पीड़न बहुत दिन तक चलने वाला नहीं है। हम लोग हर समय आपके साथ हैं..।
दुक्खू हाथ जोड़कर विदा देते और जवाब में जी मालिक जी मालिक करते रहे।
कामरेड श्रीवास्तव जी कुछ दूरी पर चलने के बाद जिज्ञासा प्रकट की.....कहो साथी भानु जी, इस गांव में कोई बड़ा सामंत नहीं है और न ही कोई खुला उत्पीड़न हो रहा है तो फिर ये लोग इतने डरे डरे सहमे सहमे क्यों रहते हैं।
भानु सिंह कुछ देर तक सोचते रहे फिर बोले....दो बातें हैं इसमें। पहली यह कि भले ही यहां कोई बड़ा सामंत न हो लेकिन जो लोग भी सवर्ण हैं वे नहीं चाहते कि जाति प्रथा टूटे। सबको अपने अपने औकात में रहना चाहिए- ये उन लोगों का मानना है। दूसरी बात- दलित और पिछड़े तबकों में भी इस सामंती जाति प्रथा की थोपी गई स्थितियों का दबाव है और इसके विरोध का खुला साहस नहीं है। अतः पीढ़ियों से चला आ रहा सामाजिक आर्थिक संबंध बहुत थोड़ा सा ही बदल पाया है।
हूं...कहकर श्रीवास्तव जी सोचने में जुट गए....भानु सिंह भी तो सवर्ण हैं। पर कितना स्पष्ट है इनका व्यावहारिक ज्ञान। वर्गीय राजनीति की भी ठीकठाक समझ है। विश्वविद्यालय में इतने पके पकाये व्यावहारिक सामाजिक ज्ञान वाले लोग कहां मिलते हैं? वहां तर्क तो घंटों करेंगे लेकिन असल जीवन में उसी ढांचे या सिस्टम का पार्ट बन जायेंगे। वैसे जिला सचिव ने ठीक ही कहा था कि इस आदमी (भानु सिंह) में बहुत संभावना है। अगर इनके जीवन के कांट्राडिक्शन को कायदे से पकड़कर हल किया जाये तो पार्टी को एक अच्छा मास लीडर इस इलाके में मिल जायेगा।
श्रीवास्तव जी भानु सिंह के परिवार के बारे में जिला सचिव के आब्जरवेशन को याद करने लगे.... भानु सिंह के परिवार के बाकी लोग तो रिएक्शनरी किस्म के हैं। फ्यूडल फेमिली है।
चिड़ियों के बढ़ते शोरगुल के साथ अंधेरे की चादर भी फैलने लगी। कुछ ही देर में भानु सिंह और श्रीवास्तव जी समेत पूरा गांव खा पीकर सोने में जुटने लगा।
पार्ट टू
चमटोली के कुक्कुर जब भोंकते तो ठकुरहन के कई कुक्करों की सामूहिक जवाबी गर्जना शुरू हो जाती। पोखरे की तरफ से विभिन्न जीवों का मिश्रित स्वर किसी आधुनिक रीमिक्स म्यूजिक सरीखा महसूस होता। चांद के प्रकाश से पोखरे का गंदला पानी किसी खूबसूरत औरत की तरह चमचमाने लगा। भानु सिंह ने दूसरी चारपाई भी लाकर पोखरे के किनारे ऊंचाई पर बने प्राइमरी स्कूल के बाहर खुले मैदान में डाल दिया।
श्रीवास्तव जी दांत खोदते हुए स्कूल के मैदान में सोने से पहले वाली टहलान में जुट गए। थूकते हुए श्रीवास्तव जी ने भानु सिंह की तरफ प्रश्न फेंका....तो भानु भाई, हम लोगों की पार्टी में आने से पहले भी किसी पार्टी में थे?
भानु सिंह चारपाई सजा रहे थे, तोसक, फिर चदरा फिर तकिया....बोले....इसके पहले भी कम्युनिस्ट पार्टी में ही था। पर वे लोग केवल डंडा झंडा लेकर रैली धरना प्रदर्शन में ही लगे रहते। गांव में लड़ने भिड़ने वाला कोई काम नहीं करते। केवल चुनाव के समय सक्रिय होते। बाकी समय में कभी कभार मिल जाने पर सिद्धांत बतियाते। सिद्धांत बघारने से जनता क्रांति थोड़े ही कर देगी।
हां, वो लोग चुनावी राजनीति में पतित हो चुके हैं....भानु सिंह की बात को एक सैद्धांतिक अंजाम पर पहुंचाया कामरेड श्रीवास्तव जी ने।
भानु सिंह को जैसे इसी अवसर का इंतजार था, बोले... कामरेड, अब तो ये अपनी वाली पार्टी भी चुनाव में भाग लेने लगी है, अंडर ग्राउंड से बाहर ग्राउंड हो गई है। कल को लड़ने भिड़ने वाला काम भी बंद कर दें तो क्या ठिकाना?
श्रीवास्तव जी सचेत हो गए। एक मिनट को सोचे फिर बोले...पहले किसी साथी से इस मुद्दे पर आपकी बातचीत हुई थी?
हां हुई तो थी....डिबिया से सुर्ती निकालते हुए भानु सिंह बोले...उनके तर्क से तो संतुष्ट था पर मुझे उनकी बातें व्यावहारिक नहीं लगीं। इस इलाके में गरीब दलित और पिछड़े इतने आतंकित रहते हैं कि मेरी हर बात बिना बहस किये ही मान लेते हैं लेकिन जब मैं धरना प्रदर्शन या संघर्ष में चलने को कहता हूं तो बहाना बनाकर सरक लेते हैं। या हांथ जोड़कर छोटा आदमी होने की बात कहते हुए इनकार कर देते हैं। यह आतंक कैसे खत्म होगा, यह आदत कैसे छूटेगी। पंडितान या ठकुरहन का कोई भी बच्चा इन लोगों को गरिया देता है और ये लोग चुपचाप सुन लेते हैं। ऐसे में अगर इनके बीच के भूमिहीन गरीबों के लड़कों को हथियार वगैरह चलाने की सशस्त्र ट्रेनिंग दी जाए तो शायद इनको हिम्मत मिले और आतंक टूटे।
आसमान के चांद तारों को देखते हुए श्रीवास्तव जी ध्यानपूर्वक भानु सिंह की बातें सुनते रहे। जिला सचिव की बताई एक बात उन्हें याद आ गई। भानु सिंह पालिटिक्स करते समय ही गुंडई लाइन में चले गए थे। इलाके में तब ये सबसे बड़े गुंडा हुआ करते थे। गांव में भी ठाकुरों के दो ग्रुप थे। दूसरे ग्रुप से इनकी कई बार गोलीबारी हुई। यह तो संयोग था कि उसी दौरान कम्युनिस्ट पार्टी के संपर्क में आ गए।
श्रीवास्तव जी भानु सिंह को समझाने लगे.....साथी भानु जी, बात तो ठीक है। आप जानते ही होंगे कम्युनिस्ट मूवमेंट में दो प्रकार की धाराएं हैं- संसदवादी और अराजकतावादी। इनसे अलग एक तीसरी धारा भी है जो हम लोगों की है जो दोनों प्रकार की अतियों से मुक्त है। अगर आतंक तोड़ने के लिए हथियार उठाने की जरूरत पड़ती है तो हम वो भी करते हैं बशर्ते अगर वह आतंक सचमुच हमारे राजनीति में, किसान आंदोलन की राह में रोड़ा बन गया हो। देखिए जैसे कि बिहार के आरा में....भोजपुर में.....सिवान में....जहानाबाद में.....।
