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12.3.08

लड़ाई..... विचार की .... सिदान्त की...... या अस्तित्व की......

समझ मैं नही आता या यूं कहें की सोचने को मजबूर हो जाता हूँ की पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण ये हमारी चौहद्दी है या ........... सब मिलके भारत वर्ष बनता है या.... भारत एक देश है या विभिन्न प्रांतों का महादेश. ये प्रान्त भारत से हैं या स्वतंत्र.... अगर इनमे भारतीयता के लिए सम्मान नही है तो निश्चय ही भारत की अलग अलग प्रांतों के लिए तो नही ही होगा. माफ़ करेंगे मगर मैं ये अपने विचार नही रख रहा अपितु अलग अलग प्रांतों का भ्रमण करने के बाद जो अनुभव मैं ने जमा किए हैं वो ही मात्र कह रहा हूँ. पूर्व और उत्तर के प्रांतों मैं जो अस्तित्वा के साथ अपने को बाकी से बेहतर बताने की कवायद है उस से उलट पश्चिम और दक्षिण भारत के लोगों के लिए उत्तर-पूर्व भारतीयों शुद्र मात्र हैं जो की अनपढ़ हैं, जाहिल हैं, निकम्मे हैं, नाकारा हैं, और इन सबके बावजूद इन लोगों के लिए चुनौती हैं. ये चुनौती इनसे हजम नही हो पा रही है. माफ़ करेंगे मैं वापस उस पुराने मुद्दे को नही उठाना चाहता हूँ मगर अभी कुछ दिनों पूर्व के अपने संस्मरण को कलामबध कर रहा हूँ.पहली बार दिल्ली से दक्षिण की यात्रा पर हैदराबाद गया. हैदराबाद से ही आगे फ़िर अनंतपुर, कुर्नूल, कडप्पा, और फ़िर तिरुपति. ये मैं भ्रमण पर नही बल्कि आंध्र प्रदेश से जल्दी ही प्रकाशित होने वाली दैनिक "साक्षी" के लिए गया था. अनुभव अच ही कहिये मगर एक बिहारी होने की त्रासदी .... आप बच नही सकते. बहरहाल हैदराबाद से चला मुम्बई. अंदर एक डर और संग ही कौतुहल भी की पता नही क्या हो, कहीं स्टेशन पर जाते ही न पिट जाऊं, इसी उधेर्बुन में अपने बर्थ पे आ के बैठ गया. कुछ देर बाद एक सुइट बूट मैं एक साहेब मेरे पास आ के बैठ गए. अनोपचारिक मुलाकात के बाद एक अधेड़ युगल भी आ गए. यात्रा सुरु हुई आगे चल के महिला जो की अखबार के पन्ने उलट रही थी ने बात चीत का सिलसिला राज ठाकरे महाशय से सुरु करी की ये क्या हो गया है इन्हें ये ऐसा क्योँ कर रहे हैं आखिर क्या चाहते हैं यू पी और बिहारी से इसे बर्ताव क्यूँकर हो रहा है. हमारे बगल के सुइट बूट के महाशय जो की अपने आप को भारत सरकार के टैक्स विभाग के कमिश्नोर बता रहे थे ने बात आगे बताया और जहाँ तक सम्भव है इन बेचारे को सभ्यता के नाम पे कलंक साबित करने की पूर जोर ताकत लगा दी. मन मैं बैचैनी हुई जा रही थी क्या करूं मैथिल हूँ बिना टपके रह नही सकता डर भी था की शिवाजी के घर मैं घुस चुका हूँ कुछ भी हो सकता है. मगर अपने आप को रोक ना सका और टपक पड़ा महाशय को जवाब देने में, उनके सरे तीर निरस्त हो गए अपने मूंह की खाने के बाद चुप....... डिब्बे मैं सन्नाटा मगर सभी का कौतुहल की आखिर कोई अच्छा तो कैसे और कोई बुरा तौ क्योँ. वर्तमान को जाने दे तो इतिहास की भी दुहाई एक शिवा जी याद नही की कभी शिवा जी ने गुरिल्ला लड़ाई (एल टी टी ई की तरह) के अलावे किसी का सामना किया हो. शेर शाह की तरह जी टी रोड बनवाया हो या भगत शिंह की तरह वीर गति को स्वीकार किया हो मगर फ़िर भी.......... जय शिवा जी .......
माफ़ करें ज्यादा नही बस इतना कहूँगा की या तो उन महापुरुषों के सिधान्तों पर चलें या उन्हें भूल जाएं.

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