आरक्षण से क्षमा
दिनांक – 11/01/2011
* भारत और पाकिस्तान के मध्य बंटवारे पर जब-जब सेमिनार हुए तब-तब यह देखा गया कि उस पर पानी फेरने के लिए मुस्लिम प्रवक्ताओं को बार- बार यह कहते हुए सुना गया है कि यह सब कुछ तो प्रतिष्ठित मुसलमानों की कारस्तानी थी, साधारण मुस्लिम जनता का इससे कोई लेना देना नहीं था । इसे मानना पड़ता है और हम मान भी लेते हैं । चलिए उसे छोड़ देते हैं, लेकिन यदि सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की मांग करने वालों की हैसियत को देखा जाए, तो फिर वही मंज़र याद आ जाता है कि सब के सब कुलीन वर्ग के ही लोग हैं। कम से कम ये वे लोग तो नहीं हैं जिन्हें लाभ मिलना चाहिए। ऐसी दशा में फिर से कोई ऐसी गलती फिर से दुहरायी न जाये कि उनकी रपटों को लागू करके एक और बंटवारे का मार्ग को खोल दिया जाय। देश व राष्ट्रीय एकता को अक्षुण रखने की गरज से उन्हें कूड़ेदान में फेंक दिया जाना चाहिए । एक बात ध्यान देने योग्य है कि इससे केवल प्रतिष्ठित मुसलमानों की राजनीतिक कुचेष्टाओं को ही क्षति पंहुचेगी और कथित लाभार्थी व साधारण मुस्लिम जनता को इससे कोई भी फर्क नही पड़ेगा ।
इसका पहला कारण तो यह कि मुस्लिम कुलीन वर्ग उन लाभों को साधारण मुस्लिम जनता तक पहुँचने ही नही देंगे। जैसा कि हिन्दू दलितों के आरक्षण के साथ हुआ। इसलिए कि आरक्षण की मांग उनकी है ही नहीं। और न ही इसके लिए उन्होंने कोई संघर्ष किया। या करने की ज़रुरत भी नहीं थी, क्योंकि वे गरीब भले रहे हों पर दमन के शिकार नहीं थे। उन्हें अपनी धार्मिक व्यवस्था से कोई शिकायत नहीं है, और उससे उन्हें कोई परेशानी नहीं है । फिर वे दलित कैसे कहे जाएँ और क्यों। यहीं पर यह ध्यान देने की जरूरत है कि हिन्दू दलितों को आरक्षण उनके आर्थिक उत्थान के लिए नहीं, बल्कि उनके सामाजिक सम्मान और उत्थान के लिए है , दरअसल इसी सम्मान व उत्थान के लिए ही लडाई है। ऐसा वे स्वयं समझते और कहते हैं। यदि ऐसा नहीं है तो आर्थिक दशा अच्छी हो जाने के बाद भी बड़े बड़े दलित अधिकारी वर्ग आरक्षण मुद्दा छोड़ चुके होते।
सामाजिक प्रतिष्टा को हासिल करने के लिए क्या क्या करना पड़ा, इसकी शुरूआत यदि अंबेडकर युग से करें तो उन्होंने इसके लिए क्या-क्या पापड़ नहीं बेले, क्या क्या नहीं किया। हिन्दू धर्म की व्याख्या करते हुए उसकी बखिया तक उधेड़ डालीं, उसका तार तार, रेशा रेशा छिन्न भिन्न करके तहस-नहस कर दिया। कथित पवित्र किताबों वेद-पुराणों की अवमानना की मनुस्मृति जलाई, देवी देवताओं को गालियाँ दीं, संतों- महात्माओं पर कीचड़ उछाले, ब्राह्मणवाद की ऐसी -तैसी की, गाँधी जी से भी पंगा लिया, वाइसराय से भी जिद किया, कुछ करना बाक़ी नहीं छोड़ा यहाँ तक कि स्वयं धर्म परिवर्तन कर बौद्ध भी बन गये । इतना सब कुछ करने के बाद, अभी थोड़ा सा ही हासिल कर सके हैं। आज भी जब तब उत्पीड़न के शिकार होते ही रहते हैं, और उनका यह संघर्ष अभी भी जारी है।
