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14.12.10

अलगाववादियों का दुस्साहस

देश की व्यवस्था के प्रति घृणा पैदा करने वाले तत्वों के खिलाफ सरकार को सख्त रवैया अपनाने की सलाह दे रहे हैं निशिकान्त ठाकुर

अलगाववादियों का दुस्साहस किस हद तक बढ़ गया है, इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि कश्मीर विश्वविद्यालय के बीए, बीएस-सी और बीकॉम छात्रों से परीक्षाओं में ऐसे प्रश्न पूछे जा रहे हैं, जिनसे यह बात साफ जाहिर होती है कि उनके मन में राष्ट्र और राष्ट्र की व्यवस्था के प्रति घृणा के भाव भरे जा रहे हैं। वहां अंग्रेजी के प्रश्नपत्रों में यह प्रश्न पूछा गया है कि क्या पत्थरबाज हीरो हैं, रोशनी डालते हुए पैराग्राफ लिखिए। यही नहीं, अंग्रेजी में अनुवाद के लिए जो वाक्य दिया गया है, उससे तो यह बात एकदम स्पष्ट हो जाती है कि इसके पीछे एजेंडा क्या है। इसमें कहा गया है, कश्मीर फिर जल रहा है। नौजवानों का गर्म खून पानी की तरह बहाया जा रहा है। छोटे-छोटे बच्चों को भी पुलिस यातना देकर मौत की नींद सुला रही है। लड़कियों और महिलाओं के सीने में गोलियां उतारी जा रही हैं। शहरों और गांवों में लोग खून के आंसू रो रहे हैं। ऐसा लगता है कि हुक्मरान गूंगे, बहरे और अंधे हो गए हैं। लोगों की दुआओं में भी कोई असर दिख नहीं रहा है। उर्दू से अंग्रेजी में अनुवाद के लिए दिए गए इस पैराग्राफ का शीर्षक है क‌र्फ्यू में ईद। क्या इतना काफी नहीं है यह बताने के लिए कि देश के दुश्मन किस तरह और किन-किन स्तरों पर सक्रिय हैं? आखिर इस तरह के प्रश्न पूछे जाने के पीछे उद्देश्य क्या है? इतने गंभीर अपराध के मामले में पुलिस ने कार्रवाई के नाम पर सिर्फ इतना किया है कि प्रश्नपत्र तैयार करने वाले प्रोफेसर को हिरासत में ले लिया है। विश्वविद्यालय प्रशासन ने भी उसके खिलाफ जांच के आदेश जारी कर दिए हैं। यह प्रोफेसर श्रीनगर स्थित गांधी मेमोरियल कॉलेज में पढ़ाता है और ये प्रश्न किसी सामान्य परीक्षा में नहीं बल्कि विश्वविद्यालय की वार्षिक परीक्षाओं में पूछे गए हैं। परीक्षा नियंत्रक ने केवल यह कहकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली कि विश्वविद्यालय प्रश्नपत्र को पहले नहीं जांचता है। क्योंकि इससे उसके लीक होने का खतरा रहता है। अब सवाल यह है कि क्या इस तरह की बात करके विश्वविद्यालय प्रशासन अपनी जिम्मेदारी से बच सकता है? क्या प्रशासन की यह जिम्मेदारी नहीं है कि वह यह बात पहले से जान ले कि जिन लोगों को वह अपने छात्रों के लिए प्रश्नपत्र तैयार करने की जिम्मेदारी सौंप रहा है उनके कामकाज के तरीके क्या हैं और उनके संबंध किस तरह के संगठनों से हैं। साथ ही, यह भी कि छात्रों से वही प्रश्न पूछे जाएं जो उनके पाठ्यक्रम में हों और जिनसे उनकी भावनाएं दूषित न हों? आखिर यह कैसे सुनिश्चित होगा? अगर परीक्षा में पूछे गए प्रश्न छात्रों के लिए तनाव या उनकी भावनाएं दूषित करने के कारण बनते हैं तो क्या उसकी जिम्मेदारी सिर्फ प्रश्नपत्र सेट करने वालों की होगी? ये हालात तब हैं जबकि छात्रों को इसका अनुमान पहले से ही था। एक छात्रा के ही अनुसार यह अफवाह पहले से थी कि इस बार परीक्षा में घाटी में पिछले पांच महीनों के हालात और पथराव से संबंधित प्रश्न पूछे जा सकते हैं। हालांकि ये प्रश्न इस अंदाज में होंगे, इसकी खबर छात्रों को नहीं थी। ऐसी स्थिति में जबकि छात्रों को पहले से ही इसका अंदाजा था और पूरे क्षेत्र में ऐसी अफवाह थी, विश्वविद्यालय प्रशासन को इसकी कोई खबर न रही हो, यह बात कैसे मानी जा सकती है? क्या विश्वविद्यालय प्रशासन ऐसी जानकारियों के बावजूद परीक्षा के लिए भेजे जाने वाले प्रश्नपत्र चुनने की जिम्मेदारी ऐसे ही किसी के भी जिम्मे छोड़ सकता है? यही नहीं, आमतौर पर कोई भी विश्वविद्यालय किसी भी विषय के कई प्रश्नपत्र अलग-अलग पेपर सेटर्स से बनवाता है। इसके बाद उनमें से कोई एक या दो परीक्षा में छात्रों को भेजे जाने के लिए चुनता है। तो क्या यह चयन बिना प्रश्नपत्र देखे ही कर लिया जाता है? