पहली बार बीहड़ में एक नई पहल हो रही है। सदियों से दबे और आज भी हद तक पिछड़े लोगों में उत्तेजना है। इस उत्तेजना की वजह है चुनाव। मध्यप्रदेश में एक जिला है मुरैना। बीहड़ और बेहद जटिल परिस्थिति वाले इस जिले के पास ही है श्योपुर जिला। मुरैना को काटकर बनाए गए इस जिले में सहरिया आदिवासी की बड़ी संख्या है। यह जाति सदियों से पिछड़ी रही है। इसकी कई पीढ़ियों में तो ट्रेन देखी तक नहीं है। शहर में चलने और उठने बैठने का क्या कायदा होता है यह नहीं जानते। इसके कई लोग तो पुलिस के सिपाही को देखते ही अभी हाल तक भागते रहे हैं लेकिन लगता है अब हालात बदल रहे हैं। इस जिले की तहसील विजयपुर से भाजपा के टिकट पर पहली वार इस इलाके से कोई आदिवासी चुनाव लड़ रहा है और यह आदिवासी है सीताराम जो गर्व से अपने नाम के आगे आदिवासी लगाते हैं। यहां मुद्दा किसी पार्टी का नहीं है लेकिन मौजूदा हालात में जिस तरह सीताराम के साथ वहां का आदिवासी एकजुट हुआ है उसने जता दिया है कि सत्ता में आने की छटपटाहट उनके अंदर भी है। चिंता है तो सिर्फ इतनी कि यह छटपटाहट किसी वैचारिक स्तर या अपने हक को पाने की अकुलाहट के बजाए जाति के उसी विषैले समीकरण से पैदा हुई है जिसने मौजूदा राजनीति के परिदृश्य को नीलकंठी बना दिया है। कुछ भी हो लेकिन इससे आदिवासियों में राजनीति का स्वाद तो मिलेगा ही और देर से ही सही वह अच्छे बुरे की पहचान करेंगे। सीताराम आदिवासी इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि सहरिया आदिवासियों में से चुनाव लड़ने वाले शायद वह पहले प्रत्याशी हैं जो किसी राष्ट्रीय पार्टी के टिकट पर चुनावन लड़ रहे हैं।
16.11.08
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