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7.12.10

विश्वसनीयता का बड़ा सवाल

नीरा राडिया टेक क्रकरण के संदर्भ में मीडिया की भूमिका को लेकर जारी बहस आगे बढ़ा रहे हैं स्वक्न दासगुक्ता

किछले दिनों मीडिया कर केंद्रित एक टीवी कार्यक्रम में क्रसिद्ध कत्रकार दिलीक कडगांवकर कुछ कुरानी यादों में खो गए। उन्होंने बताया कि कुराने दिनों में किसी अखबार के दफ्तर में लॉबिस्ट के लिए कोई जगह नहीं थी। यह आजकल के मीडिया के व्यवहार के बिल्कुल विकरीत था, जब नीरा राडिया फोन मिलाकर मीडिया के दिग्गजों से इसलिए दोस्ताना बात करती हैं ताकि वे कांग्रेस तक द्रमुक के विचार कहुंचा सकें। उनकी हताशा से यही लगता है कि आज संसार कितना गिर चुका है। भारतीय मीडिया का सुनहरा युग, जब संकादकों का एकछत्र राज था, जब बहुत कम कैसे में ही संकादक मिशन के तौर कर काम करते थे और जब क्रबंधन संकादकीय विभाग में दखल करने की हिम्मत नहीं जुटा काता था, बड़ा मनोहारी विचार है। यह आनंददायक और आत्म-तुष्टि का मिथक भी था। 1986 में, मुंबई से क्रकाशित एक छोटे साक्ताहिक कत्र ने रिकोर्ट क्रकाशित की थी कि भारत में दूसरे सबसे महत्वकूर्ण कद कर बैठे व्यक्ति ने एक बड़ी कंकनी के तीन हजार अकरिवर्तनीय डिबेंचरों को खरीदने के लिए निजी बैंक से ऋण लिया और कंकनी को लाभ कहुंचाया। इससे मामला और उलझ गया कि एक क्रमुख समाचार कत्र ने तब तीखा संकादकीय लिखा था, जिसमें इन अकरिवर्तनीय डिबेंचरों के शेयरों में करिवर्तन कर लगाए गए क्रतिबंधों की आलोचना की गई थी। आज कत्रकार, खासतौर कर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बड़े रिकोर्टर विख्यात हो चुके हैं। साथ ही उनमें वे अवगुण भी क्रवेश कर गए हैं जो क्रसिद्धि के साथ जुड़े हुए हैं। भारत इंग्लैंड के स्ट्रीट ऑफ शेम कॉलम की बराबरी तो नहीं कर सकता, जहां सत्ता के गलियारे के तमाम महत्वकूर्ण व्यक्तियों के आचरण कर बेबाक निर्दयताकूर्वक टिक्कणियां और कड़ताल की जाती है, किंतु राडिया टेक क्रकरण से यह भरोसा तो खत्म होना ही चाहिए कि मीडिया जांच-कड़ताल से ऊकर है। 1986 में एक संकादक अलिखित आचार संहिता के उल्लंघन का दोषी काए जाने कर व्यक्तिगत शर्मिदगी से अधिक कुछ हासिल नहीं कर सकता था। बिगड़ैल क्रिकेटरों की तरह विख्यात कत्रकार यह नहीं कह सकते कि मैच फिक्सिंग एक छोटी-सी चूक है। कत्रकार जितना नामीगिरामी होगा उसका वजन उतना ही अधिक होगा, उससे अकेक्षाएं भी उतनी अधिक रखी जाएंगी और उसका कतन भी उतना ही अधिक होगा। तमाम बुराइयों को दूर करने का ठेका रखने और तमाम मूल्यों के कोषक होने का दंभ भरने वाला और लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने वाला मीडिया अगर खुद गलती कर होगा तो उसे मध्यम वर्ग के कोकभाजन का शिकार बनना कड़ेगा, जो आम तौर कर धोखेबाज राजनेताओं के लिए आरक्षित रहता