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1.9.10

क्या बाघों के राबिनहुड बने जयराम रमेश मानवमात्र के हितो की ओर भी देखेंगें?: रामगोपाल

वर्तमान में भारत में वन और वन्य प्राणियों की रक्षा में सामने आये एक आधुनिक राविनहुड याने जय राम रमेश पूरे देश में उस पुराने राविनहुड की तरह ही हर कहीं से प्रशंसा पाते हुये दिखाई पड़ रहे है । पर सच सिर्फ इतना ही नहीं है इसके विपरीत भी एक और पहलु है जहां झांकने की कोशिश या यो कहें हिम्मत कोई नहीं कर पा रहा है पर इसे सामने लाने का प्रयास हमें तो करना ही होगा क्यों र्षोर्षो क्योंकि हम इस तथाकथित राविनहुड़ से पोषित नही वल्कि शोषित जनसमुदाय में से हैं ।

यहां विषय है उत्तर दक्षिण कारीडोर मे एन.एच. 7 का वह विवादित हिस्सा जिसे लेकर भारत के सभी एन.जी.ओ. के साथ साथ वन और पर्यावरण मन्त्रालय भी पर्यावरण और बाघों को बचाने का मुद्दा बना जिले मेंं जी रही बारह लाख जनसंख्या और उस रोड़ के किनारे पड़ने वाले 20 हजार लोगों की पहचान और उनके जिन्दा रहने के मनसूबों को अपने अधिकारों के पेरौेंं तले रोन्दने पर अमादा नज़र आ रहें हैं ।

दुख का विषय है कि बचे कुचे बाघों को तो अपना राविनहुड़ मिल गया पर जिले में जीने वाले करीव बारह लाख लोग अपने लिये आदमियों को बचाने वाला राविनहुड़ कहां से लायें र्षोर्षो

इसका सिलसिला तब शुरू हुआ जब इस हिस्से का निर्माण कार्य आधे से उपर पूरा हो जाने के बाद एक तथा कथित एन.जी.ओ. जो अपने आप को वन एवं वन्य प्राणियों का हितेषी बताता है,ने सुप्रीम कोर्ट में बाघोेंं को इस निर्माण से होने जा रहें नुकसान की रूपरेखा बना निर्माण को रूकवाने की अनुमति पा ली । सवा साल पहले रूका निर्माण कार्य सुप्रीम कोर्ट में आज तक अनििर्णत पड़ा हुआ है ।

इस बीच महाअदालत द्वारा इस मसले को समझने हेतु एक समिती बनाई गई आश्चर्य यह है कि उसमेंं सिर्फ बाघोेंं की व्यथा समझने वालों को शामिल किया पर इस पूरे प्रकरण में उपजने वाली मानव समस्याओं का क्या र्षोर्षो इस पर विचार करना या विचारक को शामिल करना किसी ने जरूरी नही समझा। तो क्या इसके लिये हमें किसी मानवाधिकार संगठन की शरण में जाना पड़ेगा र्षोर्षो बाघोेंं को बचाने की कवायत में ये विशेषज्ञ मानव हितों को इस कदर किनारे कर देंगे यह किसी ने नही सोचा था ! विकास और बचाव का यह नज़रिया किसी भी रूप में एक सन्तुलित नज़रिया तो नहीं कहा जा सकता हैं। यह सत्य है कि डब्लू.डब्लू. ओ का एक बहुत बड़ा फण्ड इन्हें वालििन्टयर बनने के लिये अपनी ओर खीचता है पर उसकी आंच में ये यथार्थता को इतना नज़र अन्दाज कर जाते है कि इन पर हावी स्वार्थपरिता भी शर्मिन्दा नज़र आती है।

यथार्थ का धरातल मनुष्य ने अपने को आधार मान कर कर बुना है उससे जुडे़ सर्वाइवरों को बह कितना हिस्सा दे सकता है इसे बहां की भौगोलिक उपलब्धता, भौतिक परिस्थितयो, सामाजिक ढ़ाचे और आर्थिक समर्थतां के आकड़ों के अनुपात से सन्तुलित किया जाकर निर्धारित किया जाना चाहिये इसे डब्लू.डब्लू. ओ. के बने एक प्रारूपिक नक्शे पर बैठा एक अनुशासित वालिन्टयर बनकर उनकी वाहवाही तो पाई जा सकती है पर मुख्य उद्धेश्य की सार्थकता इससे मीलों दूर हो जाती है ।