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर विश्वविद्यालय प्रशासन आसानी से नहीं दे सकता है। न केवल कश्मीर, बल्कि देश के अन्य हिस्सों में भी आतंकवादी घटनाओं को देखते हुए इस मसले को सामान्य तरीके से नहीं लिया जाना चाहिए। हाल ही में कश्मीर के ही गांदरबल जिले में कुख्यात आतंकवादी मुठभेड़ के दौरान ही बच निकलने में कामयाब हो गए। सुरक्षा बल उन्हें सिर्फ इसलिए नहीं पकड़ सके क्योंकि उनके सिर पर आम जनता को बचाने की भी जिम्मेदारी थी। सुरक्षा बलों ने सूचना मिलने के बाद जब वहां घेरेबंदी शुरू की तो आतंकवादी एक ग्रामीण के मकान में जा छिपे और जब वे वहां पहुंचे तो आतंकवादियों ने ग्रेनेड दागने शुरू कर दिए। इसके बाद पुलिसकर्मी जब तक आम लोगों को बचाने के इंतजाम कर पाते, आतंकवादियों ने धमाका कर मकान में आग लगा दी और भाग निकले। इस बीच संयुक्त कार्यदल का एक जवान आतंकवादियों की गोली से घायल भी हो गया। इस घटना से ही यह बात जाहिर हो जाती है कि घाटी में आम नागरिकों के सीने पर गोलियां कौन चला रहा है और सुरक्षाबल किस तरह अपनी जान पर खेल कर आम जनता को बचा रहे हैं। इसके बावजूद परीक्षा में ऐसे प्रश्न पूछे जा रहे हैं जिनसे छात्रों के मन में देश की व्यवस्था के प्रति घृणा पैदा हो। यह अलग बात है कि कश्मीर के छात्र सच जानते हैं। घाटी में जो कुछ भी हो रहा है, उसे वे खुद अपनी आंखों से देख और भुगत रहे हैं। उन्हें यह बात भी अच्छी तरह मालूम है कि उनकी इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार कौन है। लंबे अरसे से घाटी में विकास कार्य रुके पड़े हैं और जनसाधारण के विकास के लिए पहले किए जा चुके निर्माण भी ध्वस्त किए जा रहे हैं। यह सब कश्मीरी युवा अपनी आंखों से देख रहे हैं और इसका दर्द महसूस कर रहे हैं। वे बखूबी जानते हैं कि यह सब कौन लोग कर रहे हैं और किसके इशारे पर कर रहे हैं। वे यह भी जानते हैं कि जो देश यह आग लगाने में जुटा हुआ है, उसके अपने हालात क्या हैं और खुद उसकी अपनी जनता किस तरह दाने-दाने के लिए मोहताज है। इसके बावजूद ऐसे प्रश्न करके आखिर क्या साबित करने की कोशिश की जा रही है? सच तो यह है कि इसका मुख्य उद्देश्य छात्रों को बहकाने से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय समुदाय में भारत को बदनाम करना है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह अत्यंत गंभीर स्थिति है। पिछले दो-तीन साल की आतंकवादी घटनाओं पर ही नजर डालें तो यह जाहिर हो जाता है कि दुश्मन देश के हर कोने में सक्रिय हैं। यह जानना अनिवार्य हो चुका है कि वे देश में किस तरह घुसपैठ करते हैं और किन लोगों के साथ साजिश कर भयावह घटनाओं को अंजाम देते हैं। खुफिया तंत्र से मिली सूचनाओं को हल्के ढंग से लेना ऐसी स्थिति में किसी अपराध से कम नहीं होगा। उन सूचनाओं पर तुरंत कार्रवाई की जानी चाहिए। यह बात जम्मू-कश्मीर समेत पूरे देश की जनता महसूस कर रही है कि अलगाववादियों के खिलाफ अब सरकार को सख्त रवैया अपना ही लेना चाहिए। लंबे अरसे से यह बात कई मंचों से कही भी जा रही है। अलगाववादियों को इससे छूट देना देश को एक अत्यंत गंभीर खतरे की ओर ले जाने जैसा होगा। क्या व्यवस्था इसके लिए जिम्मेदार होगी? (लेखक दैनिक जागरण के स्थानीय संपादक हैं)
साभार:-दैनिक जागरण १४-१२-२०१०

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