श्रीवास्तव जी एक के बाद एक उदाहरण देकर अलग-अलग आंदोलनों की हिस्ट्री समझाते रहे। उसके बहाने पार्टी की दशा दिशा को थ्यूराइज करते रहे। भानु सिंह हुंकारी भरते रहे। भानु सिंह को संतोष होने लगा। चारपाई पर सिर के बगल में लेवा के नीचे रखे छफैरा रिवाल्वर को हलके से छूकर देख लिया। उसकी गर्मी को महसूस किया। कुछ ही देर में भानु सिंह की नाक बजने लगी। श्रीवास्तव जी अपने रौ में बहे जा रहे थे। एकाएक उन्हें लगा कि भानु सिंह की हुंकारी बंद हो गई है तो उन्होंने भी बात बंद कर दिया।
श्रीवास्तव जी अब बगैर भानु सिंह के सोचने लगे। इस गांव के बारे में सोचने लगे जहां उन्हें काम करने के लिए भेजा गया है। वे सोचने लगे कि किस रणनीति से इस गांव के गरीब दलितों पिछड़ों को स्वतंत्र शक्ति के बतौर खड़ा कर दिया जाए। पार्टी का मास बेस बना लिया जाए। इस गांव का मामला थोड़ा उलटा है। किताबों में पढ़ी गई बातें यहां लागू नहीं हो रहीं। यहां पार्टी के जो मददगार भानु सिंह हैं वो सवर्ण और दबंग परिवार से हैं। श्रीवास्तव जी को प्रदेश सचिव की एक बात याद आई....अगर गांव में भूमिहीनों के साथ उनके जीवन के अनुरूप अपने को ढालने में हम अक्षम रहे तो वे लोग कभी भी पार्टी को अपनी पार्टी के रूप में महसूस नहीं कर पायेंगे। अपने साथियों को मध्यम वर्ग के बीच खाने पीने और सोने से बचना चाहिए....।
श्रीवास्तव जी को अपराध बोध होने लगा। आज किसी दलित के यहां ही रुकना चाहिए था। दुक्खू के यहां ही रुक सकते थे हम लोग।
श्रीवास्तव जी के मन में विचार पर विचार उठते रहे। नींद तो जैसे यूनिवर्सिटी के हास्टल वाले कमरे में छूट गई हो। पूरा गांव शांत था। दुक्खू डोम के घर की ओर से शोर शराबा आ रहा था। लगता है बेटे पी पाकर आए हैं और चिचियाहट मचाए हैं।
पार्ट थ्री
भानु सिंह और श्रीवास्तव जी जब दुक्खू घर के डोम से लौटे तो दुक्खू डोम मचिया हटाकर जमीन पर पसर गये। भानु सिंह की बात दुक्खू के दिमाग में लगातार चक्कर काट रही थी....अब दब के रहने की कोई जरूरत नहीं।
दुक्खू मन में ही सोचने लगा, उसकी निगाह ठीक उपर नीम की टहनी पर स्थिर है, दिमाग में गांजा की गर्मी विचारों के हेलमेल से लगातार कई कई विचार पैदा करने लगी....
हुंह, यह हवा हवाई बात है। ....काट कर रख देंगे ठाकुर और पंडित। अकेले भानु सिंह से क्या होगा। फिर भरोसा क्या कि वह हम्हीं लोगों के साथ रहेंगे हमेशा। लोग इसी तरह मीठी मीठी बात करते हैं, काम निकालने के लिए। मौका मिलने पर गांड़ काटने में भी नहीं चूकते। हम लोग अपनी बिरादरी में अकेले हैं, चमार भी तो नहीं सटते हैं हमसे। समय आने पर सब एक तरफ हो जायेंगे। जब हम कुआं खोदवाते हैं तो उसमें भी बाबू साहब लोगों को अपनी हेठी देखती है तो....हुंह।
दुक्खू के शरीर में झुरझुरी दौड़ गई। आधा खोदा जा चुका कुआं किस तरह से बाबू साहब लोगों के दबाव में पटवाना पड़ गया, वह सब दृश्य दुक्खू के आंखों के सामने से घूम गया। तब तो कोई भी आगे नहीं आया कहने को कि डोमवा को पानी की बहुत परेशानी होती है, उसको कुआं खोदवाना ही चाहिए। जिनगी भर पोखरी का पानी ही लिखा है पीने को। पैसा रुपया है पर साफ पानी पीने को नहीं मिल सकता।
दुक्खू की आंख आकाश में टिमटिमाते तारों पर पड़ी। वह गौर से देखने लगा तारों को। सफेद सफेद तारे और काला आकाश। जैसे सफेद तारे बाभन ठाकुर हों और काला आकाश डोम चमार।
दुक्खू की आंख आसमान में कुछ ढूंढने लगी। सतरिसिया तरई। एक बार मुलागी के बेटे फेंकू ने पूछ लिया था....बाबा, ये सतरिसिया तरई अकसवा में करते क्या हैं?
तब दुक्खू ने समझाया था- ये जो चार कोने के चार तारे हैं, ये मुर्दा उठाकर फेंकने के लिए ले जा रहे हैं। तीन लोग जो पीछे हैं वे मुर्दे के दर दयाद हैं। वे परवाह करने ले जा रहे हैं।
तब फेंकू ने फिर पूछा था- ये रोज रोज मुर्दा क्यों फेंकते हैं?
दुक्खू ने समझाया- बात ये है कि रात भर मेहनत करने के बाद ये गंगा जी के पास पहुंचते हैं। सुबह होते ही सूरज भगवान गंगा जी को सुखा देते हैं तब ये वापस लौट आते हैं।
पर बाबा, सुबह गंगा जी सूखती कहां हैं? फेंकू ने सवाल किया।
दुक्खू झुंझला उठे.....अरे वो अकास वाली गंगा जी की बात है। वहां पर होता तो तुम्हारे बाबू लास जलवा दिये होते अब तक।
फेंकू इस उत्तर से संतुष्ट हो गया और उसे अपने बाप पर गर्व महसूस होने लगा था।
सोचते हुए दुक्खू के आंख में आंसू आ गए। बूंद ढुलक कर मूंछ में फंस गए। बूंद रुके नहीं, मूंछ से सरकर दाढ़ी के लंबे बाल में अंटक गए।
दुक्खू ने गमछे से आंख पोछने के बाद दाढ़ी पर हाथ फेरा.....ऋषियों की संतान डोमराजा.....सोचकर दुक्खू को हंसी आ गई....कैसी कैसी उलटी पुलटी बात सोच लेता है वह....। गर्दन हिलाकर अगल बगल देखा। ओसारे में ढिबरी जल रही है। मुलागी और कतरू आ चुके हैं। रोज की तरह दुक्खू मुलागी और कतरू की साइकिल की ओर बढ़ा और हैंडिल में लटकी पोटली निकाल लाया। खोला। शराब पाउच, पान, टार्च मसाला, बीड़ी बंडल। चार पाउच शराब निकालकर बाकी पोटरी उसी तरह हैंडिल में लटका दिया।
दुक्खू चुपचाप पीते रहे। मुलागी सोये सोये ही नशे के अतिरेक में रोने लगा। महिलाएं भी नशे में हो चुकी थीं। वे हंसते बतियाते मांस पकाने में जुटी हुई थीं। शोरगुल बढ़ता देख दुक्खू एक बार जोर से चिल्लाया.....चुप माधड़चोद। फिर धीरे से बोला...आज हम लोग पार्टी के आदमी बन गए। बिना नाम लिए कही गई ये बात कतरू और मुलागी के लिए थी।
किस पार्टी के आदमी हो....कतरू हंसते हुए उठकर बैठ गया। शराब पूरे शरीर व दिमाग को मजा दे रहा। कतरू को पार्टी के आदमी बनने वाली बात रोज के रूटीन से हटकर लगी।
दुक्खू ने जवाब दिया...भानु मालिक वाली पर्टिया के। फिर अपना ज्ञान बघारते हुए बताया....चुन्नूलाल कामरेड कहीं अउर भेज दिये गये हैं, उनकी जगह श्रीवास्तव कामरेड आए हैं।
कतरू को दुख हुआ कि वह उस मौके पर नहीं था वरना वह भी हाथ मिला लिया होता नये वाले कामरेड से। कतरू ने पूछ ही लिया.....क्या ये नये साथी भी सबसे हाथ मिलाये?