भारत भूमि का क्षेत्रफल यहां रह रही आबादी को कितना पूरा पड़ता हैै यह ये मुफतखोरों जो मेट्रों के अपने ए.सी. आफिस में ऐश करने ,सड़क की जगह हवा में सफर करने तथा गांव शब्द का Þगाß भी न जानने वाले शायद कभी न जान पायेंगे। इसीलिये ये वहां बैठे बैठे इन कस्वाई हिस्सों की जरूरतों उनकी मुसीबतों और बामुश्किल जी जा रही जिन्दगी को नज़र अन्दाज कर अपनी कलमों से उनकी मौत का फरमान लिख देते हैं। सड़क पर भुट्टे बेचने वाले उस गरीब देहाती की, वहां बैठी ककड़ी बेचने वाली उस विधवा की और ऐसे ही कई हजार जरूरतमन्दो से जुड़ा जीवन और उनकी जीवनी का सम्बंध शायद ये उस सड़क से कभी न जोड़ पायें जिसे बन्द करने की वकालत ये लोग कर रहे है।बाघों को आवाद करने के लिये इतनी जिन्दगियां बरबाद की जाना क्या उचित हैर्षोर्षो यह एक यक्ष प्रश्न है ।

आिªफ्रका के मसाईमारा रिजर्व की उस परिस्थती से इन एन.जी.ओस को प्रेरणा लेनी चाहिये जब वहां अपने पालतू मवेशियों को शेरों द्वारा लगातार मारे जाने से शेर तथा मसाई एक दूसरे के आमने सामने आ खड़े हुयेे थे कई शेर मार भी दिये गये मामला हद से बाहर जाने पर सरकार तथा नियन्त्रकों ने हल के रूप में मसाईयों को निर्वासित नहीं किया था बल्कि शेरों और मसाई कबीलों के बीच बिल्लयों की मीलों लंबी दीवार खीच दी थी। मसाईयों के संसाधनों पर कोई आंच नहीं आने दी गई आज वहां स्थिती सामान्य चल रही है ।पिश्चिम में जब किसी कालोनी के पिछवाड़े पोखर में मगरमच्छ आ जाता है तो उसके संरक्षण में कालोनी को विचलित नहीं किया जाता वल्कि उस मगरमच्छ को वहां से सुरक्षित स्थान पर निर्वासित कर दिया जाता है।

अमरीका में पार्क क्षेत्र से लगे कस्बाई इलाकों में जब पार्क के भालू घुसपैठ करते हैं तो उन्हें बुरी तरह से रबर की गोलियों से मारा जाता है उनके पीछे कुत्ते छोड़े जाते हैं उन्हें इस हद तक डराया जाता है कि वो दोवारा उस जगह घुसपैठ न करें । स्थानीय प्रशासन एवं डब्लू.डब्लू. ओ. द्वारा स्थानीय वाशिन्दों के हित को नहीं छेड़ा जाता और न ही वन्य प्राणी संरक्षण की आड़ तले वन्य प्राणियों के क्षेत्र विस्तारण की प्रस्तावना दी जाती है ।उनकी नीतियां जो उन्होनें स्वविवेक से तय की हैं इतनी सटीक हैं कि कही से भी यह परिलक्षित नहीं होने देती की वन्य प्राणी संरक्षण की वजह से मानव या मानवहितों को कही से भी सुपरसीट नहीं कर रहीं हैं। और यही वन और वन्य संरक्षण का मूल मत्र है ।

