Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

10.1.09

लवलीन हुई अनंत में लीन


हिन्दी साहित्य की अद्भुत कथाकार लवलीन नहीं रहीं। 6 जनवरी की सुबह उन्होंने जयपुर के सवाई मान सिंह अस्पताल में अन्तिम साँस ली। लवलीन अभी पचास की भी नहीं हुई थी कि अपने दोस्तों में से अशोक शास्त्री, संजीव मिश्र, रघुनन्दन त्रिवेदी और कुमार अहस्कर जैसे दुनिया से जल्दी कूच कर जाने वाले मित्रों के बीच पहुँच गई। यह भी अजीब संयोग है कि संजीव मिश्र और रघुनन्दन त्रिवेदी की तरह लवलीन भी नया साल शुरू होते ही याने जनवरी में हमसे बिछुडी।हिन्दी साहित्य में लवलीन 'हंस' में 'चक्रवात' कहानी से चर्चित हुई। लेकिन इस से पहले वह राजस्थान में एक जागरूक और साहसी महिला पत्रकार के रूप में खासी चर्चित हो चुकी थी। जब प्रभाष जोशी रूपकंवर काण्ड में सतीसमर्थकों के साथ खड़े थे लवलीन राजस्थान जैसे सामंती प्रदेश में महिलाओं के अधिकारों के लिए एक यौद्धा पत्रकार की तरह लड़ रही थी। लवलीन के उस दौर की एक झलक आप उसकी किताब 'प्रेम के साथ पिटाई' में देख सकते हैं।लवलीन ज़िन्दगी में पता नही कितने स्तरों पर लड़ती रही? अवसाद की बिमारी ने उसका पूरा घर छीन लिया॥ दो भाई अवसाद में भरी जवानी में चले गए। और वो ख़ुद इस अवसाद से लड़ती हुई लिखकर ही जीती रही... वह कहती थी लिखना मेरे लिए जीने का दूसरा नाम है, नहीं लिखूंगी तो मर जाउंगी मैं...और उसने लिखा भी तो कितना सा? पहली किताब थी 'सलिल नागर कमीशन आया', जिस पर उसे पहला 'अंतरीप' सम्मान मिला, कहानियों की दूसरी किताब थी 'चक्रवात'। ज्ञानपीठ से आया उपन्यास 'स्वप्न ही रास्ता है', स्त्री विमर्श पर 'प्रेम के साथ पिटाई'। कहानियों की एक और किताब आने वाली है 'सुरंग पार की रौशनी'। एक उपन्यास उसने एक साल पहले पूरा कर लिया था लेकिन बीमारी की वज़ह से उसका आखिरी हिस्सा नहीं लिख पाई थी... आखिरी दिनों में वह अपनी आत्मकथा को उपन्यास का रूप दे रही थी। उसकी कविताओं की भी एक किताब आने वाली थी...लिखने और जीने की अद्भुत जिजीविषा वाली हमारी इस लाडली लेखिका की 'नया ज्ञानोदय' में जो डायरी छपी है, उस से उसकी रचनात्मकता का अनुमान लगाया जा सकता है।लेकिन अफ़सोस हिन्दी के सबसे बड़े कहे जाने वाले अखबार यानी 'दैनिक भास्कर' ने इस प्रतिभाशाली साहित्यकार-पत्रकार की मृत्यु की ख़बर को छापने लायक भी नहीं समझा। जो अखबार लेखकों से मुफ्त में 'विमर्श' करवाता है, उसे कम से कम किसी लेखक की मृत्यु को तो ख़बर समझना चाहिए... पी.टी.आई.ने दिन के दो बजे ख़बर जारी कर दी, दूरदर्शन, ई.टी.वी.ने ख़बर चला दी, लेकिन जयपुर में बैठे भास्कर के करता-धर्ताओं को प्रेस विज्ञप्ति भेजने के बावजूद लवलीन की मौत का कोई ग़म नहीं हुआ... भास्कर के नक्कारखाने में लवलीन जैसी लेखिका की मृत्यु की आवाज़ का भले ही कोई महत्त्व ना हो, लवलीन के दोस्त-पाठक उसे हमेशा याद करेंगे... तभी तो उसकी मृत्यु के तीसरे दिन उसकी श्रधांजलि सभा में सैकड़ों लोग आए, उन में हिन्दी के साहित्यकार, चित्रकार, पत्रकार ही नही सामाजिक कार्यकर्ता और संस्कृतिकर्मी भी शामिल थे। और यह श्रद्धांजलि सभा भी लवलीन के दोस्तों ने ही की...लवलीन की स्मृति को शत-शत नमन..

3 comments:

यशवंत सिंह yashwant singh said...

मैंने हंस में लवलीन जी की कई कहानियां पढ़ी हैं। वे दमदार और महान लेखिका थीं। उनके निधन पर वाकई हिंदी साहित्य को एक बड़ा झटका लगा है।

पढ़कर बहुत अफसोस हुआ कि दैनिक भास्कर जैसे बड़े मीडिया घराने ने हिंदी की इस महान लेखिका की उपेक्षा की। मीडिया का कारपोरेटाइजेशन का यह खतरनाक उदाहरण है। ऐसे में ब्लाग और वेब जैसे नए मीडिया माध्यम ही इन कारपोरेट मीडिया हाउसों को सबक सिखा सकते हैं।

प्रेमचंद गांधी जी, आपका दिल से आभार जो आपने ये बेहद जरूरी दो पोस्टें यहां भड़ासियों के लिए पोस्ट कीं।

यशवंत

गौरव मिश्रा (वाराणसी) said...

SAD NEWS...........SO SAD

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

आपने लवलीन को बहुत उम्दा तरह से याद किया है. जहां तक भास्कर की बात है, उसकी पत्रकारिता एक खास सांचे में ढलती जा रही है. उसका सारा ज़ोर इस बात पर रहता है कि कैसे किसी मुद्दे से अधिक से अधिक लाभ उठाया जाए. पहले मुद्दा खड़ा करना, और फिर उस पर बहसियाना - उसने अपनी यह रिवायत बना ली है. ऐसे में, कोई लेखक-कवि-साहित्यकार मरे, उसे क्या लेना-देना? उसकी मौत की खबर छपने से उसे क्या फायदा?