इसके ठीक विपरीत मुसलमान भाइयों ने क्या किया। मुसलिम वर्ग इस्लाम से चिपके रहे, उसके वफादार बने रहे, उसका गुणगान करते रहे, रोजे नमाज़ के पाबंद रहे ,मजारों पर चादरें चढ़ाते रहे। कोई परेशानी नहीं है ? इस्लाम तो एक पूरी सामाजिक व्यवस्था है, इसमे गरीबों और मजलूमों का भी इंतजाम है। दान और ज़कात की व्यवस्था है, यह इसीलिये की गयी, जिससे गरीबों, मजलूमों का भरण-पोषण हो सके और वे इस धर्म को छोड़ कर किसी अन्य धर्म को अपनाने न लगें । इस कथन में भी कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि इनकी इसी व्यवस्थाओं के कारण आज तक कोई भी एक ऐसा उदहारण नहीं है कि इस्लाम या ईसाई अपने धर्म से निकलकर किसी दूसरे धर्म को अपनाया । यह तो केवल एकमात्र हिन्दू धर्म ही है, जिससे बहुत सारे लोग निकल कर इस्लाम या ईसाई धर्म को अपना लेते हैं और समता, बराबरी, भाईचारा, मानवाधिकार, स्त्री अधिकार और न जाने क्या-क्या स्वर्ग का सब्जबाग देख इससे निकलकर इन मजहबों की गोदें भरते रहे। ज़ाहिर सी बात है कि उन्हें हिन्दू धर्म में परेशानी थी। यह भी सच है कि उन मजहबों के गुण अब भी उसी प्रकार गाये जाते हैं। कहीं कोई क्षोभ, पश्चाताप या पुनरीक्षण नहीं। वे अब भी वैसे ही समतावादी, मानवतावादी होने के लिए ख्याति प्राप्त करने की होड़ में लगें हैं। इसे सबसे उचित और श्रेष्ठ सिद्ध करने में लादेन की अलक़ायदा से लेकर डाक्टर जाकिर नाइक व एक छोटे से छोटे गाँव का गरीब से गरीब मोलवी-मौलाना तक लगा हुआ है। उधर सुदूर जंगलों और आदिवासी क्षेत्रों में ईसाई मिशनरियां भी यही काम कर रही हैं। इनकी वकालत में भारत के महान बुद्धिजीवी वर्ग भी यही कहते हैं कि अताताई हिन्दू धर्म से ये निकल कर न जायं तो क्या करें ! ज़ाहिर है कि वहाँ उनको एक भविष्य दिखाई देता है।
इस बात से यह बात प्रमाणित हो जाता है और जहाँ तक हमें जानकारी है कि इन मजहबों के इन्ही सदगुणों के कारण किसी भी ईसाई या मुसलिम मुल्कों में आरक्षण की कोई मांग या कोई व्यवस्था सुनाई नहीं देती है। सब उनकी सुराज के कारण है, जो हिन्दू धर्म में नहीं है। और यह हिन्दू धर्म केवल हिंदुस्तान में ही है।
ऐसी दशा में प्यारे गरीब ईसाई - मुस्लिम भाइयों से यह पूछना है कि वे हिन्दू धर्म की जेहालत - जलालत में क्यों लौटना चाहते हैं ? आरक्षण व्यवस्था उनके अपने दलितों के लिए की गयी व्यवस्था है। वह भी उनकी गरीबे दूर करने के लिए नहीं, वल्कि उन्हें सामाजिक सम्मान दिलाने के लिए है। गरीबी और गरीबों के लिए तो बी पी एल कार्ड है। यदि आप में तनिक भी ईमानदारी है तो उनके हक में आप कृपया छीछा, छीजन न करें। यही न्याय की बात होगी, अन्यथा उन पर आप से भी अन्याय होगा। वे लोंग तो पहले से ही दबे हैं।
