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5.9.10

रेल के एक ही डिब्बे में बैठे हैं माओवादी और मनमोहनसिंह

                          कार्ल मार्क्स का प्रसिद्ध कथन है कि  ‘ इस दुनिया में पूंजी का प्रत्येक अंश सिर से पैर तक खून और धूल से सना है।’ खून और धूल के रूपक के बहाने मार्क्स ने सामाजिक संबंधों की ओर ध्यान खींचा है। पूंजीवाद अपने शोषण को बनाए रखने के लिए सामाजिक संबंधों और सामाजिक समूहों को विस्थापित करता है। उल्लेखनीय विभिन्न देशों में पूंजीपतिवर्ग ने विभिन्न धातुओं और कच्चे मालों का खानों से उत्खनन करके लाखों-करोड़ों लोगों को विस्थापित किया है।
     पूंजीपतिवर्ग ने भारत से लेकर अफ्रीका तक अपनी लूट का अभियान जारी रखा। आधुनिककाल के आने के साथ साम्राज्यवाद का उदय हुआ। यूरोप के राष्ट्रों ने सारी दुनियाभर के सुदूरवर्ती देशों में अपने शासन और संपदा के शोषणतंत्र को स्थापित किया। भारत में इस क्रम में ही ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन स्थापित हुआ। औपनिवेशिक सभ्यता और यूरोपीय बस्तियों का विस्तार हुआ।
      उपनिवेश बनाने और कच्चे मालों का दोहन करने के लिए बड़ी संख्या में किसानों को विस्थापित किया गया। यह कहानी अमेरिका,एशिया,अफ्रीका,लैटिन अमेरिका,वेस्टइंडीज आदि में एक ही तरीके से दोहराई गयी। आज भी पूंजीपतिवर्ग की नजर पृथ्वी के कच्चे मालों को पूंजी में तब्दील करने पर लगी हुई है। ज्यादा से ज्यादा संपदा संचय करने की अपनी प्रवृत्ति के कारण पूंजीपतिवर्ग ने समाज के अन्य वर्गों को हाशिए पर पहुँचा दिया है। संचय करने की यह मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति है। यही वह बुनियादी परिप्रेक्ष्य है जहां से हमें पूंजीवादी हिंसा और माओवादी हिसा को देखना चाहिए।
    मीडिया और आम विमर्श में माओवादी हिंसा की जब भी चर्चा होती है तो उसके पीछे निहित पूंजीवादी संचय,दोहन,शोषण और विस्थापन को हटाकर चर्चा की जाती है। मसलन् प्रतिवादी आदिवासियों ने पुलिसवालों को जान से मारा। रेल में आग लगाई वगैरह-वगैरह। जाहिरा तौर पर किसी भी व्यक्ति से जब यह सवाल किया जाएगा कि प्रतिवादियों का आग लगाना सही था या गलत,तो प्रत्येक व्यक्ति यही कहेगा गलत।  
       मीडिया बड़ी चालाकी से आदिवासियों के विस्थापन और खानों के उत्खनन के कारण पैदा हो रही समस्याओं को छिपा लेता है। आदिवासियों के प्रतिवाद का खान उत्खनन और तदजनित विस्थापन के साथ संबंध है ,इस तथ्य को छिपा लेता है। यहीं पर मीडिया पूंजीपतिवर्ग की वैचारिक-सामाजिक सेवा करता है। हिंसा के लिए पूंजीपति और राज्य नहीं आदिवासी जिम्मेदार हैं ,इसका प्रचार करता है।