दुक्खू ने ज्ञानी की भांति निर्विकार भाव से कहा....नहीं, ई साथी बात बहुत कम किये। भानु मालिक पार्टी की रसीद काटकर दिये।
कतरू को निराशा हुई। वह अपना हाथ मलने लगा।
इस बीच मुलागी रोना बंद कर बातचीत ध्यान से सुनने लगा था। पार्टी का आदमी बनाने और रसीद काटने की बात सुन उसने मन ही मन समझ लिया कि बहुत जल्द वोट पड़ने वाला है। पिछली बार परधानी के चुनाव में इसी तरह रसीद काटकर दिया गया था। मुलागी को खुशी हुई। चलो अच्छा है। चुनाव के समय ही डोमराजा की असली पूछ होती है।
मांस पकने की खुशबू चारों तरफ फैलने लगी।
कतरू की आंख खुली। निगाह शराब पीते हुए बच्चों पर गई। सोये सोये ही चिल्लाया---माधरचोद, कम ही पियो, स्कूल जाने में तो गांड़ फटती है, सूअर चराओ सालों।
लड़के पूर्ववत चुपचाप पीते रहे।
मुलागी को एकाएक याद आया—कल इसी बेला तो एक ठकुराइन भूत भूत करके भागी थीं। इसीलिए आज लाइट का मसाला लाया है। मुलागी चिल्लाया....अबे लौंडों, सइकिलिया पर से गमछिया ले आओ। ओम्मा लइटिया का मसाला होगा। लइटिया भी ले आना।
मसाला और टार्च का मेल कर मुलागी ने अपनी बीवी के मुंह पर रोशनी फेंकी फिर कतरू की ओर रोशनी डालते हुए बोला....कतरूवा, कल ऐही बेला ठकुराई को भूत मिला था ना। देखते हैं आज कहां है भूत।
मुलागी ने टार्च की रोशनी कटहल की तरफ कर दी। कतरू और दुक्खू भी उठकर बैठ गए और रोशनी को निहारने लगे।
पर ये क्या? कटहल के सामने एक नंगे लड़का और लड़की। आपस में चिपके।
कतरू चिल्लाया....अरे हई देखो भूत का खेल।
वो नंगे बदन रोशनी से बचने को कटहल के पीछे छिपने लगे।
दुक्खू सकपका गया। चिल्ला उठा—अबे बंद कर रोशनी। बहुत लात पड़ेगी।
दुक्खू पहचान गया। लड़का तो पप्पू सिंह हैं। भानु मालिक के छोटे भाई। .....अरे साला लइटिया बंद कर।
दुक्खु झटपट उठे और लाइट छीनकर उसी के सिर पर दे मारा। ....माधरचोद जानते हो, वो कौन हैं, पप्पू सिंह। अब किसी की खैर नहीं। बाप रे....माफ करो बाबू।
दुक्खू कांपने लगा और बकबकाने लगा, माफी मांगने लगा। परिवार के अन्य सदस्यों को तो जैसे काठ मार गया।
कटहल के तरफ से मर्दानी आवाज गूंजी....आ रहा हूं ससुर लोग, बहुते मन बढ़ गया है। निपटते हुए औरतों पर टार्च बार रहे हो। शराब का नसा आज तुम लोगों के गांड़ में डाल दूंगा।
दुक्खू परिवार में कोहराम मच गया। पप्पू सिंह आए और अकेले ही दुक्खू कुनबे के हर सदस्य को हिक भर मारा। सब पिटते रहे...बाबू बाबू और मालिक मालिक कहते हुए। अंत में पप्पू सिंह चले गए और दुक्खू परिवार के सदस्य गोलाई में बैठकर सामूहिक रुदन करने लगे।
बीच में चूल्हे पर रखा मांस भीनी भीनी खुशबू देते हुए पकता रहा।
पच्छिम टोला के लोग आते रहे और जाते रहे। लोगों में संक्षिप्त प्रश्नोत्तर होता रहा।
क्या हुआ हो?
डोमवा को पप्पू सिंह पीट दिये हैं।
बात पूरे गांव में फैल गई। भानु सिंह और श्रीवास्तव जी भी दौड़े दौड़े दुक्खू के घर आये।
मोटा से मोटा बांस मिनटों में चीर देने वाले डोम कुनबे के हथियार छुरा और चाकू अगल बगल पड़े थे। अब सब शांत हो केवल सुबक रहे थे।
भानु सिंह ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा....का हो दुक्खू, इ सब कब तक होई। एक आदमी पूरे परिवार को पीट देता है।
दूसरे तरफ चुप्पी जारी रही।
भानु सिंह बोलते रहे...ससुर चरित्रहीन आदमी पप्पूवा। गरीब को पीटकर बड़का गुंडा बनते हैं। अबकी पुलिस से तोड़वाते हैं तब पता चलेगा कि गुंडई कैसी होती है।
दुक्खू ने हाथ जोड़ते हुए सुबक कर कहा---मालिक माफ कीजियेगा, गलती हम लोगों की ही है। अपने आत्मा में बहुत कष्ट है। गांड़ पर का लहंगा फाटने के लिए ही तो होता है।
श्रीवास्तव जी दुक्खू के कथन का अर्थ निकालने लगे। ये लोग साफ साफ बात क्यों नहीं करते। यही दिक्कत है। मजबूती से कहना चाहिए कि हमारा उत्पीड़न हुआ है।
काफी देर चुप्पी छाई रही। अंत में भानु सिंह और श्रीवास्तव जी उठकर चल दिए।
रास्ते में श्रीवास्तव जी ने भानु सिंह को टटोलने के लिए प्रश्न उछाला.....तब भानु भाई, इस मामले में क्या किया जाए?
इस साले को तोड़वाना होगा। परिवार के इज्जत को नाश करने पर तुला है। थाने चलिए। एफआईआर करवाया जाये....भानु सिंह ने उबलते हुए कहा।
कामरेड बोले....मैं सोच रहा हूं कि गांव में एक सामूहिक बैठक बुलाकर पप्पू सिंह से दुक्खू के कुनबे से माफी मांगने के लिए कहा जाए। इससे गरीबों में मैसेज जायेगा। पार्टी के प्रति भरोसा पैदा होगा। आम जनता को गोलबंद करने और संगठन विस्तार के लिहाज से यह ठीक होगा।
देखिये...पप्पूवा को मैं जानता हूं। बहुद जिद्दी और दुस्साहसी है। किसी कीमत पर माफी नहीं मांगेगा। डंडा झंडा लेकर मीटिंग करो और बाद में मुंह लटकाकर वापस लौट जाओ, यही मुझसे नहीं होता है।
भानु सिंह की बात से श्रीवास्तव जी को झटका लगा। मन में सोचने लगे....बात तो सही कह रहे हैं। पप्पू अगर माफी मांगने नहीं आया तो जनता डिमोरलाइज होगी।
तब क्या उपाय हो सकता है?