पर यहां इसका उल्टा हो रहा है। बाघों के संरक्षण हेतु मनुष्यों के संसाधन छीने जा रहे है उन्हें निर्वासित और साधन विहीन किया जा रहा है ऐसे में तो मनुष्य इसके लिये बाघोेंं को ही दोषी मानेेगा तब क्या बाघोेंेंं और मनुष्यों के बीच सौहार्द रह पायेगा, क्या इसी सृजन की आपेक्षा डब्लू.डब्लू. ओ. तथा सरकार इतना पैसा खर्च कर करती है । इन परिस्थितियों को तो बाघ तथा वन वचाव के नाम पर ये एन.जी.ओ. और जिम्मेदार सरकारी मोहकमे ही अंजाम देते नज़र आ रहे हैं । हमने वन एवं पर्यावरण मन्त्री महोदय का फूला हुआ सीना तो देखा पर वो वह नही देख पा रहे हैं जो समय उन्हें समय आने पर दिखायेगा । उनकी ये हठधर्मिता वन्य प्राणी और पर्यावरण संरक्षण को विकास के बजाय कहीं विनाश के मुकाम पर तो ना ले जायगीर्षोर्षोे इसका उत्तर तो अभी धुन्ध में छिपा है ।

समस्या का हल वन वाघ और मानवों के बीच एक युक्तियुक्त सामन्जस्य बनाने का हा,े ऐसे में सरकार की ओर से विकल्प स्वरूप ऐसी योजनाओं को लाना होगा जिससे मनुष्य अपने संसाधन छिनने सेे शंकित न होकर सशक्त हो अपने अन्र्तमन से इन वनों तथा वन्य प्राणियों के संरक्षण में सरकार तथा इन संगठनों का कंधे से कंधा मिलाकर चलने का विचार बना सके ।



रामगोपाल Þबब्बाÞ सोनी

सुनारी मोहल्ला

सिवनी

मो. 09329020262









क्या बाघों के राबिनहुड बने जयराम रमेश मानवमात्र के हितो की ओर भी देखेंगेंर्षोर्षो: रामगोपाल






वर्तमान में भारत में वन और वन्य प्राणियों की रक्षा में सामने आये एक आधुनिक राविनहुड याने जय राम रमेश पूरे देश में उस पुराने राविनहुड की तरह ही हर कहीं से प्रशंसा पाते हुये दिखाई पड़ रहे है । पर सच सिर्फ इतना ही नहीं है इसके विपरीत भी एक और पहलु है जहां झांकने की कोशिश या यो कहें हिम्मत कोई नहीं कर पा रहा है पर इसे सामने लाने का प्रयास हमें तो करना ही होगा क्यों र्षोर्षो क्योंकि हम इस तथाकथित राविनहुड़ से पोषित नही वल्कि शोषित जनसमुदाय में से हैं ।

यहां विषय है उत्तर दक्षिण कारीडोर मे एन.एच. 7 का वह विवादित हिस्सा जिसे लेकर भारत के सभी एन.जी.ओ. के साथ साथ वन और पर्यावरण मन्त्रालय भी पर्यावरण और बाघों को बचाने का मुद्दा बना जिले मेंं जी रही बारह लाख जनसंख्या और उस रोड़ के किनारे पड़ने वाले 20 हजार लोगों की पहचान और उनके जिन्दा रहने के मनसूबों को अपने अधिकारों के पेरौेंं तले रोन्दने पर अमादा नज़र आ रहें हैं ।

दुख का विषय है कि बचे कुचे बाघों को तो अपना राविनहुड़ मिल गया पर जिले में जीने वाले करीव बारह लाख लोग अपने लिये आदमियों को बचाने वाला राविनहुड़ कहां से लायें र्षोर्षो

इसका सिलसिला तब शुरू हुआ जब इस हिस्से का निर्माण कार्य आधे से उपर पूरा हो जाने के बाद एक तथा कथित एन.जी.ओ. जो अपने आप को वन एवं वन्य प्राणियों का हितेषी बताता है,ने सुप्रीम कोर्ट में बाघोेंं को इस निर्माण से होने जा रहें नुकसान की रूपरेखा बना निर्माण को रूकवाने की अनुमति पा ली । सवा साल पहले रूका निर्माण कार्य सुप्रीम कोर्ट में आज तक अनििर्णत पड़ा हुआ है ।

