बहुत दिनों से विवाह समारोहों में व्यस्तता के चलते कुछ लिख नहीं सका। या यों कहें, शादियों में कारगिल सा युद्ध लड़कर ही लुत्फ उठा रहा था। विवाह समारोह भी अब सामान्य नहीं रहे। रिश्तेदारों को बुलाने से लेकर उनको खिलाने तक में बहुत कुछ बदल गया है। एक देहाती शादी में जाने का अवसर मिला जहां पर पत्तल की दावत के लिये कुछ मिनट इंतजार के बाद ही नम्बर आ गया। जिसने शादी में बुलाया था वह हर दो-तीन मिनट बाद ही आकर पूछ जाता एक पूड़ी तो और ले लो। कोई आकर कहता अरे बिल्कुल अभी-अभी कढ़ाई से निकालकर लाया हूं। खाने में व्यंजन कम और प्यार ज्यादा नजर आया। उसके ठीक दूसरे दिन शहर के एक प्रतिष्ठित व्यवसायी के यहां जाने का सौभाग्य हुआ। दरवाजे पर ही मेजबान के दशर्न हुए फिर हम अंदर थे एक समुंदर की तरह लोग आते जा रहे थे। किसको क्या मिला क्या नहीं इस बात से किसी को मतलब नहीं। कौन भूखा गया यह देखने की फुर्सत किसी को नहीं। अधिकांश लोग तो दस-बारह कार्ड गाड़ी में रखकर लाये थे। हर जगह फेरी लगा-लगाकर ही पेट भर गया। लेकिन उन बेचारों का क्या जो सिर्फ एक ही शादी में पेट भरने की जुगाड़ से गये थे। खैर ये तो व्यवस्था का सवाल है। आजकल इन प्रतिष्ठित शादियों में जाने वाले ऐसे लोग ज्यादा होते हैं जिन्हें कई जगह जाना होता है। इस खाने-पीने के बीच एक कविता लिखने का मन कर आया। डरिये नहीं, कविता का खाने पीने से कोई मतलब नहीं है।
खंडहर
वो निर्जीव खंडहर
जो सहता है प्रकृति का हर बार
अपनी टूटी जर्जर दीवारों के सहारे
जिसके आगोश में दफन है
न जाने कितने युगों का इतिहास
जिसने सहा है
सैकड़ों दुशमनों का प्रहार।
पर यह निर्जीव खंडहर
जस का तस खड़ा रहा
हर युग में
समय का सबसे बड़ा राजदार
मौन हो देखता रहा
दिन- रात का बदलना
मानव का मानव से लड़ना।
यही निर्जीव खंडहरजैसे अट्ठाहस लगा रहा हो
हमारी मजबूरी पर
और कह रहा हो
कितना मूर्ख है मनुष्य
जो मेरी चाहत में ही मर मिटा।
कभी लगता घूरता मुझे
ये निर्जीव खंडहर।।
पंकज कुलश्रेष्ठ
26.11.08
खंडहर
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