उफ़ मेरे सरकार! तुम्हें कैसे समझाऊं यह आन्दोलन क्षणिक नहीं है. यह तो कई दशकों की तुम्हारी ही दी हुई परंपरा की परिणति है. तुम भ्रष्टाचारियों को रोक लेते तो भ्रष्टाचार कहाँ से पनपता? कैसे कहूँ कि हमारे मन में तुम्हारे प्रति कितना आक्रोश है? भ्रष्टाचार को नियति मानकर जो लोग लम्बे समय से घरों में बैठे हुए थे, आज उन्हें जब एक शख्स की रहनुमाई मिली तो वे सड़कों पर उतर आये. मेरे सरकार! तुमें कैसे कहूँ कि जितने मोटे तुम्हें दिमाग देने वाले मंत्री (कपिल सिब्बल, चिदंबरम आदि) हैं, तुम्हारी चमड़ी तो उस से भी मोटी है. तुम्हारी खाल ऐसी है कि सुई चुभोने से चुभने से तो कुछ होने से रहा, अब जब भला घोंप रहे हैं तब भी तुम्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा है. गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले आज़ादी के बाद हमने तेरे कई रूप देखे हैं. जब तुम्हें अपना रूप दिखा रहे हैं तो इसे भी नज़रंदाज़ कर रहे हो! कब तक? संभल जाओ जड़ से उखड़ने से पहले तक, अन्यथा इस अंगड़ाई के बाद व्यवस्था कोई करवट ले लेगी.
तुम पूछोगे मैं कौन हूँ? तो सुनो- मैं तुम्हारी ही दी हुई भ्रष्टाचार की परंपरा और महंगाई के बोझ तले दबी हुई एक आवाज़ हूँ. मैं एक दो लख नहीं, बल्कि ४० करोड़ वाले मध्य वर्ग की आवाज़ हूँ. आज तुमने मुझे उस हाल में पहुंचा दिया है जहां से नीचे देखने पर भूख, गरीबी, बीमारी और और लाचारी नज़र आती है. जब ऊपर देखता हूँ तो डरावने सपने. डर सिर्फ़ इस बात का कि क्या उंचाई तक पहुँचाने के लिए मुझे भी भ्रष्ट होना पड़ेगा? क्या आगे बढ़ने के लिए चापलूसी करनी पड़ेगी? नहीं... नहीं... कतई नहीं. बरसों तक क्या करूँ... क्या न करूँ की उलझन के बाद मैंने पाया कि मेरे आदर्श, मेरा ज़मीर मुझे भ्रष्ट या चापलूस होने की इजाज़त नहीं देता. इसलिए मैं उतर पड़ा हूँ हिन्दुस्तान की सडकों पर और चल पड़ा हूँ अन्ना हजारे के पीछे. मुझे एक स्वच्छ समाज चाहिए जहां की खुली फिजा की साफ़-सुथरी हवा मैं अपने नथुनों में भर सकूँ, एक सुकून की ज़िन्दगी गुजार सकूँ और गर्व से कह सकूँ... हाँ हम भ्रष्ट नहीं हैं. एक ऐसी व्यवस्था में रहना चाहता हूँ जहां अपना ही हक पाने के लिए हमें रिश्वत नहीं देना पड़े. सरकार! तुम्हारी व्यवस्था ने अवैध लेन-देन को कई उपनाम दिए हैं...स्कूलों में यह कैपिटेशन, दफ्तरों में मिठाई, कार्पोरेट लोब्ब्य में पॅकेज, सुपारी लेने में पेटी और ऐसे ही न जाने कितने उपनाम हैं. मैं अपनी आवाज़ सिर्फ़ ४० करोड़ इसलिए बता रहा हूँ, क्योंकि अपना दर्द मैं ही महसूस कर सकता हूँ. मुझे अपने नीचे के ३७ करोड़ लोगों की आवाज़ भी समझो, क्योंकि मैं उनकी भी पीड़ा को महसूस कर सकता हूँ, लेकिन उन्हें सड़कों पर उतरने के लिए नहीं कह सकता. वे रोज़ कुआं खोदते हैं और रोज़ ही पानी पीते हैं. इतने बरसों में मैंने गाढ़ी कमाई से पायी-पायी रक़म जमा की है. इससे महीने-दो महीने तक मेरा गुज़ारा चल जायेगा. अपने ऊपर वालों के बारे में मैं बात नहीं कर सकता, क्योंकि उन्हें नहीं जानता. वे बंद कोठियों के कई पर्दों वाले कमरों में रहते हैं. वे स्वर्ग में रहते हैं, जहां का रास्ता मुझे मालूम नहीं. मैं वहाँ तक पहुँच भी नहीं सकता. उनकी अपनी ज़रूरतें हैं. वे कुछ खोने से डरते हैं, लेकिन मैं नहीं डरता. मैं अगर गिरा भी तो अपनों के बीच ही जाऊंगा....लेकिन ऊपर वाले कहाँ जायेंगे??? यह डर भी तो उनके साथ है न! ६२ बरस मैंने इसी डर में बिताये हैं. बस डर अब और नहीं....