श्रीवास्तव जी रात को ही भानु सिंह को साथ लेकर पार्टी के जिला कार्यालय पहुंच गए। श्रीवास्तव जी ने एकांत में जिला सचिव से बातचीत की। मास मोबलाइजेशन के लिहाज से एफआईआर के अलावा भी कोई ग्रास रूट प्रोग्राम आर्गेनाइज करना होगा, पर वह क्या हो, यही तय नहीं हो पा रहा था।
भानु सिंह पार्टी आफिस के बाहर चौकी पर लेट गए। उन्हें गुस्सा आने लगा। यही सब पार्टी में ठीक नहीं लगता। अरे, तुरंत निर्णय करो और काम करो। पर यहां छोटी सी बात का भी बतंगड़ बनाकर घंटों बहस करने का रिवाज है। बहस, मीटिंग क्लास....हर एक बात पर। करिये आप लोग मीटिंग।
भानु सिंह करवट बदल कर सोचते रहे, बड़बड़ाते रहे। अंत में थक हार कर खर्राटे भरने लगे।
श्रीवास्तव जी और जिला सचिव स्टेशन पर चाय पीने चले गये। रास्ते में भी बातें होती रहीं। जिला सचिव श्रीवास्तव जी को समझाते रहे। अंत में तय हुआ कि.....फिलहाल एफआईआर करवाया जाये। साथ ही इस गांव का सामाजिक आर्थिक अध्ययन और कायदे से किया जाये। लैंडलेस पीजेंट के बीच कंसनट्रेट करके वर्क किया जाये। उनका इंडिपेंडेंट एसरशन ही आगे इस तरह की घटनाओं को रोक पायेगा।
पार्ट फोर
सुबह पार्टी के पैड पर पूरे घटनाक्रम का विवरण देते हुए दलित उत्पीड़न के मुख्य अभियुक्त पप्पू सिंह पर कार्रवाई की मांग करते हुए प्रार्थनापत्र तैयार किया गया। तीनों लोग थाने पहुंचे।
दरोगा ने घटनाक्रम जानने के बाद तीनों लोगों के चेहरों को गौर से देखा और पूछा....आप में से प्रताड़ित व्यक्ति है कौन?
भानु सिंह बोले....सर, प्रताड़ित व्यक्ति पर इतना अधिक दबाव है, इतना डरा हुआ है कि वह यहां आ नहीं सकता।
दरोगा ने रोबीले आवाज में कहा....इसका क्या मतलब हुआ। कल को वह इनकार कर दे कि मेरे साथ ऐसा कोई घटना हुई हो नहीं तो आप लोग क्या करेंगे। ऐसे रिपोर्ट नहीं लिखी जा सकती।
तीनों लोग थाने से बाहर निकल आए।
उधर गांव में बीती रात को ही कई माह से बीमार भानु सिंह के बाबा की तबीयत अचानक ज्यादा खराब हुई और मौत हो गई। छोटे से गांव में एक ही रात हुई दो घटनाओं की खूब चर्चा हुई। भानु सिंह के बाबा की मौत और डोमवा की पिटाई। ये दोनों प्रकरण जन जन की जुबान पर थे।
ठकुरहन और बभनौटी में यह चर्चा आम रही कि अपने गांव का डोमवा बहुत इज्जतदार है। गांव की बात थाने पुलिस में नहीं ले गया। पार्टी वाले तो उसे खूब उकसाते रहे।
चमटौली और पसियान में भानु सिंह की बाबा की मौत पर मुंह दबाकर लोग कहते रहे...जैसा किया वैसा मिला। डोम को पीटा तो भगवान ने भी घर के एक सदस्य को ऊपर बुला लिया। जैसे को तैसा न्याय हुआ।
अंतिम पार्ट
बाबा के अंतिम संस्कार में भानु सिंह का पूरा परिवार जुट गया। भानु सिंह के पिता चिंता में डूबे थे कि अगर डोमवा नहीं आया तो परवाह कैसे होगा। पर मुलागी को आता देख उन्हें संतोष हुआ।
मृतक संस्कार की तेरह दिनों की प्रक्रिया में डोम परिवार बराबरर अपने हिस्से के कर्तव्य का निर्वाह करता रहा। तेरहवीं के दिन दुक्खू परिवार मय अपने कुनबे और लाव लश्कर के साथ भानु सिंह के दरवाजे उपस्थित हुआ।
तेरहवीं के दौरान होने वाले भोज व खान-पान के स्थान से उठने वाला मिश्रित शोर और पेट्रोमेक्स की रोशनी दुक्खू के यहां पहुंचते पहुंचते कमजोरी हो जा रही थी। बैठका के बगल में आम के पेड़ के नीचे बैठा दुक्खू परिवार आते जाते लोगों को निहार रहा था। लोग आ रहे थे और बड़ी बड़ी पांतों में भोजन करके जा रहे थे। भोजन करके पांत ज्योंही उठती, कुक्कुर जूठे पत्तलों को साफ करने पहुंच जाते। पर दुक्खू की लाठी लगते ही कांय कांय करके दूर भाग जाते। जूठे पत्तलों को जल्दी जल्दी उठाकर मुलागी और कतरू अपनी महिलाओं को सुपुर्द कर देते।
आधी रात बीत गई।
भोज समाप्त होने के बाद परंपरानुसार दुक्खू परिवार को अलग बैठाकर पूरा भोजन कराया गया। सफेद रोशनी फेंकता गैस सन्न सन्न की तेज आवाज निकाल रहा है। दुक्खू डोम को भोजन करने के बाद तेरह दिनों की मृतक संस्कार प्रक्रिया के सफल होने की घोषणा करनी है। थके हुए लोग इस अंतिम लेकिन जरूरी कवायद की प्रतीक्षा करने लगे।
भोजन करने के बाद दुक्खू मोटी लाठी को दोनों हाथों से पकड़कर पूरा जोर लगाकर खड़े हुए।
पप्पू सिंह का धैर्य जवाब दे चुका था.....बोल पड़े....अरे दुक्खुवा...जल्दी बोल, बहुत देर हो गई है।
दुक्खू सकपकाया। एक बार भानु सिंह की तरफ देखा फिर चिल्ला पड़ा.....
सूपन भगत खाये.....जज्ञ पूरा भया.....सूपन भगत खाये....जज्ञ पूरा भया....।
इस समय अगर पंडितान के शास्त्री जी होते तो वे अगल बगल बैठे लोगों को समझाते कि जब युद्ध में मारे गये अपने परिवार के लोगों की शांति और मुक्ति के लिए युद्धिष्टर ने श्राद्ध करवाया तो तेरहवें दिन सुपच सुदर्शन नामक डोम ने भोजन करने के बाद श्राद्ध संस्कार और मृतक आत्माओं के सफल व मुक्त होने की घोषणा की थी। बस, तभी से चला आ रहा है यह विधान, मृतकों की मुक्ति के लिए.....!!!
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जय भड़ास
यशवंत सिंह
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 1 comments
yashwant bhai
chutiyape main shamil karane ke liye dhanyavad. bazar ke is samay main budhimani chutiyapa hi hoti hai. ah aapne bhi achhi tarah jan liya hoga. shesh phir............ .
main bhi chapekhane ka noukar hoin apki tarah.
chutiyapa jindabad....
.pankaj misra
Posted by पंकज मिश्र 0 comments
ab bas bhi karen yashwant jee..nindak neare rakhiye aangan kuti chhaway, bin sabun pani bina nirmal karat subhay..
hum kisi ki kuntha ko lekar itna udwelit nahin hon to achcha hai.isse agle ka maqsad poora hota lagta hai. aaiye shuru karen achchi achchi baaten , jo bhadas ki pehchan hai. humen uljhan se ab bahar nikalna hoga. kuchh naya taaza karen.
