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17.3.09

लोकतंत्र के उत्सव में चुनाव आयोग का मर्सिया

-आवेश

विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली लोकतंत्र में नयी सरकार का गठन होने को है ,एक बार फिर चुनावी महाभारत में जनता को अपने मताधिकार के अस्त्रों का प्रयोग करना है लोकसभा चुनाव के प्रथम चरण के मतदान में अब जबकि मात्र ३० दिन रह गए हैं फिर भी पूरे देश में चुनाव का माहौल कहीं नजर नहीं रहा है ,अलबत्ता समूचे देश में विकास और कल्याण की योजनाओं पर पाबंदी जरुर लग गयी है ,आचार संहिता लागू होने से प्रत्याशियों और पार्टियों का वास्तविक खर्च कम हुआ है या नहीं हुआ है ये तो अलग विषय है लेकिन जनता के लिए मुश्किलों का एक और दौर शुरू हो गया है आलम ये है की लोकतंत्र का उत्सव चुनाव आयोग की नीतियों की वजह से आम हिन्दुस्तानियों का मर्सिया बना गया है चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था होते हुए भी नौकरशाहों द्वारा ही संचालित होती है .भारत में नौकरशाही हर मामले में दमनकारी और दंडात्मक प्रक्रिया अपनाती है चुनावों के मामले में भी यही हो रहा है ये क्या कम शर्मनाक है कि आयोग के लम्बे चौडे दावे के बावजूद देश की आधी आबादी अपने मताधिकार का ही प्रयोग नहीं कर पाती ,मगर आयोग शर्म से अपना मुँह पीटने के बजे लोकतंत्र का मसीहा बन जाता है |
अभी
पिछले महीने में उत्तर प्रदेश के भदोही जनपद में उपचुनाव की कवरेज कर रहा था ,उस दौरान पूरे विधान सभा क्षेत्र में पेयजल की समस्या काफी चर्चा में थी वहां फ़रवरी माह के प्रारंभ में ही आचार संहिता लागू कर दी गयी ,सूखे हुए और टूटे हुए हैण्ड पम्पों की मरम्मत का काम पुलिस ने रोक दिया ,जल निगम के वाहनों को मरम्मत के सामान सहित थाने में खडा कर दिया गया ,इसके बाद लोकसभा चुनाव की आचार संहिता लागू हो गयी ,इस इलाके में दो माह तक हैण्ड पम्प सूखे रहेंगे ,और लोग बूँद बूँद को तरसेंगे ये तो केवल एक बानगी है समूचे देश में बुनियादी जरूरतों को लेकर हाहाकार की स्थिति है ,अगले तीन महीनो तक देश के नौकरशाह सीने पर मूंग दलेंगे और ये हालात बने रहेंगे अब आप ही बताइए की क्या हैण्ड पम्पों की मरम्मत से भी आचार संहिता का उल्लंघन होता है ?क्या दूर दराज के गांवों में डाक्टर्स के जाने से आचार संहिता का उल्लंघन होता है ?
चुनाव
प्रचार के प्रमुख उपकरण हैं झंडे ,पोस्टर ,बैनर ,पर्चे , ध्वनि विस्तारक यन्त्र आदि ,हम सब पर पाबंदी है ,यदि हम किसी पार्टी के समर्थक है तो हमें अपने घर पर झंडा लगाने से क्यों रोका जाना चाहिए ?पूरे विश्व में चुनाव प्रचार के दौरान झंडों का प्रयोग किया जाता है ,सार्वजानिक जगहों पर पूरे पांच साल तक होर्डिंग्स लगते हैं ,अभी चुनावों की घोषणा से ठीक पहले पूरे लखनऊ शहर में केवल मायावती और अखिलेशदास ही नजर रहे थे ,वहीँ दिल्ली शीला दिक्षित और सोनिया गाँधी के बैनरों से पटी पड़ी थी ऐसे में चुनाव के दौरान सशुल्क होर्डिंग्स क्यूँ नहीं लगाये जाने की इजाजत दी जाती दरअसल झंडे पोस्टरों के बिना चुनाव का माहौल नहीं बन पाता, तो छोटी मोटी सभाएँ हो पाती हैं और तो प्रचार जोर पकड़ता है ,चुनाव आयोग एक तरह का मार्शल ला लगाकर मतदाताओं से अधिकतम वोट प्रतिशत की उम्मीद करता है ,ये कैसे संभव है ?
सच
तो ये है की देश के एक चौथाई मतदाता सूचियों की खामी के कारण वोट नहीं डाल पाते अब तक एक पूरी आबादी को पहचानपत्र नहीं मिला ,इसको लेकर कोई इमानदार कवायद कभी नजर नहीं आई दरअसल चुनाव प्रचार का जो खर्च अभी तक कार्यकर्ताओं तथा अन्य लघु व्यापारियों तक पहुँचता था वह अब वोट के ठेकेदारों को मिल जाता है ,जाति और सम्प्रदाय के दावेदारों तथा दलालों का कोई नुक्सान नहीं होता,टीवी चैनलों पर अरबों के विज्ञापन रहे हैं किन्तु गांवो शहरों में सन्नाटा है , लोकतंत्र के उत्सव का यह उदास चेहरा जन-संवाद को भी नीरस बना देता हैचुनावों को स्वच्छ और निष्पक्ष बनाये रखने के लिए तो विकास कार्य रोकने की जरुरत है तो बैनर,पोस्टर सभा पर पाबंदी लगाना आवश्यक है ,जनसंपर्क और जन संवाद का खुला माहौल बनाना भी आयोग का कर्त्तव्य है|

2 comments:

Abha Khetarpal said...

bahut achha laga padhna...

Raat aur Din said...

kya baat hai awesh bhai, kya khoob kahi apne