एक समय था जब भारतीय समाज को उसकी सभ्यता और मधुभाषिता के लिए जाना जाता था। समाज में कोई किसी के लिए अपशब्दों का प्रयोग नहीं करता था और अगर कोई बोल भी दे तो उसे समाज में बुरा माना जाता था। धीरे-धीरे समय बदला लेकिन गालियों को सामाजिक रूप से कभी स्वीकारा नहीं गया। लेकिन आज के समाज को ना जाने क्या हो गया है? गालियों को धीरे-धीरे सामाजिक रूप से स्वीकारा जा रहा है। खासकर महानगरों में गालियां देना एक आम बात हो गई है और यह स्टेटस सिंबल बनतीं जा रहीं हैं, जो गाली नहीं देता वो गांवों का समझा जाता है। स्कूलों के बच्चों को ही देखा जाए जो प्राथमिक विद्यालय में पढ़ते हैं, आपको गालियां देते नजर आ जाएंगे और अगर आप उन्हें टोकेंगे तो आप पर भी गलियों की बौछार शुरू हो जाएगी। आजकल बातचीत में प्रभाव भी गालियों से ही पड़ता हैं। इसे क्या कहा जाए? क्या हमारा समाज मानसिक रूप से दिवालिया होता चला जा रहा है?
लड़के तो छोड़िए लड़कियां भी गालियां देने में पीछे नहीं हैं। आजकल के युवा गालियां देने के बाद शर्मिंदगी के बजाय अपने आप को बड़ा गर्वान्वित महसूस करते हैं। ये लोग आते तो यहां पढ़ने के लिए हैं और शायद ये जहां से आते हैं वहां भी गालियां सामाजिक रूप से स्वीकार नहीं हैं। फिर भी यहां आकर गालियां देते हैं। कारण पूछा जाए तो इनके अपने तर्क हैं। कोर्इ्र कहता है कि ये सब तो चलता है…, अरे गालियां तो सभी देते हैं…, दिक्कत क्या है…? यह तो फैशन है, भाई। ऐसे जबावों को सुनकर बड़ा अजीब लगता है। आज का युवा कहीं भी गाली देने से नहीं हिचकिचाता, चाहे वो स्कूल-कॉलेज हों या कोई भी सार्वजनिक स्थल।
गालियों को फैशन बनाने के लिए आखिर जिम्मेदार कौन है – आप, हम या हमारा समाज? शायद हमें हर बात को हल्के में लेने की आदत हो गई है। चलो कोई बात नहीं…, हम क्या करें…, बिगड़ैल है…, हमें तो नहीं दे रहा…आदि कहकर बात टाल देते हैं। कभी हम किसी को टोकते नहीं हैं। यहां तक कि महिलाओं और बच्चों के सामने गाली देने वाले को भी नहीं टोका जाता।
अभी ये हाल है तो हम आने वाली पीढ़ियों से क्या उम्मीद कर सकते हैं। कहीं गालियों का चलन न हो जाए इसके लिए मिलकर प्रयास करना होगा ताकि गालियों को सामाजिक मान्यता न मिल पाए और गाली देने वालों को भी समझाना होगा कि ये फैशन नहीं मानसिक दिवालियापन है। बाकी आप के ऊपर है कि आप क्या समझते हैं-गालियां या फैशन?
-हिमांशु डबराल
लड़के तो छोड़िए लड़कियां भी गालियां देने में पीछे नहीं हैं। आजकल के युवा गालियां देने के बाद शर्मिंदगी के बजाय अपने आप को बड़ा गर्वान्वित महसूस करते हैं। ये लोग आते तो यहां पढ़ने के लिए हैं और शायद ये जहां से आते हैं वहां भी गालियां सामाजिक रूप से स्वीकार नहीं हैं। फिर भी यहां आकर गालियां देते हैं। कारण पूछा जाए तो इनके अपने तर्क हैं। कोर्इ्र कहता है कि ये सब तो चलता है…, अरे गालियां तो सभी देते हैं…, दिक्कत क्या है…? यह तो फैशन है, भाई। ऐसे जबावों को सुनकर बड़ा अजीब लगता है। आज का युवा कहीं भी गाली देने से नहीं हिचकिचाता, चाहे वो स्कूल-कॉलेज हों या कोई भी सार्वजनिक स्थल।
गालियों को फैशन बनाने के लिए आखिर जिम्मेदार कौन है – आप, हम या हमारा समाज? शायद हमें हर बात को हल्के में लेने की आदत हो गई है। चलो कोई बात नहीं…, हम क्या करें…, बिगड़ैल है…, हमें तो नहीं दे रहा…आदि कहकर बात टाल देते हैं। कभी हम किसी को टोकते नहीं हैं। यहां तक कि महिलाओं और बच्चों के सामने गाली देने वाले को भी नहीं टोका जाता।
अभी ये हाल है तो हम आने वाली पीढ़ियों से क्या उम्मीद कर सकते हैं। कहीं गालियों का चलन न हो जाए इसके लिए मिलकर प्रयास करना होगा ताकि गालियों को सामाजिक मान्यता न मिल पाए और गाली देने वालों को भी समझाना होगा कि ये फैशन नहीं मानसिक दिवालियापन है। बाकी आप के ऊपर है कि आप क्या समझते हैं-गालियां या फैशन?
-हिमांशु डबराल
www.bebakbol.blogspot.com
2 comments:
bahut hi sunder
shub kamnay
sanjay bhaskar
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
bahut hi sunder
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