तीन साल पहले तक मैं कम कमाता था, फिर कुछ न कुछ बचा ही लेता था. लेकिन आज मैं उससे ७ गुना ज्यादा कमाता हूँ, लेकिन फिर भी कुछ बचा नहीं पता हूँ. आज ज़रूरतें वही हैं, लेकिन कीमतें बढ़ गयी हैं. जितना कमाता हूँ उसमें अपने साथ सिर्फ़ या तो पत्नी को साथ रख सकता हूँ या माँ को. बच्चों की तो कल्पना भी नहीं कर सकता, क्योंकि उनके आते ही मेरी अर्थव्यवस्था अमेरिका की तरह चरमरा जाएगी. मेरे बैंक के खाते दिवालिया हो जायेंगे. मेरे सरकार! क्या तुम जानते हो कि एक बच्चे को पालने पर अभी कितना खर्च आता है? उसकी पढ़ाई पर कितना खर्च आता है? अरे छोडो! तुम्हें तो सब पता है. आज एक चार साल के बच्चे के लिए एक जोड़ी कपड़ा १,००० रूपए से कम में नहीं मिलता. उसके दाखिले पर पहले हज़ारों रूपए कैपिटेशन फिर हर माह मोटी फीस, ट्रांसपोर्टेशन, किताब-कापियां, महंगे स्कूल ड्रेस के अलावा हर पखवारे स्कूल कि नयी नयी फरमाइश यानि स्कूल भेजने का दंड. कमाई का आधा हिस्सा १५,००० तो सिर्फ़ एक बच्चे की पढाई पर ही खर्च हो जायेगा, फिर भी वह किसी ब्रांडेड स्कूल का मुंह नहीं देख सकेगा. २००७ तक दिल्ली में दो कमरों का जो फ्लैट ३,०००-३५०० रूपए में मिल जाता था, वही अब ७ से १०,००० में मिलता है.वह भी किसी गली-मोहल्ले में. सोसाइटी की तो बात ही छोड़ दो. पहले एक कमरा १,००० रूपए में मिलता था आज वह ५,००० में मिलता है. मैं पान-बीडी और कभी-कभी सिनेमा देखने के शौक़ की बलि भी देदूं तब भी इतने पैसे कहाँ से लाऊंगा? परिवार की ज़रूरतें ही पूरी नहीं कर पाउँगा. रही बात हम पति-पत्नी की तो हम ५,००० में अडजस्ट कर सकते हैं, लेकिन बच्चे की ज़रूरत के लिए, बीमारी सहित अन्य अप्रत्याशित ज़रूरतों की भरपाई कहाँ से करूँगा? बीमे की रकम कहाँ से भरूँगा? तुम्हीं कहो तुम्हारी दी हुई महंगाई में बच्चों के साथ कैसे जिऊंगा? उन्हें सुखद भविष्य तो दूर की बात, उनें जिंदा कैसे रखूँगा मेरे सरकार? तुम चाहते तो प्रोपर्टी रेगुलेशन एक्ट लगाकर इनकी जेट की तरह बढ़ती रफ़्तार पर चीन की ताः लगाम लगा सकते थे...लेकिन वो भी न किया. मैं बस यही सब सोचकर सड़क पा आ गया हूँ. बस यही सब सोचकर. अब तो घरवालों को तभी मुंह दिखाऊंगा जब तुम्हें या तो सत्ता से गिराऊंगा या अपना लोकपाल लूँगा. इसलिए माँ जाओ. माँ जाओ सरकार! गिराने पर चोट लगती है...दर्द होता है...और एक टीस उभरती है लम्बे समय तक. मैंने वह दर्द, वह टीस और विक्षिप्तता बरसों झेली है. माँ लो हमारी एक मांग...अपना लोकपाल अपने पास रखो, हमें हमारा लोकपाल देदो. हमें तो बस हमारा लोकपाल ही चाहिए...सुनते हो...
- नागार्जुन
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