Posted by Pawan 0 comments
((डा. सुभाष भदौरिया जाने क्यों मुझे अच्छे लगते हैं। संभवतः वो एकमात्र ब्लागर हैं जो अपनी बात लपेट-लूपेट के नहीं बल्कि विशुद्ध सरल और सहज तरीके से कहते हैं, जिसे आम आदमी भी तुरंत समझ जाए। उन बौद्धिकों की तरह नहीं कि पढ़ते पढ़ते बौद्धिक कब्जियत हो जाए या अंत में लगा कि हां, बढ़िया जंजाल बुना था। डाक्टर साहब की बातें सीधे दिल तक पहुंचती हैं, उनमें दिमाग नहीं लगाना पड़ता। जैसे गांधी जी जो लिखते और कहते थे वो कोई निरक्षर भी समझ जाता था। बिलकुल सहज, सरल और संक्षिप्त। डाक्टर साहब ने लोक जीवन में रची बसी गालियों को अपने लेखन का जिस तरह हिस्सा बनाया है, भड़ास उसका कायल है और हम हमेशा से कहते रहे हैं कि डा. सुभाष भदौरिया सबसे बड़े भड़ासी हैं। जिस दिन भड़ास पुरस्कार दिया जाएगा, उसका सबसे पहले दावेदार डाक्टर साहेब ही होंगे। खैर, यहां जिस संदर्भ में बात कर रहा हूं वह है ढंढोरची की हकीकत पोस्ट पर डाक्टर साहब ने जो बिंदास टिप्पणी दी है, उससे वाकई मजा आ गया। लीजिए पढ़िए और अपनी प्रतिक्रिया दीजिए....जय भड़ास...यशवंत))
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Dr.Subhash Bhadauria has left a new comment on your post "ढंढोरची की हकीकत":
यार यशवंतजी एक जमाना हो गया, न हमने किसी को गाली दी, न किसी ने हमें दी, पर इस डिंडोरची ने वही मिसाल कर दी गांड में गू नहीं नौ सौ सुअर नौत दिये. यार हम तो आप सब में शामिल सुअर राज हैं.गू क्या गांड भी खा जायेंगे साले की, तब पता पता चलेगा. नेट पर बेनामी छिनरे कई हैं, अदब साहित्य से इन्हें कोई लेना देना नहीं हैं, सबसे बड़ा सवाल इनकी नस्ल का है, न इधर के न उधर के.
भाई हम सीधा कहते हैं, भड़ासी पहुँचे हुए संत है, शिगरेट शराब जुआ और तमाम फैले के बावजूद उन पर भरोसा किया जा सकता है. इन तिलकधारियों का भरोसा नहीं किया जा सकता.कुल्हड़ी में गुड़ फोड़ते हैं चुपके चुपके.इन का नाम लेकर इन्हें क्यों महान बना रहे हैं आप. देखो हम ने कैसे इस कमजर्फ को अमर कर दिया.
जय भड़ास.
डा. सुभाष भदौरिया
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 1 comments
भड़ास से पंगा लेने वाले ढंढोरची भाई को सलाम। पहले तो मैंने समझा कि किसी ने यूं ही ब्लाग बनाकर कुछ भी आंय बांय लिखना शुरू किया है लेकिन भड़ास के खिलाफ जब दो पोस्टें आ गईं तो लगा कि कोई गांड़ धो के पीछे पड़ गया है। ऐसे में एक ही चारा था, ढंढोरची की हिस्ट्रीशीट खोलना। हालांकि कई बार हिस्ट्रीशीटर खुद की हिस्ट्री खुद ही गाते फिरते हैं और ढंढोरची के मामले में भी ऐसा ही हुआ। भाई ने एक तो खुद को पहले ही अनाम कर लिया है सो वो खुलकर बोल नहीं सकता। और, नकल करता है भड़ास की स्टाइल का मतलब कह रहा है कि अपन ने भड़ास निकाल दी तो बुरा लग गया टाइप की बात। मेरा कहना है मेरे भाया, बुरा भला कुछऊ ना होत है ऐह दुनिया मा। आप गंदा बोलो अच्छा बोलो लेकिन बोलो तो अपनी पहचान के साथ। अनाम ढंढोरची का कोई मतलब नहीं होता है।
ढंढरोची ने जो हिस्ट्रीशीट खुद की लिखी है वो पढ़कर आप खुद कह उठेंगे कि अरे, बीस वर्षों तक साहित्यकारों, संपादकों का चक्करर लगाने वाले कुंठित व्यक्ति अगर लिखेगा भी तो कतई खुलकर नहीं लिखेगा, वह छिपकर हमले करेगा। मनोविज्ञान की भाषा में ऐसे लोगों को इतना कुंठित बताया गया है कि अगर वो अकेले में किसी बच्ची को पा जाएं तो रेप भी कर डालें। दरअसल कुंठा का कोई ओरछोर नहीं होता। सबके सामने शरीफ बने रहेंगे और अगर छुपने या अकेले होने का मौका मिल जाए तो उनके कुंठा का जिन्न् बाहर आ जाता है। ब्लाग के मामले में भी ऐसा ही है। ढेर सारे लोग हैं जो अनाम होकर कमेंट करते हैं और फर्जीनाम से ब्लाग चलाते हैं। ऐसे लोगों में से अधिकतर डरपोक और कुंठित होते हैं। इन्हें समाज से भय भी होता है और इन्हें समाज के खिलाफ क्रांति भी करनी होती है। इसी दुविधा में मरते रहते हैं। माया मिली न राम। फिलहाल ढंढरोची की खुद के हाथों लिखी प्रोफाइल ऊर्फ हिस्ट्रीशीट पढ़िए और बताइए कि क्या वाकई यह शख्स कुंठित नहीं होगा.....
