समय की रेत पर
बनते-िबगड़ते हैं कई िरश्ते।
कुछ कहने से पहले ही
खामोश हो जाते हैं कई।
आिखर इन अधूरी कहािनयों का
उद्देश्य क्या होता है?
ये क्यों शुरू करती हैं जन्म लेना,
जब िजंदगी जीनी ही न हो?
एेसे अक्स आिखर उभरते ही क्यों हैं,
िजन्हें कोई सूरत ही नसीब न हो?
कुछ बात तो होगी,
आिखर क्या बात होगी?
धुंधले होते हुए गायब होती कहािनयों में
झलक होती है िजंदगी की।
ये झलक-ये ललक
ही तो िजंदगी है।
24.11.08
िरश्ते और जीवन
Labels: िरश्ते
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