पंडित सुरेश नीरव की गुदगुदी ग़ज़ल
शर्म आती है यह बताने मैं
इक चवन्नी है बस खजाने मैं
रात गुजरी है गुसलखाने मैं
क्या खिलाया था तूने खाने मैं
एक ही लट थी चाँद पर उनके
वक्त लग्ना था उसे सजाने मैं
कैसे बाहर नदी से वो आते
कपड़े गायब हुए नहाने मैं
कौन संग ले उड़ा उसको
तुम लगे थे जिसे पटाने मैं
दोस्त मुश्किल से एक दो होंगे
इतने बैठे हैं शामियाने मैं
उम्र गुजरी है आजमाने मैं
कोई अपना नहीं ज़माने मैं ।
जय भड़ास
शर्म आती है यह बताने मैं
इक चवन्नी है बस खजाने मैं
रात गुजरी है गुसलखाने मैं
क्या खिलाया था तूने खाने मैं
एक ही लट थी चाँद पर उनके
वक्त लग्ना था उसे सजाने मैं
कैसे बाहर नदी से वो आते
कपड़े गायब हुए नहाने मैं
कौन संग ले उड़ा उसको
तुम लगे थे जिसे पटाने मैं
दोस्त मुश्किल से एक दो होंगे
इतने बैठे हैं शामियाने मैं
उम्र गुजरी है आजमाने मैं
कोई अपना नहीं ज़माने मैं ।
जय भड़ास
6 comments:
उम्र गुजरी है आजमाने मैं
कोई अपना नहीं ज़माने मैं ।
kyon itna nirash ho rahe sir. blog bhadas hai na.
उम्र गुजरी है आजमाने मैं
कोई अपना नहीं ज़माने मैं ।
kyon itna nirash ho rahe sir. blog bhadas hai na.
maza aaya...nice
NIRAV DA....BEJOR...AAPKAA FAN TO HUN HI,AB BHADAS PAR AAP AA GAYE TO SACHMUCH BARA MAJA AA RAHAA HAI.
Gajab..uresh nirav ji ki kavitayen phir bhadas par milegi yeh umeed hai..
प्रभु,उम्र गुजरी है आजमाने में ।
कोई अपना नहीं ज़माने में ।
कमर पर हाथ रखे रहिये हरदम ।
क्योंकि नाड़ा नहीं है पैजामे में ।
ही ही ही.....खिसिर..खिसिर...दंतनिपोरी...
जय जय भड़ास
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