आज अपने ब्लॉग पर चंद पंक्तियां मेरे दोस्त रवीश रंजन शुक्ला की कलम से। दिल्ली में रह कर पत्रकारिता कर रहे रवीश भी मेरी तरह एक छोटे शहर से हैं। रवीश की ख़ासियत ये है कि वे एक बेहद संवदेनशील इंसान हैं और अपने आस-पास होनेवाले तमाम वाकयों से खुद को अलग नहीं रख पाते। कुछ रोज़ पहले रवीश को एक वाकये ने बुरी तरह झकझोर कर रख दिया। उन्होंने मुझसे दिल की बात कही और मैंने ही उन्हें ये सब ब्लॉग पर लिखने का सुझाव दिया। बाकी जो भी है, आपके सामने है --अभी थोड़े दिन पहले मैं दीपावली में अपने घर गया था। घर जाते ही पुराने दोस्तों की याद आती है। इन्हीं में से एक मेरा दोस्त था राकेश साहू। दरम्याना कद, मुस्कुराता सांवला चेहरा, ब्लैक बेल्ट खिलाड़ी। जिंदगी में सफलता या असफलता से कोई लेना देना नहीं। हमेशा दूसरों के काम आना, साहित्य पढ़ना और रंगकर्म में वक्त निकालना। बीएसएसी भी झोंके में पास कर डाली थी। हाल के दिनों में संपर्क उससे कम हो गया था, क्योंकि मैं अपने काम से फ़ारिग नहीं हो पाता और वो अपनी मटरगश्ती से। राकेश साहू अजीब था। वैसा ही अजीब जैसे किसी कस्बाई शहर का आम लड़का होता है।जीवन में शायद उसने एक गलती की थी। शादी करने की। खैर, घर पहुंचने के दो दिन बाद एक दिन अचानक मेरे पास एक दोस्त महेंद्र का फोन आया। उससे पता चला कि राकेश साहू की हत्या हो गई। पुलिस ने आदतन बिना शिनाख्त किए उसकी लाश को जला डाला। मैं और महेंद्र हैरान। हमारी आंखों के सामने उसका चेहरा घूमा। हमने बहराईच की कोतवाली में जाकर खुद शिनाख्त करने का फैसला किया। कोतवाली की ओर जाते कई बार दिमाग ने कहा कि भगवान करे राकेश साहू की फोटो न हो। लेकिन मुंह में पान दबाए कोतवाल साहब ने बड़े नखरे दिखाकर फोटो दिखाया तो वो राकेश ही था। आंखें खुली, गर्दन पर गहरा ज़ख्म, हमारी सुधबुध थोड़े समय के लिए चली गई। थोड़ी देर बाद कोतवाल साहब को याद आई कि उनके सामने खड़े दो सज्जन में से एक पत्रकार है और दूसरा अधिकारी, तब कुर्सी मंगवाई, हमें बिठाया। और फिर शुरू की हत्या को दुर्घटना का जामा पहनाने की कहानी।दरअसल शादी के बाद राकेश की अनबन उससे ससुराल वालों से थी और राकेश की शादी का मामला कोर्ट में चल रहा था। उसने खुद भी कई बार हत्या हो जाने की आशंका जताई थी। पुलिस को भी ये बात मालूम थी, लेकिन बहराईच पुलिस ने ना तो लाश की अलग-अलग एंगेल से फोटो करवाई ना ही कोई सबूत इकट्ठा करने की कोशिश की। राकेश के शरीर पर से शर्ट गायब थी। पैरों के जूते और मोजे नदारद थे। जेब से पैसे और मोबाइल गायब थे। कुछ भी तो ढूंढने की कोशिश नहीं की। क़त्ल का मकसद मौजूद था। मौके-ए-वारदात और पास की दीवार पर छिटके खून से पहली नज़र में ही ये हत्या का मामला लग रहा था। लेकिन पुलिस का कहना था कि टैक्टर के हल से कटकर उसकी मौत हुई है।पुलिस का यह नाकारा रवैया देखकर हम हैरान थे। हम शाम को अखबार के दफ्तर पहुंचे। कुछ एक अखबारी दोस्तों के ज़रिए ख़बर छपवाने की कोशिश की लेकिन दो अखबारों को छोड़कर किसी को भी ये खबर नहीं लगी। सभी ने रोज़ाना मिलने वाले पुलिसवालों की दोस्ती का ख्याल रखा और कुछ भी पुलिस की जांच के खिलाफ न लिखकर वही लिखा जो पुलिस ने बताया। दूसरे दिन हमें फिर निराशा मिली लेकिन फिर भी हमने बहराईच के वयोवृद्ध साहित्यकार डा. लाल के ज़रिए कैंडल मार्च निकालने का मन बनाया और वहां के एसपी चंद्र प्रकाश से भी बात की। उन्होंने ज़रूर हमें भरोसा दिलाया कि यह मर्डर है और हम जांच कर रहे हैं, लेकिन घटना के २० दिन होने को हैं, अभी तक राकेश के हत्यारों का पता नहीं चला है। इसी बीच हमारे दोस्तों को अब आसपास के लोग ही समझा रहे हैं कि जाने वाला तो चला गया अब तुम क्यों दुश्मनी ले रहे हो?हम निराश इसलिए भी हैं कि एक प्यारे दोस्त को तो हमने खोया, लेकिन उसके लिए कुछ ही न कर पाने का मलाल ज्यादा है। छोटे शहर से लेकर बड़े शहर तक ना जाने कितने लो प्रोफाइल राकेश इसी तरह मर जाते हैं, लेकिन पुलिस की तफ्तीश कितना भरोसा पैदा करती है, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। ब्लॉग पर इस तरह का वाकया लिखने का मक़सद एक ही है कि अगर कोई इस तरह के मामलों में दिलचस्पी दिखाए और कुछ भी कर सके तो अच्छा है। साथ ही ये घटनाएं बताती है कि हम कितने लाचार हो जाते हैं। राकेश भले ही चला गया हो लेकिन हम ज़ुबानी जमाखर्च और रोज़ाना की पेशेवर कामकाज में इतने मसरुफ़ हैं कि हमसे कुछ होगा ऐसा नहीं लगता...
20.11.08
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1 comment:
भाई,
पुलिस,प्रशाशन,पत्रकार में सत्ता और पैसे के दलाल भरे हुए हैं. तकलीफदेह सिर्फ़ इतना की ये हमारे समाज के नम्बरदार हैं और हितैषी भी.
हिंदू मुस्लिम की बात करें तो बहसियाने वाले कुकुरमुत्ते की तरह उग आयेंगे जैसे की ये सारे लोग ही समाज के रखवाले हैं, साध्वी का विरोध हो या बाटला काण्ड का विरोध अपने आपको बुधीजिवी साबित करने की होड़ मगर जहाँ समाज का आइना आता है ये चूतियों की जमात सबसे पहले मुहँ छुपाते हैं.
जय जय भड़ास
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