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नाम.....ढंढोरची
Location: जहाँ चहा वहाँ रहा
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आप आज ऎसे इंसान का परिचय जान रहे हैं जिस ने पिछले बीस सालों से साहित्य जगत में विभिन्न मासिक,सप्ताहिक,दैनिक पत्र-पत्रिकओं मे अपनी रचनाएं प्रेषित की हैं। मुझे अधिकतर ्बड़े-बड़े संम्पादकों को अपना परिचय देने की अवश्यकता नहीं पड़्ती । वह मेरे नाम,मेरे काम को जानते हैं।बीस सालों मे मैनें हजारों रचनाएं उन्हें भेजी हैं ।यह बात अलग है कि उन्होनें बड़े प्रेम के साथ धन्यवाद देते हुए मेरी सभी रचनाएं खेद सहित वापिस लोटा दी। जिन्हें बाद मे मैनें कबाड़ीवाले को बेच दिया। कई संम्पादको ने तो मुझसे विनम्र प्रार्थना की आप की रचनाएं हम समझनें में असमर्थ है। अतः भेजने का कष्ट ना करें। उसी महान रचनाकार,लेखक की रचनाएं अब आप को पढ़नी होगीं। वह संम्पादक तो ना समझ थे इस लिए मेरी रचनाओं को वह ना समझ सके ।लेकिन मै जानता हूँ कि यहाँ के चिट्ठाकार बहुत अकल मंद हैं । वह मेरी भावनाओं कि कदर करेगें।
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वैसे, ढंढोरची भाई, आप भड़ास खूब निकालो, हम दुखी न होंगे, दुखी बस इसलिए हैं कि आप छिपकर भड़ास निकाल रहे हो। यह आपको हलका नहीं करेगा, आपकी कुंठा को और बढ़ाएगा। भगवान आपको अक्ल दें। हालांकि आपने जो काम शुरू किया है उससे भड़ास को प्रचार ही मिलेगा, मुश्किलें तो आपकी बढ़ेंगी। आपका ब्लाग देखकर यह लग रहा है कि आपको जानकारी ढेर सारी है, खासकर तकनीक की भी। ढेर सारे लिंक और टूलबार लगा रखें हैं। मैं तो आपसे कम ही जानता हूं लेकिन आप सब खेल छिपकर कर रहे हैं इससे यह साफ जाहिर है कि आपने मां का दूध नहीं बल्कि डिब्बाबंद बोतल के जरिए जवानी की दहलीज पर कदम रखी है। चलिए...आपकी अगली पोस्ट का इंतजार रहेगा....। हम लोग तो हैं ही दर छंटे हरामी, आप जैसा महानुभाव के मिल जाने से थोड़ी गर्मी बनी रहती है।
जय भड़ास
यशवंत
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 6 comments
बेनजीर भुट्टो कोई क्रांतिकारी नहीं थीं लेकिन इन दिनों वो वाकई एक मुश्किल काम को अंजाम देने पर लगी हुई थीं, किसी क्रांतिकारी की तरह। जनरल का राज खत्म करने का। जनरल से पंगा लेने का। अवाम को खुलकर बोलने के लिए उकसाने का। तानाशाही की जगह जम्हूरियत लाने का। बिना डरे, बिना हिचके। पिछले बम धमाको से सबक लेना चाहिए था, लेकिन वो डरी व सहमी नहीं। मुशर्रफ को टारगेट पर ले ही लिया। मुशर्ऱफ से समझौते के बावजूद जिस तरीके से उन्होंने वर्दीवाले जनरल की खाल उधेड़नी शुरू की उससे सभी को शक होने लगा था कि जनरल जरूर कुछ न कुछ करेगा। एक वो कायर शरीफ जो जहाज से उतरकर फिर वापस लौट गया या लौटा दिया गया। एक ये बहादुर महिला जो समझौता करके रणनीति के तहत पाकिस्तान पहुंची लेकिन पाकिस्तान आकर जनरल को आंखे दिखा बैठी। जनरल को काहे सुहाता। वो कोई जनरल ही था जिसने बेनजीर के वालिद को कत्ल कर दिया था और सत्ता कब्जा लिया था। इन जनरलों से लड़ने भिड़ने वाले कुनबे को बेनजीर की शहादत से पूरी दुनिया में प्रतिष्ठा मिलेगी और लोग प्रेरणा लेंगे लेकिन सवाल यही उठता है कि क्या आज के दौर में बहादुरी से जीना मौत को गले लगाने की तरह नहीं हो गया है। हालांकि ये सवाल बकवास है क्योंकि किसी भी दौर में क्रांति और सिस्टम के खिलाफ कार्य को हमेशा खतरनाक निगाह से देखा गया है। और आज भी देखा जाता है वो कल भी देखा जाएगा। लेकिन अब जबकि सुविधाभोगियों और रीढ़विहीनों की तादाद काफी बढ़ गई है, सच कहने और जीने वालों को चूतिया और बेवकूफ माना जाने लगा है, ऐसे में बेनजीर की शहादत इन लोगों की कायरता को और बढ़ाने का काम नहीं करेगी? कायरों, मक्कारों, झूठों, साजिशों में जीने वालों को हमेशा से लगता रहा है कि सत्ता व सिस्टम चाहे जिस तरह का हो, उससे लाभ कमाओ और मौज मनाओ। लेकिन जो स्वप्नद्रष्टा होते हैं वे निजी जीवन से परे हटकर एक समग्र सोच व दृष्टि के साथ जीवन जीते हैं। और उन्हें अपने जीवन में ढेर सारे दुख पाने व सहने होते हैं। वो चाहें वर्मा की सू की हों या पाकिस्तान की बेनजीर। इन महिलाओं को वाकई इस युग के सबसे जुझारू व्यक्तित्तव के रूप में दर्ज किया जाना चाहिए।
बेनजीर की शहादत पर भड़ास गमगीन और उदास है।
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
विनीत ने अच्छी बात उठाई है। किरण बेदी के बहाने। सही कहा, बचपन में जीके वाली किताबों में पढ़ते थे पहली महिला आईपीएस के नाम के बारे में। बाद में हर साल उनके बारे में कुछ न कुछ बढ़िया पढ़ने सुनने को मिलता। कभी इमानदारी, कभी तेवर, कभी योगा, कभी संवेदनशीलता आदि को लेकर। उनके जीवन पर फिल्म व किताब सब कुछ बन लिख चुका है...। इस महिला की विदाई जिस तरीके से हुई है उससे यही साबित होता है कि सिस्टम में अब वाकई अच्छे लोगों की पूछ नहीं रही। जो सेटिंग गेटिंग पर यकीन नहीं करता हो, उसे हाशिए पर ही जीना होगा। प्रदेशों में तो ये जाने कब से हो रहा है, लेकिन केंद्र सरकार में भी यही स्थितियां हैं, यह प्रकरण इस नए तथ्य को साबित करता है। चलिए, हम सब किरण बेदी को एक नए जीवन के लिए बधाई दें जिसमें उन्हें महिलाओं और पुलिस सुधार हेतु बहुत कुछ करना है। जाहिर है, उनकी मुहिम में हम सब साथ होंगे। इस जुझारू महिला को भड़ास की तरफ से सलाम....। लाखों-करोड़ों भारतीय लड़कियों और महिलाओं की प्रेरणा किरण बेदी अपने वीआरएस के बाद वाले जीवन को संभवतः सबसे ज्यादा जुझारूपन से जियेंगी। कायरों और डरपोकों के इस दौर में अगर खुलकर जीना सजा है तो किरण बेदी ने इस सजा को वाकई भुगता है। वर्षों बरस वह कोने में बिठा दी गईं लेकिन वहां भी उन्होंने अपना काम जारी रखा और चर्चा में आती रहीं। मतलब, अच्छा आदमी जहां रहेगा वहां वह रास्ता निकाल लेगा....।
जय भड़ास
यशवंत
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
आखिरकार किरण बेदी पुलिस की नौकरी छोड़ थी। भारतीय पुलिस सेवा की अपनी 35 साल के दौरान उन्होने जिस तरह कई बेहतरीन काम कया और अक्सर खबरों में रही यह सभी के लिए यादगार रहेगा।
