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3.10.11

2 october, गाँधी , लाल बहादुर , भगत सिंह , जस्टिस खोसला


२ अक्टोबर , इस देश की राजनीति केवल षड्यंत्रों , कत्लों , और खून खराबे कि है ,

    

भारत के लाल की मौत का रहस्य
पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की मौत का रहस्य सुलझने के बजाय और गहरा गया है। अब उनके परिवार के सदस्यों ने सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी को यह कहकर नहीं दिए जाने को गंभीरता से लिया है कि अगर दिवंगत शास्त्री की मौत से जुड़ी जानकारी को सार्वजनिक किया जाएगा, तो इसके कारण विदेशी रिश्तों को नुकसान और देश में गड़बड़ी हो सकती है।
दिवंगत लालबहादुर शास्त्री के पुत्र सुनील शास्त्री ने कहा कि दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री उनके पिता ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लोकप्रिय नेता थे। आज भी वह या उनके परिवार के सदस्य कहीं जाते हैं, तो हमसे उनकी मौत के बारे में सवाल पूछे जाते हैं। लोगों के दिमाग में उनकी रहस्यमय मौत के बारे में संदेह है, जिसे स्पष्ट कर दिया जाए तो अच्छा ही होगा।
दिवंगत शास्त्री के भांजे सिद्धार्थनाथ सिंह ने कहा कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने देश में गड़बड़ी की आशंका जताकर, जिस तरह से सूचना देने से इनकार किया है, उससे यह मामला और गंभीर हो गया है। उन्होंने कहा कि वह ही नहीं, बल्कि देश की जनता जानना चाहती है कि आखिर उनकी मौत का सच क्या है।
उन्होंने कहा कि यह भी हैरानी की बात है कि जिस ताशकंद समझौते के लिए पूर्व प्रधानमंत्री गए थे, उसकी चर्चा तक क्यों नहीं होती है।
उल्लेखनीय है कि ‘सीआईएज आई ऑन साउथ एशिया’ के लेखक अनुज धर ने सूचना का अधिकार (आरटीआई) के तहत सरकार से स्व: शास्त्री की मौत से जुड़ी जानकारी मांगी थी। इस पर प्रधानमंत्री कार्यालय ने यह कहकर सूचना सार्वजनिक करने से छूट देने की दलील दी है कि अगर दिवंगत शास्त्री की मौत से जुड़े दस्तावेज सार्वजनिक किए गए, तो इस कारण विदेशी रिश्तों को नुकसान, देश में गड़बड़ी और संसदीय विशेषाधिकार का हनन हो सकता है।
सरकार ने यह स्वीकार किया है कि सोवियत संघ में दिवंगत नेता का कोई पोस्टमार्टम नहीं कराया गया था, लेकिन उसके पास पूर्व प्रधानमंत्री के निजी डॉक्टर आरएन चुग और रूस के कुछ डॉक्टरों द्वारा की गई चिकत्सीय जांच की एक रिपोर्ट है।
धर ने प्रधानमंत्री कार्यालय से आरटीआई के तहत यह सूचना भी मांगी है कि क्या दिवंगत शास्त्री की मौत के बारे में भारत को सोवियत संघ से कोई सूचना मिली थी। उनको गृह मंत्रालय से भी मांगी गई ये सूचनाएं अभी तक नही मिली हैं कि क्या भारत ने दिवंगत शास्त्री का पोस्टमार्टम कराया था और क्या सरकार ने गड़बड़ी के आरापों की जांच कराई थी।
वैसे आधिकारिक तौर पर 11 जनवरी, 1966 को दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री की मौत दिल का दौरा पड़ने से उस समय हुई, जब वह ताशकंद समझौते के लिए रूस गये थे। पूर्व प्रधानमंत्री की पत्नी ललिता शास्त्री ने आरोप लगाया था कि उनके पति को जहर देकर मारा गया है
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इस देश की राजनीति केवल षड्यंत्रों , कत्लों , और खून खराबे कि है , 
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Gandhi Hatya Uchit Ya Anuchit
गाँधी हत्या उचित या अनुचित
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मूल्य9.95  
प्रकाशकराजपाल एंड सन्स
आईएसबीएन00000000
प्रकाशितमार्च ०२, २००५
पुस्तक क्रं:4418
मुखपृष्ठ:सजिल्द

सारांश:

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आज देश के हिन्दू को पता नहीं क्या हो गया है ? यह सम्पन्न है, बुद्धिमान है, धार्मिक भी है, किन्तु हिन्दू समाज के प्रति उदासीन है। हमारे देश में दो सम्प्रदाय ऐसे हैं, जिनकी हमारे कथिक नेता इस घिनौनी राजनीति के कारण राजनीति में स्थान पाने के लिए इन सम्प्रदायों की चटुकारी करते हैं। हिन्दुस्तान में आज तक के तथाकथित आजादी (बँटवारे) के 57 वर्ष भी देश को भाषा व आरक्षण के विवाद में इन राजनेताओं ने उलझा रक्खा है। इनमें भी कुछ ही व्यक्ति हैं, जो देश के प्रति जागरुक हैं।

यह सम्पन्न समाज मन्दिरों, धर्मशालाओं, विद्यालयों, तीर्थ स्थानों व धर्मार्थ औषधालयों व राजनैतिक दलों की आँख मींचकर व दिल खोलकर सहायता करता है। किन्तु आज जिस विचार धारा की आवश्यकता है, इसकी ओर इसका किंचित भी ध्यान नहीं है।

गांधी हत्या : उचित या अनुचित ?


