वहाँ कौन है तेरा...मुसाफिर....
जायेगा कहाँ.....
दम ले ले.....
दम ले...दम ले ले...
दम ले ले घडी भर...
ये समा पायेगा कहाँ...
पिघलता सा जा रहा है हर ओर
किसी बदलती हुई-सी शै की तरह.....
किसका कौन-सा मुकाम है...
किसी को कुछ
पता भी तो नहीं....
कभी रास्ते खो जाते हैं...
और कभी तो...
मुकाम ही बदल जाते हैं....
बदलता ही जा रहा है सब कुछ....
वजह या बेवजह...
किसी को कुछ भी नहीं पता
और जो कुछ पता है हमें...
वो कितना सोद्देश्य है...
या कितना निरक्षेप....
और कितना निस्वार्थ...
ये भी भला कौन जानता है.....
मगर जो कुछ भी
घट रहा है हमारे आसपास
वो इतना कमज़र्फ़ है....
और इतना तंगदिल...
इतना तंग नज़र है....
और इतना आत्ममुग्ध...
किसी को वह...
जीने ही नहीं देना चाहता...
सिवाय अपने ...
या अपने कुछ लोगों के....!!
तो क्या एक झंडे....
एक धरम....
एक बोली में...
सिमट जाना चाहिए
हम सबको
हम सातों अरब को....??
यही आज मै सोच रहा हूँ......!!
29.11.08
हम क्या करें गाफिल.....??!!
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