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8.5.09

Loksangharsha: बुज का पत्थर पिघलने लगे


हम जो नजरो में सजने लगे
बेवजह लोग जलने लगे

पुश्त के जख्म रिसने लगे
दोस्ती हम समझने लगे

ये प्रजातंत्र क्या तंत्र है-
खोटे सिक्के भी चलने लगे

सच इतना संवारो नही -
आइना भी मचलने लगे

आह में वो कशिश लाइए-
बुज का पत्थर पिघलने लगे

जबसे वो प्यार करने लगे -
हम मोहब्बत से डरने लगे

डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

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