इस बीच महाअदालत द्वारा इस मसले को समझने हेतु एक समिती बनाई गई आश्चर्य यह है कि उसमेंं सिर्फ बाघोेंं की व्यथा समझने वालों को शामिल किया पर इस पूरे प्रकरण में उपजने वाली मानव समस्याओं का क्या र्षोर्षो इस पर विचार करना या विचारक को शामिल करना किसी ने जरूरी नही समझा। तो क्या इसके लिये हमें किसी मानवाधिकार संगठन की शरण में जाना पड़ेगा र्षोर्षो बाघोेंं को बचाने की कवायत में ये विशेषज्ञ मानव हितों को इस कदर किनारे कर देंगे यह किसी ने नही सोचा था ! विकास और बचाव का यह नज़रिया किसी भी रूप में एक सन्तुलित नज़रिया तो नहीं कहा जा सकता हैं। यह सत्य है कि डब्लू.डब्लू. ओ का एक बहुत बड़ा फण्ड इन्हें वालििन्टयर बनने के लिये अपनी ओर खीचता है पर उसकी आंच में ये यथार्थता को इतना नज़र अन्दाज कर जाते है कि इन पर हावी स्वार्थपरिता भी शर्मिन्दा नज़र आती है।

यथार्थ का धरातल मनुष्य ने अपने को आधार मान कर कर बुना है उससे जुडे़ सर्वाइवरों को बह कितना हिस्सा दे सकता है इसे बहां की भौगोलिक उपलब्धता, भौतिक परिस्थितयो, सामाजिक ढ़ाचे और आर्थिक समर्थतां के आकड़ों के अनुपात से सन्तुलित किया जाकर निर्धारित किया जाना चाहिये इसे डब्लू.डब्लू. ओ. के बने एक प्रारूपिक नक्शे पर बैठा एक अनुशासित वालिन्टयर बनकर उनकी वाहवाही तो पाई जा सकती है पर मुख्य उद्धेश्य की सार्थकता इससे मीलों दूर हो जाती है ।

भारत भूमि का क्षेत्रफल यहां रह रही आबादी को कितना पूरा पड़ता हैै यह ये मुफतखोरों जो मेट्रों के अपने ए.सी. आफिस में ऐश करने ,सड़क की जगह हवा में सफर करने तथा गांव शब्द का Þगाß भी न जानने वाले शायद कभी न जान पायेंगे। इसीलिये ये वहां बैठे बैठे इन कस्वाई हिस्सों की जरूरतों उनकी मुसीबतों और बामुश्किल जी जा रही जिन्दगी को नज़र अन्दाज कर अपनी कलमों से उनकी मौत का फरमान लिख देते हैं। सड़क पर भुट्टे बेचने वाले उस गरीब देहाती की, वहां बैठी ककड़ी बेचने वाली उस विधवा की और ऐसे ही कई हजार जरूरतमन्दो से जुड़ा जीवन और उनकी जीवनी का सम्बंध शायद ये उस सड़क से कभी न जोड़ पायें जिसे बन्द करने की वकालत ये लोग कर रहे है।बाघों को आवाद करने के लिये इतनी जिन्दगियां बरबाद की जाना क्या उचित हैर्षोर्षो यह एक यक्ष प्रश्न है ।

आिªफ्रका के मसाईमारा रिजर्व की उस परिस्थती से इन एन.जी.ओस को प्रेरणा लेनी चाहिये जब वहां अपने पालतू मवेशियों को शेरों द्वारा लगातार मारे जाने से शेर तथा मसाई एक दूसरे के आमने सामने आ खड़े हुयेे थे कई शेर मार भी दिये गये मामला हद से बाहर जाने पर सरकार तथा नियन्त्रकों ने हल के रूप में मसाईयों को निर्वासित नहीं किया था बल्कि शेरों और मसाई कबीलों के बीच बिल्लयों की मीलों लंबी दीवार खीच दी थी। मसाईयों के संसाधनों पर कोई आंच नहीं आने दी गई आज वहां स्थिती सामान्य चल रही है ।पिश्चिम में जब किसी कालोनी के पिछवाड़े पोखर में मगरमच्छ आ जाता है तो उसके संरक्षण में कालोनी को विचलित नहीं किया जाता वल्कि उस मगरमच्छ को वहां से सुरक्षित स्थान पर निर्वासित कर दिया जाता है।