बचपन में जेनरल नोलेज याद करते समय देश की पहली आईपीअस का नाम किरण बेदी को याद करता रह , लेकिन दैनिक जागरण में कालम लिखने के दौरान उनसे बातचीत और रांची से निकलने वाले अख़बार प्रभात खबर में उनके बारे में मैंने जीना ऐसे सीखा कालम में लिखने के दौरान उन्हें जाना। उनकी कड़क आवाज और अलग सोच भीड़ से अलग करती है। आज इंटरनेट खंगालते-खंगालते अचानक जागरण में लिखा मेरा कालम दिख गया। उसे पढ़ते समझ में आने लगा की किरण बेदी का पुलिस नौकरी छोड़ना आश्चर्य नहीं है। क्यों न आप भी इसे पढें। पेश है उनसे बातचीत; मूल्यों से समझोता करके सफलता तो पाई जा सकती है। पद और पैसा भी कमाए जा सकते हैं पर इससे आंतरिक ख़ुशी नहीं मिल सकती है। सही कदम जहाँ आपको सफलता दिलायेंगे वही गलत कदम सबक होंगे। खुद लें अपने निर्णय भारत की पहली महिला आईपीएस किरण बेदी ने १९७२ में इस सेवा में आने के बाद अपनी काय्र्कुशालता का लोहा मनवा दिया । वह एशियन टेनिस चैम्पियन भी रही। उन्हें मैग्सेसे अवार्ड, जर्मन फौंदेस्शन के जोसेफ ब्यास अवार्ड के अलावा मदर टेरेसा अवार्ड और फिक्की अवार्ड से भी सम्मानित किया जा चूका है। इस बार जोश के पाठकों को सफलता का सूत्र बता रहीं हैं सुश्री बेदी- क्लिक करें- खुद लें अपने निर्णय
Posted by विनीत उत्पल 0 comments
Posted by Parvez Sagar 0 comments
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लगातार दौरों के कारण भड़ास पर लिखने की स्थिति नहीं बन पा रही है, हां, इसे देखता जरूर रहता हूं। इधर बीच भड़ास पर कई भड़ासियों ने अपनी अच्छी गंदी कलम चलाई है और इसका तहेदिल से स्वागत करता हूं। हां, आगे जो भी लिखें उसमें गहराई और इमोशन लाने की कोशिश करें, तभी वो बाकी लोगों को खींच पाती है। मैं खुद भड़ास पर ज्यादा नहीं लिख पा रहा, इसका मुझे खेद है क्योंकि आजकल जो कुछ कर रहा हूं वो शायद इतना बड़ा और इतना ऊंचा है कि उसमें से वक्त निकाल पाना मुश्किल हो रहा है लेकिन भड़ास एक प्यार की तरह है जिसे छोड़ पाना मुश्किल है इसलिए मैं भड़ासियों से अनुरोध करता हूं कि वो जरूर शेर, गजल, संस्मरण, व्यंग्य, समीक्षा, चुटकुले, बहस...कुछ भी लिखा करें ताकि भड़ास लगातार ताजा बने रहे। विरोधियों के उकसावे व साजिशों से सावधना रहें क्योंकि मुझे जानने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि मैंने जीवन में हमेशा बड़ा और ऊंचा सोचा व जिया है इसलिए कमीनगी और धूर्तता जैसी बातें सोच पाना भी मेरे लिए संभव नहीं है। मैंने संबंधों और भावनाओं के लिए कभी परिवार और नौकरी तक की परवाह नहीं की। हां, ये जानता हूं कि जब कोई आगे बढ़ता है तो उसके टांग खींचने वाले ढेरों पैदा हो जाते हैं। इतना वादा जरूर है कि एक दिन भड़ास को हिंदी आनलाइन दुनिया का चमकता सितारा बनाना है और उसका फायदा भड़ास के सभी सदस्यों को देना है। यह ज्यादा बड़ी बात नहीं है कि दो साल बाद भड़ास के सभी सदस्य हर महीने हजार रुपये पाने लगें। इसको लेकर लगातार प्लानिंग चल रही है और काम हो रहा है। बड़ी, अच्छी और नई चीज को आने में वक्त तो लगता है....।
जय भड़ास
यशवंत
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
अभी कुछ दिन पहले 88 भड़ासी हुए थे तो एक पोस्ट लिखी थी कि नए साल में 100 भड़ासी होने चाहिए। और चमत्कार देखिए, चार दिनों में 12 लोगों ने भड़ास की मेंबरशिप लेकर संख्या 98 कर दी है। मतलब सौ पूरे ही समझिए। भड़ास में पिछले दिनों गूगल एडसेंस के तीन विज्ञापन लगाए, एक बाटम में, एक राइटहैंड साइड में और एक टाप पर। जोधपुर से लौटा तो देखा कि उपर वाला विज्ञापन केवल दिख रहा है और दाएं व बाटम वाला अदृश्य हो गया है। समझ में नहीं आ रहा, गूगल एडसेंस किस तरह लगाते हैं। इसका अलग से कोई एकाउंट भी खोलना पड़ता है। अभी इतनी तकनीकी समझ न होने से फिलहाल फिर से गूगल एडसेंस हटा रहा हूं। जब तकनीकी समझदारी किसी साथी से ले लूंगा तब फिर लगाऊंगा। इस एडसेंस को लगाने का सीधा मतलब है ब्लाग को विज्ञापन के लिए खोलना ताकि कुछ पैसा आ सकें। और इन पैसों का क्या होगा। तो, यह पहले से ही पता है कि भड़ास को जब शुरू किया गया था और आगे बढ़ा तो उसमें कई प्रोजेक्ट शामिल हो गए। इसमें पत्रकारों के लिए पुरस्कारर और ट्रेनिंग सेंटर तक खोलने का भी प्रस्ताव भी था। और ये सब आज भी है क्योंकि भड़ास अंतिम तौर पर हिंदी मीडिया से जुड़े लोगों की भलाई के लिए है, न कि निजी लाभ के लिए। भड़ास के जरिए भविष्य में जो भी लाभ मिलेगा, उसे सभी भड़ासियों के भले के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। और हां, पुरस्कार उन्हीं को मिलेगा जो भड़ास के मेंबर होंगे। मतलब भड़ास के सदस्यों के लिए पत्रकारिता पुरस्कार दिया जाएगा। इसमें ज्यादा वक्त नहीं लगेगा क्योंकि कुछ लोग पुरस्कार को फाइनेंस करने को तैयार होते दिख रहे हैं।
फिलहाल भड़ासियों का शतक पूरा होने का जश्न मनाइए..
जय भड़ास
यशवंत
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 4 comments
आशीष महर्षि ने किसी ढिंढोरची नामक ब्लाग पर लिखी गई भड़ास की बुराई संबंधी पोस्ट को भड़ासियों को पढ़ाने के लिए भड़ास पर पोस्ट किया है और मुझे सूचित किया कि किसी ने भड़ास के खिलाफ लिखा है। ढिंढोरची पर गया और पढ़ा था तो लगा कि वो खुद ही इतना डरा हुआ बंदा है कि वो खिलाफ लिख ही नहीं सकता। वह पहले से ही कह रहा है कि भड़ास वाले उसे चप्पल बजायेंगे, गंदी गंदी गाली देंगे....। नहीं ढिंढोरची भाई, जब भगवान ने आपको ढिंढोरा पीटने के लिए ही पैदा किया है तो आप पीटो, हमें कतई बुरा नहीं लगेगा। भड़ास की बढ़ती सदस्य संख्या से आपका दुखी होना लाजिमी है, भड़ास पर गूगल एडसेंस के विज्ञापन लगा देने से आपका दुखी होना जिनुइन है, किसी की बढ़ती लोकप्रियता से जलभुनकर उस पर ओछे आरोप लगा देना मानवोचित है और भड़ास के साथी मानवोचित गल्तियों के लिए मनुष्यों को माफ कर दिया करते हैं। तो भई ढिंढोरची, आप अपना धंधा करो, ढिंढोरा पीटने का। हम लोग अपना करेंगे। और हां, आप को एक शुभ खबर दे दें, भ़ड़ास के 100 मेंबर हो गए। मतलब, जब हमने कहा था कि नए साल में 100 सदस्यों के साथ जाएंगे तो उसके चार दिन में ही 12 सदस्य बढ़ गए और भड़ासियों ने शतक ठोंक दिया।
खैर, आजकल जीवन इतना व्यस्त है कि पूछो मत। अभी जोधपुर से लौटा हूं। फिर इलाहाबाद जाने की तैयारी है। उसके बाद हरिद्वार और ऋषिकेश में मीटिंग्स हैं। मतलब, पूरा जनवरी बुक है। और हां, कुछ शुभ सूचनाएं भी हैं। एक नया चैनल खोलने के प्रस्ताव पर काम कर रहे हैं। मतलब पैसा लगाने वाला तैयार है, बस हमें उसे इंप्लीमेंट करना है लेकिन चैनल खोलने से पहले उसके ट्रांसमिशन से लेकर डिस्ट्रीब्यूशन तक के खेल को समझना होगा। और हां, यहां बता दूं कि चैनल में बतौर किसी (आउट या इन) ...पुट एडीटर के बतौर नहीं बल्कि शेयर होल्डर के बतौर काम करने का प्रस्ताव है। देखते हैं, क्या होता है....।
जय भड़ास...