       समस्या यह है कि खानों का उत्खनन किया जाए या नहीं ? एक ही उत्तर होगा किया जाए। खानों का उत्खनन जब होगा तो विस्थापन से कैसे निपटा जाए। सामाजिक तौर पर वैकल्पिक व्यवस्था किए वगैर किया गया विस्थापन श्रृंखलाबद्ध हिंसा को जन्म देता है। खानों के उत्खनन से पैदा हुई हिंसा और उसके परिणाम शहरों को भी स्पर्श करते हैं। गांवों से शहरों की ओर हुआ विस्थापन और स्थानान्तरण विश्वव्यापी फिनोमिना है। यह पूंजीवादी व्यवस्था की हिंसा है। तेल,प्राकृतिक गैस, .यूरेनियम,विभिन्न किस्म की धातुओं के उत्खनन के कारण समाज में व्यापक स्तर पर अस्थिरता पैदा हो रही है। इस अस्थिरता के शिकार गरीब लोग हो रहे हैं।
    भारत सरकार ने हाल में माओवादियों की हिंसा से प्रभावित इलाकों में हजारों पुलिस और अर्द्ध सैन्यबलों को तैनात किया है,तथाकथित तौर पर माओवाद पभावित इलाकों में विकास के नाम पर कई हजार करोड़ रूपये खर्च करने की योजना बनायी है। माओवादियों को आम जनता से अलग-थलग करने के लिए मीडिया को लामबंद किया जा रहा है। इस सबसे लगता है कि माओवाद सबसे बड़ा खतरा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बार-बार कह रहे हैं कि माओवाद सबसे बड़ा खतरा है। मीडिया इस उक्ति को दिशा निर्देश मानकर माओवाद पर हमला करता चला जा रहा है।
      इस प्रसंग में सबसे पहली बात यह कि मैं माओवादियों के हिंसाचार के खिलाफ हूँ। हिंसा को किसी भी तर्क के आधार पर वैध नहीं बनाया जा सकता। हिंसा स्वभावतः अवैध है। हिंसा के तर्क असामाजिक और अवर्गीय हैं। हमें हिंसा पर बात करते समय दो स्तरों पर सोचना होगा। पहला दीर्घकालिक स्तर है और दूसरा अल्पकालिक स्तर है।
   प्रधानमंत्री स्वयं अर्थशास्त्री हैं और अच्छी तरह जानते हैं कि आखिरकार हिंसा की जड़ में माओवादी नहीं हैं बल्कि खानें हैं। खानों का पूंजीपतिय़ों के लिए दोहन किया जा रहा है। इस दोहन से ध्यान हटाने के लिए वे माओवाद का हौव्वा खड़ा कर रहे हैं। माओवाद का हल्ला उनकी ध्यान हटाने की टेकनीक का हिस्सा है।
    दूसरी मबत्वपूर्ण बात यह कि माओवादी हिंसा वगैर केन्द्र के हस्तक्षेप के,पुलिस ऑपरेशन के बिना तत्काल बंद हो सकती है बशर्ते खानों का उत्खनन तत्काल बंद कर दिया जाए। खानों के उत्खनन को जारी रखने के कारण हिंसा हो रही है। माओवाद या आदिवासियों के कारण हिंसा नहीं हो रही।
   आदिवासियों को खानों को देशी-विदेशी कंपनियों को बेचते समय विस्थापन और पुनर्वास के काम को प्राथमिकता में सबसे नीचे रखा गया है। वरना यह कैसे हो सकता है कि आदिवासी इलाकों में 60 सालों की आजादी के बाद भी बिजली,पानी,रोजगार,शिक्षा, स्वास्थ्य आदि की न्यूनतम सुविधाएं तक नहीं पहुँची हैं। अगर खानों के इलाकों में वैकल्पिक संरचनाओं का समय रहते निर्माण कर दिया गया होता तो आज माओवादी हिंसा का हौव्वा खड़ा करने की जरूरत ही महसूस नहीं होती। विभिन्न किस्म के विस्थापनों के कारण 4 करोड़ से ज्यादा लोग आदिवासी इलाकों से पिछले 60 सालों में विस्थापित हुए हैं। इनका पुनर्वास करने में सरकार अभी तक कामयाब नहीं हुई है।