अमरीका में पार्क क्षेत्र से लगे कस्बाई इलाकों में जब पार्क के भालू घुसपैठ करते हैं तो उन्हें बुरी तरह से रबर की गोलियों से मारा जाता है उनके पीछे कुत्ते छोड़े जाते हैं उन्हें इस हद तक डराया जाता है कि वो दोवारा उस जगह घुसपैठ न करें । स्थानीय प्रशासन एवं डब्लू.डब्लू. ओ. द्वारा स्थानीय वाशिन्दों के हित को नहीं छेड़ा जाता और न ही वन्य प्राणी संरक्षण की आड़ तले वन्य प्राणियों के क्षेत्र विस्तारण की प्रस्तावना दी जाती है ।उनकी नीतियां जो उन्होनें स्वविवेक से तय की हैं इतनी सटीक हैं कि कही से भी यह परिलक्षित नहीं होने देती की वन्य प्राणी संरक्षण की वजह से मानव या मानवहितों को कही से भी सुपरसीट नहीं कर रहीं हैं। और यही वन और वन्य संरक्षण का मूल मत्र है ।

पर यहां इसका उल्टा हो रहा है। बाघों के संरक्षण हेतु मनुष्यों के संसाधन छीने जा रहे है उन्हें निर्वासित और साधन विहीन किया जा रहा है ऐसे में तो मनुष्य इसके लिये बाघोेंं को ही दोषी मानेेगा तब क्या बाघोेंेंं और मनुष्यों के बीच सौहार्द रह पायेगा, क्या इसी सृजन की आपेक्षा डब्लू.डब्लू. ओ. तथा सरकार इतना पैसा खर्च कर करती है । इन परिस्थितियों को तो बाघ तथा वन वचाव के नाम पर ये एन.जी.ओ. और जिम्मेदार सरकारी मोहकमे ही अंजाम देते नज़र आ रहे हैं । हमने वन एवं पर्यावरण मन्त्री महोदय का फूला हुआ सीना तो देखा पर वो वह नही देख पा रहे हैं जो समय उन्हें समय आने पर दिखायेगा । उनकी ये हठधर्मिता वन्य प्राणी और पर्यावरण संरक्षण को विकास के बजाय कहीं विनाश के मुकाम पर तो ना ले जायगीर्षोर्षोे इसका उत्तर तो अभी धुन्ध में छिपा है ।

समस्या का हल वन वाघ और मानवों के बीच एक युक्तियुक्त सामन्जस्य बनाने का हा,े ऐसे में सरकार की ओर से विकल्प स्वरूप ऐसी योजनाओं को लाना होगा जिससे मनुष्य अपने संसाधन छिनने सेे शंकित न होकर सशक्त हो अपने अन्र्तमन से इन वनों तथा वन्य प्राणियों के संरक्षण में सरकार तथा इन संगठनों का कंधे से कंधा मिलाकर चलने का विचार बना सके ।



रामगोपाल Þबब्बाÞ सोनी

सुनारी मोहल्ला

सिवनी

मो. 09329020262





क्या बाघों के राबिनहुड बने जयराम रमेश मानवमात्र के हितो की ओर भी देखेंगेंर्षोर्षो: रामगोपाल






वर्तमान में भारत में वन और वन्य प्राणियों की रक्षा में सामने आये एक आधुनिक राविनहुड याने जय राम रमेश पूरे देश में उस पुराने राविनहुड की तरह ही हर कहीं से प्रशंसा पाते हुये दिखाई पड़ रहे है । पर सच सिर्फ इतना ही नहीं है इसके विपरीत भी एक और पहलु है जहां झांकने की कोशिश या यो कहें हिम्मत कोई नहीं कर पा रहा है पर इसे सामने लाने का प्रयास हमें तो करना ही होगा क्यों र्षोर्षो क्योंकि हम इस तथाकथित राविनहुड़ से पोषित नही वल्कि शोषित जनसमुदाय में से हैं ।

यहां विषय है उत्तर दक्षिण कारीडोर मे एन.एच. 7 का वह विवादित हिस्सा जिसे लेकर भारत के सभी एन.जी.ओ. के साथ साथ वन और पर्यावरण मन्त्रालय भी पर्यावरण और बाघों को बचाने का मुद्दा बना जिले मेंं जी रही बारह लाख जनसंख्या और उस रोड़ के किनारे पड़ने वाले 20 हजार लोगों की पहचान और उनके जिन्दा रहने के मनसूबों को अपने अधिकारों के पेरौेंं तले रोन्दने पर अमादा नज़र आ रहें हैं ।

