सुनील मंथन शर्मा
ईश्वर है! इसे सदियों से ढूंढा जा रहा है। कोई पत्थरों में ढूंढ रहा है तो कोई मंदिरों में। कोई तस्वीरों में तो कोई तीर्था में, धामों में. भूखे-प्यासे, नंगे पांव, श्रद्धा-विश्वास के साथ, पागलों की तरह.
सीधे कहें, कलियुग में ईश्वर के लिए हाहाकार मचा है. किसी को "ईश्वर है' का भान हो रहा है तो कोई "ईश्वर है?' के भंवर में फंसा है. जिन्हें ईश्वर के होने का आभास है, वे उनकी सेवा, भक्ति में श्रद्धा के साथ लगे हुए हैं और ऐसे में जब उन्हें ईश्वर के "दर्शन' न हों तो उनसे शिकायत करना लाजिमी है. साप्ताहिक पत्रिका आउटलुक के संपादकीय विभाग से जुड़ी आकांक्षा पारे ने अपनी एक कविता में ईश्वर से दर्शन न देने की शिकायत की है। मोहल्ला डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम में अविनाश की ओर से आकांक्षा की पोस्ट की गयी ईश्वर से शिकायत पढ़िये-
ईश्वर!
सड़क बुहारते भीकू से बचते हुए
बिल्कुल पवित्र पहुंचती हूं तुम्हारे मंदिर में
ईश्वर!
जूठन साफ करती रामी के बेटे की
नजर न लगे इसलिए
आँचल से ढंक कर लाती हूं तुम्हारे लिए मोहनभोग की थाली
ईश्वर!
दो चोटियां गुंथे रानी आ कर मचले
उससे पहले
तुम्हारे शृंगार के लिए तोड़ लेती हूँ
बगिया में खिले सारे फूल
ईश्वर!
अभी परसों मैंने रखा था व्रत
तुम्हें खुश करने के लिए
बस दूध, फल, मेवे और मिठाई से मिटायी थी भूख
कितना मुश्किल है अन्न के बिना जीवन
तुम नहीं जानते
ईश्वर!
दरवाज़े पर दो रोटी की आस लिये आये व्यक्ति से पहले
तुम्हारे प्रतिनिधि समझे जाने वाले पंडितों को
खिलाया जी भर कर
चरण छू कर लिया आशीर्वाद
ईश्वर!
नन्हें नाती की ज़िद सुने बिना मैंने
तुम्हें अर्पण किये रितुफल
ईश्वर!
इतने बरसों से
तुम्हारी भक्ति, सेवा और श्रद्धा में लीन हूं
और
तुम हो कि कभी आते नहीं दर्शन देने!!!
आकांक्षा की यह शिकायत जब ब्लागरों ने पढ़ी तो उनके बीच विचार-विमर्श, प्रतिक्रिया का दौर चल पड़ा। मोहल्ला में ही विशाल श्रीवास्तव ने भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित एवं वरिष्ठ कवि स्वपनिल श्रीवास्तव की बीस साल पहले लिखी कविता "ईश्वर एक लाठी है' पेश कर दी।
ईश्वर एक लाठी है
जिसके सहारे अब तक
चल रहे हैं पिता
मैं जानता हूँ कहाँ-कहाँ दरक गई है
उनकी यह कमज़ोर लाठी
रात में जब सोते हैं पिता
लाठी के अन्दर चलते हैं घुन
वे उनकी नींद में पहुँच जाते हैं
लाठी पिता का तीसरा पैर है
उनहोंने नहीं बदली यह लाठी
उसे तेल-फुलेल लगाकर
किया है मजबूत
कोई विपत्ति आती है
वे दन से तान देते हैं लाठी
वे हमेशा यात्रा में ले जाते रहे उसे साथ
और बमक कर कहते हैं
क्या दुनिया में होगी किसी के पास
इतनी सुन्दर मज़बूत लाठी!
पिता अब तक नहीं जान पाए की
इश्वर किस कोठ की लाठी है।
अब एक कहानी पर नजर डालिए, जहां कथाकार ईश्वर को देखता है। कहानी साप्ताहिक पत्रिका इंडिया न्यूज के 8 अगस्त 2008 के अंक में छपी है, जिसका नाम है "ईश्वर' और इसके लेखक हैं अभिषेक कश्यप। अभिषेक नये कथाकारों में अग्रणी हस्ताक्षर कहे जाते हैं। कहानी दो दोस्तों के बीच पनपे स्नेह को लेकर है। सिल्वरीन और अभिषेक की मुलाकात गुवाहाटी में एक प्रशिक्षण शिविर में होती है। दोनों के बीच ईश्वर है या नहीं को लेकर लम्बी बहस होती है। सिल्वरीन ईश्वर पर आस्था रखती है और कहती है, "ईश्वर ने हम सभी को बनाया है, इसलिए हमें उसका और उसके प्यार का सम्मान करना चाहिए। ईश्वर हमें आशावादी बनाता है। वह हर जगह है, सब कुछ है।' जवाब में अभिषेक कहता है, "मैं जानता हूँ ईश्वर ने हमें बनाया है, लेकिन कभी-कभी मैं सोचता हूँ, ईश्वर है कि नहीं।' इसी तरह की नोंकझोंक दोनों में खूब होती है और डिनर के बाद सिल्वरीन अपने घर लौटने को होती है। कहानी का अंत इस तरह है-
"मैं कल लौटा रही हूँ', उसने इतनी धीमी आवाज में कहा, गोया प्रार्थना की पंक्तियां बुदबुदा रही हो। "कहां? आइजोल?'
"हां', उसने मेरी आंखों में झांकते हुए कहा- "अपना मोबाइल नंबर और ई-मेल आईडी दो।'
मैंने दे दिया।
"इफ यू विल फॉरगेट मी, आई विल किल यू।'
मैं कुछ नहीं बोला। चुपचाप उसका होना अपने भीतर महसूस करता रहा। और तभी मैंने ईश्वर को देखा। उसकी आंखों के पानी में ईश्वर था। मेरे माथे पर जहां अभी-अभी उसने अपने होंठ रखे थे, ईश्वर वहां बैठा मुस्कुरा रहा था. मैं सिल्वरीन को यह बताना चाहता था, मगर वह जा चुकी थी।
यह लेख प्रभात ख़बर में प्रकाशित हुआ है।
3.11.08
ईश्वर! कहाँ हो तुम
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1 comment:
ईश्वर तो है । अब आप उसे पहचान पाते हैं या नही
यह आप जानें ।
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