        माओवादी हिंसा के पक्ष में हो सकता जेनुइन तर्क हों,लेकिन माओवादी हिंसा अंततःबड़ी पूंजी की सेवा कर रही है। मसलन माओवादी हिंसाचार से आदिवासियों के इलाकों के विकास का प्रश्न केन्द्रीय सवाल नहीं बन पाया है बल्कि माओवादियों से इलाके को मुक्त कराने का लक्ष्य प्रमुख हो गया है।
     अब इन इलाकों में शांति नहीं है। जाहिरा तौर पर सवाल किया जाएगा कि आपको शांति चाहिए या स्कूल, तो एक ही जबाब होगा शांति चाहिए। शांति स्थापित करने के सरकारी अभियान के पीछे इस तरह साधारण जनता को गोलबंद किया जा रहा है और जनता की संपदा के शोषण,खानों के शोषण को छिपाया जा रहा है। यही वह बिंदु है जहां से प्रच्छन्नतःमाओवादी संगठन कारपोरेट घरानों की सेवा करने लगते हैं।
      पुलिस ऑपरेशन के नाम पर पूंजीपतिवर्ग को खानों के इलाकों और उनसे आने-जाने वाले मार्गों पर पूरी सुरक्षा मिल जाती है। सरकार के लिए सीधे पूंजीपतिवर्ग के लिए लूट के लिए सुरक्षा देने में असुविधा होती है क्योंकि लोकतंत्र में जनता की नजरों में गिर जाने का खतरा रहता है और जनता की नजरों में गिरने से बचने का मार्ग है माओवादी हिंसा का अहर्निश प्रचार और मदद।
   माओवादी अच्छी तरह जानते हैं कि उनके हिंसाचार से खानों का उत्खनन और आदिवासियों का विस्थापन बंद होने वाला नहीं है। वे यह भी जानते हैं कि उनकी प्रतिवादी कार्रवाई का पूंजीपतिवर्ग को लाभ मिलेगा। खानों के इलाकों में पूंजीपतिवर्ग और उनके गुर्गों की तूती बोलने लगेगी। माओवादी हिंसा इसी अर्थ में कारपोरेट घरानों की सेवा करती है।
     कारपोरेट घरानों के साथ माओवादियों का याराना है,उन्हें खानों के मालिकों से चौथ मिलती है,मंथली पैसा मिलता है, माओवादी हिंसा के कारण बाजार बंद रहते हैं,ट्रेन बंद रहती हैं,सरकारी ऑफिस बंद रहते हैं लेकिन खानों का उत्पादन बंद नहीं होता। झारखंड की प्रत्येक खान से माओवादियों को 10-25 प्रतिशत तक कमीशन मिलता है। यह बात स्वयं सीबीआई के छापों में मधुकौड़ा के यहां मिले दस्तावेजों से सामने आई है। अकेला मधुकौड़ा की खानों से सालाना 125 करोड़ रूपयों चौथ माओवादियों को मिलती है।  ऐसे ही छापे यदि अन्य खानों के मालिकों के यहां भी ड़ाले जाएं तो माओवादियों और खान मालिकों के बीच का अन्तस्संबंध आसानी से उजागर हो जाएगा। कहने का तात्पर्य यह है कि माओवादियों और मनमोहन सिंह का साझा लक्ष्य एक है कि किस तरह खान मालिकों की कैसे मदद की जाए। दोनों बंदूक की नली के सहारे खान मालिकों की सेवा कर रहे हैं। माओवाद के उन्मूलन के नाम पर सरकारी स्वांग चल रहा है उसके लक्ष्य है खानों के अबाध शोषण को जारी रखना और आदिवासियों को विस्थापित और पिछड़ा रखना।                  
             

1 comment:

Anonymous said...

क्यों सरदारजी के पीछे पड़े हो? वह तो बेचारा पुतला है जो रिमोट से चलता है.

बेचारे की डोर तो आईएम्एफ के पूंजीपतियों की लोबी के हाथ है.