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 4 comments
अपनी इस ब्लाग की दुनिया में एक से एक लोग हैं। एक ऐसे ही कोई महानुभाव ढंढोरची का चिट्ठा नाम से एक ब्लॉग के मालिक हैं। वो अपनी एक पोस्ट में लिखते हैं कि कोई जानता है कि भड़ास की क्यों मौत हो गई। मजेदार समाचार Oddly Enough Hindi News में यह खबर छपी है। शायद जिन्होनें मेरी इस पोस्ट को पढा होगा वे जानते होगें या समझ गए होगें। यदि नही समझे तो एक बार इस पोस्ट को पढें।- भड़ास का गोरख धंधा -मुझे लगता है भड़ासानंद का जमीर जाग गया होगा। या आईना देख कर खुद से ही शर्मिंदा हो गया होगा आईना । खेर जो भी हो लेकिन भड़ास को बंद नही होना चाहिए था। उसे अपनी कमी या यूँ कहें गलती को सुधारना चाहिए था।
Posted by Ashish Maharishi 7 comments
Santa tum phir chook gaye..
santa tumne mujhe phir rula diya is chrismas per. mai behad khush tha. is bar tumhe equarium me jab dekha dolfin ko chocolate khilate huye.tab laga tha ki tum shayad is baar janta colony me bhookh se bilkah rahe bacchon ke aansoo ponchchoge, unhe roti doge aur pencil , copy bhi. magar afsos tum nahin aaye..der rat jab maine dekha ki tum five star hotels, restraunts, picnic spots aur shopping malls me aghaye huye bachchon ko cake khilakaraur gift dekar laut ja rahe ho to main fafak pada...subeh mere aansoo sookh chuke the, kaleja patthar ka ho chuka tha..janta colony ke rampher ne apne teen bachchon ko nadi me phenk diya tha...khud bhi koodne ja reha tha ki logon ne bacha liya usko..bhookh se jo marna hai usko..
main phir normal ho gaya...ghar me apne bete ko chocolate khate dekhkar. hame kya lena janta colony se..yahi hamara charitra hai.
Posted by Pawan 0 comments
गुप्त जी की स्मृति में "पत्रकारिता-संस्थान" की स्थापना होनी ही चाहिऐ :प्रो० ए० डी० एन० बाजपेयी
"संस्कार धानी जबलपुर में पत्रकारिता के विकास के विभिन्न सोपानों का जिक्र हुआ , पत्रकारिता के मूल्यों , वर्तमान संदर्भों पर टिप्पणी की गयी अवसर था स्व० हीरा लाल गुप्त मधुकर जी के जन्म दिवस पर उनके समकालीन साथियों को सम्मानित करने का ।" इस अवसर पर मुख्य-अतिथि के रूप में बोलते हुए प्रो० ए० डी० एन० बाजपेयी ने कहा:-"गुप्त जी और ततसमकालिक पत्रकारिता के मूल्य बेहद उच्च स्तरीय रहें है। पत्रकारिता यानी प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ के मूल्य भी शेष तीन स्तंभों की तरह चिंतन के योग्य हों गए हैं ।"पत्रकारिता और अधिक जनोन्मुखी हों इस विषय पर गंभीरता पूर्वक चिंतन करना ही होगा । संवेदित भाव से समाचार लेखन और भाव-संवेग से आलेखित समाचार में फर्क होता है। समाज को अब समझदार पत्रकारिता की ज़रूरत है मूल्यवान पत्रकारिता की ज़रूरत है...ताकि समाज को युग को सही दिशा मिल सके ।प्रो० बाजपेयी की अपेक्षा रही कि पत्रकारिता के विकास हेतु अकादमी स्थापित हों।अपने अध्यक्षीय उदबोधन में डाक्टर आलोक चंसौरिया ने संबंधों के निर्वहन में सिद्ध माने जाने वाले गुप्त जी एं सव्यसाची माँ प्रमिला देवी बिल्लोरे को श्रद्धांजलि देते हुए कहा :- "बदलते समय में पत्रकारों को राजनीतिज्ञों का गुरु मार्ग दर्शक एवं हैं इस बात कि पुष्टी हम राजनीतिज्ञ कर सकतें हैं। कलम के सिपाही हमारे सदकार्यों को सराहते हैं । गलतियों पर लताड्तें-डपटतें भी हैं अपनी कलम से । कलम और उसकी ताक़त को कोई भी नहीं नकार सकता ।स्मृति समारोह की ज़रूरत और उसे लगातार वर्ष १९९७ से आयोजन समिति के प्रयास को अद्वितीय निरूपित करते हुए वरिष्ट पत्र-कार डाक्टर राज कुमार तिवारी सुमित्र नें कहा:-"यह समारोह मूल्य के संरक्षकों के प्रति कृतज्ञता का समारोह है।"
गुप्त स्मृति सम्मान से सम्मानित पं ० दिनेश पाठक तथा सव्यसाची अलंकरण से अलंकृत विजय तिवारी ने सादगी और सहज जीवन तथा संकल्प को पत्रकारिता का मूल आधार निरूपित किया। मंचासीन अतिथियों में श्री भगवतीधर बाजपेई , काशीनाथ बिल्लोरे विशिष्ठ अतिथि के रूप मी उपस्थित थे।. कार्यक्रम शुभारम्भ अतिथियों द्वारा स्व० हीरा लाल गुप्त एवं स्व० माँ सव्यसाची प्रमिला देवी बिल्लोरे के चित्र पर की पूजन अर्चन से हुआ ।तदुपरांत आलोक वर्मा " मास्टर शक्ति" की संगीत संयोजना में मधुकर जी के गीतों का गायन बाल गायिका श्रद्धा बिल्लोरे ,एवं आदित्य सूद द्वारा किया गया संगीत सहभागिता रमण पिल्लई ने की ।अतिथियों,का स्वागत इन्द्रा पाठक तिवारी , अर्चना मलैया, शशिकला सेन , हरीश बिल्लोरे , सतीश बिल्लोरे , राजीव गुप्ता, अरविंद गुप्ता, डाक्टर विजय तिवारी "किसलय "कहानी मंच की और से रमाकांत ताम्रकार, बसंत मिश्रा आदि ने किया ।गुप्त स्मृति अलंकरण से सम्मानित वयो वृद्ध पत्रकार श्री दिनेश पाठक को शाल श्री फल सम्मान पत्र एवं सम्मानिधि देकर सम्मानित किया गया ।जबकि श्री विजय तिवारी को सव्य साची प्रमिला देवी बिल्लोरे स्मृति सम्मान से नवाजा गया । इस अवसर पर गुप्ता एवं बिल्लोरे परिवारों के सदस्यों के अलावा नगर के विशिष्ठ जन उपस्थित रहे।कार्यक्रम में उपस्थित वरिष्ठ पत्रकार पं.भगवतीधर बाजपेयी , मोहन शशि , श्री श्याम कटारे,राजू घोलप, कवि साहित्यकार श्री राम ठाकुर "दादा" मोइनुद्दीन अतहर , एडवोकेट प्रमोद पांडे , रमेश सैनी, नार्मदीय ब्राह्मण समाज से श्री काशी नाथ अमलाथे, स्व० संग्राम सेनानी मांगी लाल जी गुहा , गोविन्द गुहा , संतोष बिल्लोरे आदि ने पुष्पांजलि अर्पित की ।कार्यक्रम का संचालन राजेश पाठक तथा आभार अभिव्यक्ति गिरीश बिल्लोरे "मुकुल" ने किया।
डाक्टर विजय तिवारी "किसलय"
९४२५३२५३५३
Posted by Girish Kumar Billore 0 comments
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