दुख का विषय है कि बचे कुचे बाघों को तो अपना राविनहुड़ मिल गया पर जिले में जीने वाले करीव बारह लाख लोग अपने लिये आदमियों को बचाने वाला राविनहुड़ कहां से लायें र्षोर्षो

इसका सिलसिला तब शुरू हुआ जब इस हिस्से का निर्माण कार्य आधे से उपर पूरा हो जाने के बाद एक तथा कथित एन.जी.ओ. जो अपने आप को वन एवं वन्य प्राणियों का हितेषी बताता है,ने सुप्रीम कोर्ट में बाघोेंं को इस निर्माण से होने जा रहें नुकसान की रूपरेखा बना निर्माण को रूकवाने की अनुमति पा ली । सवा साल पहले रूका निर्माण कार्य सुप्रीम कोर्ट में आज तक अनििर्णत पड़ा हुआ है ।

इस बीच महाअदालत द्वारा इस मसले को समझने हेतु एक समिती बनाई गई आश्चर्य यह है कि उसमेंं सिर्फ बाघोेंं की व्यथा समझने वालों को शामिल किया पर इस पूरे प्रकरण में उपजने वाली मानव समस्याओं का क्या र्षोर्षो इस पर विचार करना या विचारक को शामिल करना किसी ने जरूरी नही समझा। तो क्या इसके लिये हमें किसी मानवाधिकार संगठन की शरण में जाना पड़ेगा र्षोर्षो बाघोेंं को बचाने की कवायत में ये विशेषज्ञ मानव हितों को इस कदर किनारे कर देंगे यह किसी ने नही सोचा था ! विकास और बचाव का यह नज़रिया किसी भी रूप में एक सन्तुलित नज़रिया तो नहीं कहा जा सकता हैं। यह सत्य है कि डब्लू.डब्लू. ओ का एक बहुत बड़ा फण्ड इन्हें वालििन्टयर बनने के लिये अपनी ओर खीचता है पर उसकी आंच में ये यथार्थता को इतना नज़र अन्दाज कर जाते है कि इन पर हावी स्वार्थपरिता भी शर्मिन्दा नज़र आती है।

यथार्थ का धरातल मनुष्य ने अपने को आधार मान कर कर बुना है उससे जुडे़ सर्वाइवरों को बह कितना हिस्सा दे सकता है इसे बहां की भौगोलिक उपलब्धता, भौतिक परिस्थितयो, सामाजिक ढ़ाचे और आर्थिक समर्थतां के आकड़ों के अनुपात से सन्तुलित किया जाकर निर्धारित किया जाना चाहिये इसे डब्लू.डब्लू. ओ. के बने एक प्रारूपिक नक्शे पर बैठा एक अनुशासित वालिन्टयर बनकर उनकी वाहवाही तो पाई जा सकती है पर मुख्य उद्धेश्य की सार्थकता इससे मीलों दूर हो जाती है ।

भारत भूमि का क्षेत्रफल यहां रह रही आबादी को कितना पूरा पड़ता हैै यह ये मुफतखोरों जो मेट्रों के अपने ए.सी. आफिस में ऐश करने ,सड़क की जगह हवा में सफर करने तथा गांव शब्द का Þगाß भी न जानने वाले शायद कभी न जान पायेंगे। इसीलिये ये वहां बैठे बैठे इन कस्वाई हिस्सों की जरूरतों उनकी मुसीबतों और बामुश्किल जी जा रही जिन्दगी को नज़र अन्दाज कर अपनी कलमों से उनकी मौत का फरमान लिख देते हैं। सड़क पर भुट्टे बेचने वाले उस गरीब देहाती की, वहां बैठी ककड़ी बेचने वाली उस विधवा की और ऐसे ही कई हजार जरूरतमन्दो से जुड़ा जीवन और उनकी जीवनी का सम्बंध शायद ये उस सड़क से कभी न जोड़ पायें जिसे बन्द करने की वकालत ये लोग कर रहे है।बाघों को आवाद करने के लिये इतनी जिन्दगियां बरबाद की जाना क्या उचित हैर्षोर्षो यह एक यक्ष प्रश्न है ।