निवेदन है कि इन सच्चर , रंगनाथ मिश्र लोगों पर न जाएँ और अपनी नैतिकता की आवाज़ को सुनें। हिन्दू धर्म की तमाम बुराईयों या अच्छाईयों में एक यह भी है कि यहाँ एक ईश्वर और एक धर्म सन्देशवाहक नहीं होता है वल्कि तमाम देवताएँ होते हैं। इसी तरह के मनुष्यदेवता ही सच्चर, रंगनाथ मिश्र जैसे लोग ही हैं। महात्मा गाँधी ने तो अपना जान ही गँवा दिया पड़ोसी मुल्क को कुछ करोड़ रूपये भारत सरकार से दिलवाने के लिए। हिन्दू के दधीच तो आपके लिए अपना अंग -अंग दान करने के लिए तैयार हो जायेंगे। परन्तु उसे लेना क्या उनके लिए उचित और शोभनीय होगा?
इस पर गंभीरता से सोचा जाना चाहिए कि देश का साधारण आदमी देवता नहीं हो सकता वह एक सामाजिक प्राणी है। सेकुलरिज्म या धर्म निरपेक्षता का एक अर्थ पारलौकिकता के अलावा इहलौकिकता भी है। अब जनता अपने महात्माओं के विपरीत धर्मों की साजिशें और उनकी राजनीतिक रणनीतियां भी बखूबी समझती है । अब भारतीय लोगों को मूर्ख बनाना इतना आसान नही रह गया है। जनता ने देख लिया कि इसी आयोग के एक सदस्य ने दलित व अन्य धार्मिक समुदायों के लिए आरक्षण के विरुद्ध ही आख्या दे डाला और वह सर्वसम्मत भी नहीं है। हिन्दू दलितों की स्थिति में अन्तर को यहाँ रेखांकित किया गया है। आरक्षण के समर्थक कोई भी यह बताये कि मोहम्मद साहेब के कार्टून के विरोध में लाखों की संख्या में गरीब मुसलमान लखनऊ और अन्य जगहों पर निकल कर आये , क्या इतने ही संख्या में लोग अपने गरीबी के विरोध में सामने आये हैं ? इस्लाम में जो लोग दलितावस्था को झेल रहे हैं क्या उनमें से कोई इसके लिए सामने आये या कुछ कर रहे हैं? तसलीमा नसरीन को वीजा मुसलमानों के भय से नहीं दिया जा रहा है , और भारत में इस्लाम की ताक़त उन्हीं के गरीब मुसलमान वर्ग ही है, न की सारे अमीर लोग। इसीलिये , गौर से देखें , सारे अमीर उन्हे आरक्षण दिलाने के लिए ऐंडी चोटी एक कर रहे हैं, परन्तु अब यह नहीं हो सकता है, कि जब समता का मज़ा लेना हो तो ईसाई बन जांयें , इस्लाम ग्रहण कर लें , जब आर्थिक सुविधा लेनी हो तो जय श्री राम का नारा लगायें। यदि लेंना ही है तो हिन्दू धर्म के दोज़ख और नर्क में आइये, यहीं से गए थे तो अब क्यों पड़े हैं उस जन्नत में ! वरना तो यदि सेकुलर देश में आप तसलीमा को वीजा नहीं देने देंगे , तो हिन्दू देश भी आपको कोई आरक्षण देने में असमर्थ है। कृपया क्षमा करें।
-- जी0 के0 चक्रवर्ती (priyasmpadak@gmil.com) --- उग्रनाथ श्रीवास्तव 'नागरिक' (priyasmpadak@gmil.com)
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