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9.5.09

वादा तेरा वादा

- नरेश मिश्र

साधो, कोटेदारों और कालाबाजारियों के लिए एक खुशखबरी, जल्दी ही उन्हें तीन रूपये किलो गेहूँ और चावल खरीद कर ग्राहकों से उसका मनमानी दाम वसूलने का मौका मिलेगा । कांग्रेस का मैनीफेस्टो कालाबाजारियों की उम्मीद बढाने वाला है । उन्हें मालामाल होने का मौका जरूर मिलेगा ।

कांग्रेस ने वादा किया है कि वह चुनाव जीतने के बाद देश के जरूरतमंदों को तीन रूपये किलो गेंहू और तीन रूपये किलो चावल मुहैया करायेगी । यह गेहूँ और चावल कहां से आयेगा? कांग्रेस के पास तो गेहूं, धान बोने काबिल जमीन है नहीं । देश के खेतों में जो गेहूं, चावल पैदा होता है, उसे खरीदने के लिए सरकार को वाजिब कीमत देने में दुश्वारी महसूस होती है ।

मुल्क में इन दिनों सड़कें और कारखाने बड़े पैमाने पर बन रहे हैं । सड़कों और कारखानों को खाया नहीं जा सकता । अपने प्रदेश में ही गंगा एक्सप्रेस वे बन रहा है । इस सड़क पर बसपा की गाड़ी हाई स्पीड से दौड़ेगी । आम पब्लिक को कोई खास फायदा नहीं होगा । गाजियाबाद से बलिया को जोड़ने के लिए सड़क आज भी मौजूद है । लेकिन इस सड़क के निमार्ण में जिन पार्टियों को मोटी कमाई हुई है, उसमे बसपा शामिल नहीं है । बसपा को अपनी कमाई सुनिश्चित करने का जरिया चाहिए । केरल से कश्मीर और असम से गुजरात तक पार्टी प्रत्याशियों को चुनाव लड़ाने में काफी पैसा खर्च होता है । सड़क नहीं बनेगी तो पैसा कहां से आयेगा । पैसा नहीं आयेगा तो चुनाव के रास्ते मुल्क पर कब्जा कैसे किया जायेगा ।

साधो, ये पब्लिक है, सब जानती है । बदलाव की बात कौन करेगा । सिर्फ चंद बूढे नेता और रिटायर्ड आला नौकरशाह अंत समय में किताब लिख कर लोकतंत्र की बखिया उधेड़ते हैं । लेकिन वे किताबों में इस बात का जिक्र भूल कर भी नहीं करते कि जब उनके हाथ में सत्ता थी, तब उन्होंने बगावत का बिगुल क्यों नहीं फूंका ।

कबीरदास ने ठीक ही कहा है - ''करता था सो क्यों किया अब करि क्यों पछताय, बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से खाय ।'' अपने लोकतंत्र में बबूल बोने की परम्परा बेरोकटोक चल रही है और जनता को आम खिलाने का वादा भी कायम है । मराठा छत्रप शरद पवार विदेशों से गेहूं, चावल खरीद कर लायेंगे और चुनावी वादा पूरा करेंगे ।

अर्थशास्त्रियों को यकीन है कि अगर केन्द्र सरकार सचमुच अपने वायदे के मुताबिक चुनाव जीतने पर सस्ता गेहूं और चावल जनता को मुहैया करायेगी तो खजाना खाली हो जायेगा । इस खजाने को लबालब भरने का नुस्खा भी उद्योगपतियों ने सरकार को सुझाया है । नासिक के प्रेस में करारे नोट छापें और बाजार में जारी कर दें । यह सौ दुखों का एक रामबाण इलाज है । सरकार अपने लोगों के लिए नोट नहीं छापेगी तो भी पाकिस्तान हमारे लिए नोट छापने से बाज नहीं आयेगा । पाकिस्तान में छपे नोट अपने मुल्क के बाजारों में धड़ल्ले से चल रहे हैं । इन नोटों ने बैंक के खजानों में भी अच्छी घुसपैठ बना ली है । यही हाल रहा तो पाकिस्तान में छपे नोट चलन में आ जायेंगे और अपने रिजर्व बैंक के गवर्नर साहब के दस्तखत वाले नोट बाजार से बाहर हो जायेंगे ।

मुल्क की इस हालत पर पर खुद देशवासियों को शर्म महसूस नहीं होती है । हम खुद शर्मिंदा नहीं है तो गैर मुल्कों को क्या पड़ी है कि वे हमारे लिए शर्मिंदा हों । हम तो ऑस्कर पा कर निहाल हैं, नेता वोट पाकर मालामाल हैं, नौकरशाह घूस खाकर संतुष्टि की डकार ले रहा है । सिर्फ इस मुल्क का आम आदमी बदहाल है । इस बदहाली पर टेसुए बहाने की जरूरत कतई नहीं है । हम तो 'जय हो' की धुन पर थिरकने से ही निहाल हो जाते हैं । मुल्क का क्या है, वह तो मनमोहन के मजबूत हाथों में महफूज है ।

=> 'जय हो'

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