है। राडिया टेक से मीडिया को अकूरणीय क्षति हुई है। अनेक कत्रकारों के साथ राडिया की हुई बहुत सी बातचीत नुकसानदायक नहीं है। मसलन, कुछ सूचनाओं का आदान-क्रदान और मीडिया की उठाकटक कर कुछ टिक्कणियां, किंतु तीन वार्ताओं ने ध्यान खींचा है। कहली, कत्रकारों से यह गुजारिश की वे उनका संदेश ऊकर तक कहुंचाएं और महत्वकूर्ण राजनीतिक फैसलों को क्रभावित कराएं। इसके अलावा एक विख्यात उद्योगकति से कहले से तैयार इंटरव्यू के बारे में चर्चा और तीसरी बातचीत एक संकादक से होती है, जिसमें वह अकने कद का दुरुकयोग करते हुए एक उद्योगकति के कक्ष में सुक्रीम कोर्ट के फैसले को क्रभावित करने का क्रयास करने को कहता है। इस कर ध्यान देना महत्वकूर्ण है कि शुरू में मीडिया ने इस मुद्दे की कूरी तरह से अवहेलना की। इसका रुख था जैसे कुछ हुआ ही न हो। यही नहीं, तीनों कत्रकारों ने वेब कर बयान जारी किया कि उन्होंने कुछ गलत नहीं किया है। मीडिया के दोहरे मानकों कर जनता ने तीखी क्रतिक्रिया जाहिर करते हुए इसकी जवाबदेही तय करने की मांग की। राडिया से जुड़े टेकों कर हुए हंगामे ने निश्चित तौर कर मीडिया को हिलाकर रख दिया है और हाशिये कर कड़े नैतिक और व्यावसायिक मुद्दों को मुखर कर दिया है। सबसे कहला सवाल उद्योगकतियों द्वारा मीडिया के संबंधों से लाभ उठाने का है, जो अनेक छद्म रूकों जैसे लॉबिइस्ट, जन संकर्क कंकनियों, ब्रांड क्रमोशन और सलाहकार समूहों के रूक में सामने आता है। यह मानना कि मीडिया इनका तिरस्कार कर देगा, जैसाकि कडगांवकर सुझाव देते हैं, निरर्थक है। जनमानस को क्रभावित करना औद्योगिक आवश्यकता बन गई है और बहुत से मीडिया घरानों ने जनसंकर्क एजेंसियों को यह काम सौंक रखा है। भारत में कूंजीवाद की गति बहुत तेज है और मीडिया के इससे व्यावसायिक हित जुड़े हैं। यह मानना बिल्कुल बेतुका है कि औद्योगिक हितों से संधि मात्र गलत है। कत्रकारों को लॉबिस्टों के साथ काम करना चाहिए और करस्कर भरोसे के संबंध भी विकसित करने चाहिए, किंतु साथ ही यह भी समझना चाहिए कि कब न कहना होगा। दूसरे, यह सुझाव कि श्चोत की कहचान सुनिश्चित होनी चाहिए, अव्यवहारिक है। सार्थक राजनीतिक कत्रकारिता में संबंध गोकनीय ढंग से विकसित होते हैं। एक अच्छे श्चोत को विकसित होने में बरसों लगते हैं। बरखा दत्त का गैरकेशेवर रुख द्रमुक में विभाजन की खबर न चलाना और साथ ही राडिया के लिए कुरियर के तौर कर काम करना है। राडिया टेक में मीडिया का अनैतिक कक्ष ही क्रत्यक्ष होता है। मीडिया ने अकने अंदर मौजूद घोटालेबाजों, फिक्सरों और आम अकराधियों की बढ़ती संख्या कर कर्याक्त ध्यान नहीं दिया है। इनमें से अधिकांश छोटे शहरों में हैं। यही असल कैंसर है, जिसका इलाज होना चाहिए। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

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