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20.3.08

घर

सुनहरी यादों के
कुछ कंकड़
कुछ पत्थर
चुनकर बनाता हूं
एक घर
खड़ा करता हूं
उसका ढांचा
मेरा घर
जो अक्सर झूलता है
भावनाओं के झूले में
भावनाओं को
मूतॅ रूप देना
कितना किठना है
अभाओं से जुझते
इस मरूभूमि में
यादों से बाहर आकर
बार-बार हटाता हूं
रेत के ढेर को
अपने हाथों से
सोचता हूं
कैसे बन सकता है
रेत में
रेत से
घर

मंतोष कुमार सिंह

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