आिªफ्रका के मसाईमारा रिजर्व की उस परिस्थती से इन एन.जी.ओस को प्रेरणा लेनी चाहिये जब वहां अपने पालतू मवेशियों को शेरों द्वारा लगातार मारे जाने से शेर तथा मसाई एक दूसरे के आमने सामने आ खड़े हुयेे थे कई शेर मार भी दिये गये मामला हद से बाहर जाने पर सरकार तथा नियन्त्रकों ने हल के रूप में मसाईयों को निर्वासित नहीं किया था बल्कि शेरों और मसाई कबीलों के बीच बिल्लयों की मीलों लंबी दीवार खीच दी थी। मसाईयों के संसाधनों पर कोई आंच नहीं आने दी गई आज वहां स्थिती सामान्य चल रही है ।पिश्चिम में जब किसी कालोनी के पिछवाड़े पोखर में मगरमच्छ आ जाता है तो उसके संरक्षण में कालोनी को विचलित नहीं किया जाता वल्कि उस मगरमच्छ को वहां से सुरक्षित स्थान पर निर्वासित कर दिया जाता है।

अमरीका में पार्क क्षेत्र से लगे कस्बाई इलाकों में जब पार्क के भालू घुसपैठ करते हैं तो उन्हें बुरी तरह से रबर की गोलियों से मारा जाता है उनके पीछे कुत्ते छोड़े जाते हैं उन्हें इस हद तक डराया जाता है कि वो दोवारा उस जगह घुसपैठ न करें । स्थानीय प्रशासन एवं डब्लू.डब्लू. ओ. द्वारा स्थानीय वाशिन्दों के हित को नहीं छेड़ा जाता और न ही वन्य प्राणी संरक्षण की आड़ तले वन्य प्राणियों के क्षेत्र विस्तारण की प्रस्तावना दी जाती है ।उनकी नीतियां जो उन्होनें स्वविवेक से तय की हैं इतनी सटीक हैं कि कही से भी यह परिलक्षित नहीं होने देती की वन्य प्राणी संरक्षण की वजह से मानव या मानवहितों को कही से भी सुपरसीट नहीं कर रहीं हैं। और यही वन और वन्य संरक्षण का मूल मत्र है ।

पर यहां इसका उल्टा हो रहा है। बाघों के संरक्षण हेतु मनुष्यों के संसाधन छीने जा रहे है उन्हें निर्वासित और साधन विहीन किया जा रहा है ऐसे में तो मनुष्य इसके लिये बाघोेंं को ही दोषी मानेेगा तब क्या बाघोेंेंं और मनुष्यों के बीच सौहार्द रह पायेगा, क्या इसी सृजन की आपेक्षा डब्लू.डब्लू. ओ. तथा सरकार इतना पैसा खर्च कर करती है । इन परिस्थितियों को तो बाघ तथा वन वचाव के नाम पर ये एन.जी.ओ. और जिम्मेदार सरकारी मोहकमे ही अंजाम देते नज़र आ रहे हैं । हमने वन एवं पर्यावरण मन्त्री महोदय का फूला हुआ सीना तो देखा पर वो वह नही देख पा रहे हैं जो समय उन्हें समय आने पर दिखायेगा । उनकी ये हठधर्मिता वन्य प्राणी और पर्यावरण संरक्षण को विकास के बजाय कहीं विनाश के मुकाम पर तो ना ले जायगीर्षोर्षोे इसका उत्तर तो अभी धुन्ध में छिपा है ।

समस्या का हल वन वाघ और मानवों के बीच एक युक्तियुक्त सामन्जस्य बनाने का हा,े ऐसे में सरकार की ओर से विकल्प स्वरूप ऐसी योजनाओं को लाना होगा जिससे मनुष्य अपने संसाधन छिनने सेे शंकित न होकर सशक्त हो अपने अन्र्तमन से इन वनों तथा वन्य प्राणियों के संरक्षण में सरकार तथा इन संगठनों का कंधे से कंधा मिलाकर चलने का विचार बना सके ।



रामगोपाल Þबब्बाÞ सोनी

सुनारी मोहल्ला

सिवनी

मो. 09329020262

1 comment:

dr. pramod shanker soni said...

Kya Khoob Likha hai mamaji,aap to chha Gaye. keep on writing....

aapka bhaanja

Pramod
Dr.Pramod Shanker Soni
49-vaishali nagar bhopal
mo.09827764650