उड़नतश्तरी का पर घूम कर आया तो पता चला कि उन्हें अपनी रचना के लिए एक अदद शीर्षक की जरूरत है। पढ़ कर अजीब लगा कि समीर जैसी शख्सियत को एक अदना सा शीर्षक नहीं मिल रहा है क्या विडंबना है कहीं जहां खूबसूरत बदन है तो वहां घाघरा नहीं और जहां घाघरा है वहां बदन ही नहीं। जो भी हो अपनी पे आते हैं। मेरा मामला समीर लाल जी से कुछ अलग है। उनके पास शीर्षक नहीं है तो मेरे पास रचना ही नहीं है। अब आप सलाह देंगे कि रचना और शीर्षक का आदान प्रदान कर लो। पर मित्रों यह भी संभव नहीं है। उनकी रचना अगर मेरे शीर्षक से मैच न कर पाई तो मेरी तो भद ही पिट जाएगी न इस संभ्रात जगत में (वैसे यह भी एक फंडा है कि अपनी चीज का दाम हमेशा दूसरे से ऊंचा ) । वैसे बता दूं कि यह शीर्षक कई साल से मेरे जेहन को दुख पहुंचा रहा है। दुख क्या दे रहा है कचोट रहा है। मुझसे लड़ रहा है। मुझे ताने दे रहा है। रातों को सोने नहीं देता और दिन में कुछ काम करने नहीं देता। मजेदार बात यह है कि शीर्षक मुझसे बातें करता है कि रचनाएं कैसी हों। कम्बख्त को बीस तीस रचनाएं सुना चुका हूं पर उसे पसंद ही नहीं आतीं। इसमें हीरोइन सैक्सी नहीं है। तो उसमें हीरो आम सा नहीं लगता। मन करता है कि उसे कह दूं कि तू आम खा पेड़ मत गिन। पर क्या करुं अपने जने को कोई कुछ कह भी नहीं सकता। डरता हूं आत्महत्या कर ले तो मै तो शीर्षक हंता कहलाने लगूंगा न। आपकों क्या पता कि शीर्षक कितनी मुश्किल से मिलता है... (समीर जी से पूछो जो आपसे पूछ रहे हैं।) शीर्षक मेरे पास है पर रचना नहीं इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है मित्रों। मेरे शीर्षक के लिए कोई कहानी हो तो आप मुझे जरूर लिखना... पर स्मरण रहे आपकी कहानी मेरे शीषर्क को पसंद आनी आवश्यक है। ऐसी कहानियां जिन्हें मेरा शीर्षक स्वीकार नही करेगा उन्हें वापस भेजना मेरे लिए दुष्कर होगा...इसलिए लिखी और भूल जाओ समझो।
कहानी लिखने से पहले कुछ शेरों पर नजर दौड़ा लें और मजा लें।
जिनमें डूब गए थे हम वही मंझधार
गया तूफान तो देखा वो किनारे निकले।।
जिनपे उम्मीद थी ले जाएगें नदी पार हमें,
मगर जब निकले तो वे मेरे सहारे निकले।।
जिनके इश्क के चर्चे सुने थे घर-घर में,
मिले हमसे तो या खुदा वो कुंवारे निकले।।
हमें तो खौफ था गैरों पे डर झूठा निकला,
कि हमें मारा जिन्होंने वो हमारे निकले।।
28.8.10
इधर भी प्रोब्लम है भाई
Labels: गुस्ताफी माफ़ समीर जी
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