मेरी दृष्टि में महात्मा गांधी जी जैसे महान पुरुष की सैद्धान्तिक मौत तो भारत के विभाजन के समय ही हो चुकी थी। अतः शारीरिक रूप से गोली मार कर हुतात्मा नाथूराम गोडसे ने उन्हें अमरता का पर्याय ही बनाया। महापुरुषों के जीवन में उनके सिद्धान्तों और आदर्शों की मौत ही वास्तव में मौत होती है। 14 अगस्त, 1946 में मुस्लिम लीग के गुण्डों को आह्वान और कलकत्ता में 6,000 हिन्दुओं का कल्तेआम पर गांधी की चुप्पी। जब लाखों माताओं, बहनों, के शील हरण तथा रक्तपात और विश्व की सबसे बड़ी त्रासदी द्विराष्ट्रवाद के सिद्धान्त के आधार पर पाकिस्तान का निर्माण हुआ, उस समय महात्मा गांधी के लिए हिन्दुस्तान की जनता में जबर्दस्त आक्रोश फैल चुका था। रही-सही कसर पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने के लिए महात्मा गांधी के अनशन ने पूरी कर दी।

वास्तव में सारा देश महात्मा गांधी का उस समय घोर विरोध कर रहा था और भगवान से उनकी मृत्यु की आराधना कर रहा था। लोगों की जुबान पर बूढ़ा सठिया गया है-भगवान् इसको जल्दी उठा लें, जैसे शब्द थे। कई सभाओं में तो उन पर अण्डे, प्याज और टमाटर आदि भी फेंके गये तथा उनका तिरस्कार एवं बहिष्कार लोगों ने अपनी-अपनी तरह करना शुरू कर दिया था। हिन्दुस्तान की जनता के दिलों में महात्मा गांधी के झूठे अहिंसावाद और नेतृत्व के प्रति घृणा पैदा हो चुकी थी। महात्मा गांधी प्रायः कहते थे-हिन्दू-मुस्लिम एकता के बिना स्वतंत्रता प्राप्ति का कोई महत्व नहीं है। एक बार तो उन्हें यह भी कहना पड़ा कि हिन्दू कायर और मुस्लिम पंगेबाज हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि मुस्लिमों को प्रसन्न करने के लिए रामायण में बेगम सीता, बादशाह राम और मौलवी वशिष्ठ जैसे नामों का भी सुझाव दिया गया। इसी अवधारणा से मुस्लिम तुष्टिकरण का जन्म भी हुआ जिसके मूल से ही पाकिस्तान का निर्माण हुआ है। 1946-47 में प्रायः प्रत्येक की जुबान पर एक ही बात थी कि महात्मा गांधी मुसलमानों के सामने घुटने टेक चुके हैं। महात्मा गांधी का कथन-‘‘उनकी लाश पर पाकिस्तान बनेगा’’, कोरा झूठ साबित हुआ।

यह सर्वविदित है कि खण्डित भारत का निर्माण महात्मा गांधी की लाश पर नहीं, अपितु 25 लाख हिन्दू सिखों की लाशों तथा असंख्य माताओं और बहनों के शीलहरण पर हुआ।
स्मरण रहे हमारे 62 जिले और 298 धर्मस्थल पाक-बांग्लादेश की इस्लामिक कैद में हैं और उन्हें मुक्त कराना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है। मेरा विश्वास है कि जब तक पाक-बांग्लादेश इस धरती पर रहेगा-न तो जेहादी इस्लामिक आतंकवाद समाप्त होगा और न ही हिन्दुस्तान में शान्ति। अतः ‘‘अखण्ड भारत’’ ही एकमात्र हल है। जयहिन्द !
125 करोड़ भारतीयों में है कोई माई का लाल ?

विचार अपने-अपने


-सतीश जैन पत्रकार
संकलन एवं सम्पादक


नाथूराम गोडसे क्या आतंकवादी था ? नाथूराम गोडसे क्या देशद्रोही था ? नाथूराम गोडसे क्या पेशेवर हत्यारा या अपराधी था ? नहीं नहीं नहीं-वह इनमें से कुछ भी नहीं था। नाथूराम गोडसे भी देश का एक सच्चा सिपाही था, देशभक्त था और गांधीजी का सम्मान करने वालों में भी अग्रणी पंक्ति में था।

समय बदला। जहाँ एक ओर गांधीजी पाकिस्तान को पचपन करोड़ रुपया देने के लिए हठ कर बैठे थे और अनशन पर बैठ गए थे, वहीं दूसरी ओर पाकिस्तानी सेना हिन्दू निर्वासितों को अनेक प्रकार की प्रताड़ना से शोषण कर रही थी, हिन्दुओं का जगह-जगह कत्लेआम कर रही थी, माँ और बहनों की अस्मतें लूटी जा रही थीं, बच्चों को जिन्दा जमीन में दबाया जा रहा था। जिस समय भारतीय सेना उस जगह पहुँचती, उसे मिलतीं जगह-जगह अस्मत लुटा चुकीं माँ-बहनें, टूटी पड़ी चूड़ियाँ चप्पलें और बच्चों के दबे होने की आवाजें। ऐसे में जब गांधी जी से अपनी हठ छोड़ने और अनशन तोड़ने की गुजारिश की जाती तो गांधी जी का सिर्फ एक ही जवाब होता-‘‘चाहे मेरी जान ही क्यों न चली जाए, लेकिन मैं न तो अपने कदम पीछे करूँगा और न ही अनशन समाप्त करूँगा। आखिर में नाथूराम गोडसे का मन जब पाकिस्तानी अत्याचारों से ज्यादा व्यथित हो उठा तो मजबूरन उन्हें हथियार उठाना पड़ा। नाथूराम गोड़से ने इससे पहले कभी हथियार को हाथ तक नहीं लगाया था।

परन्तु ‘‘मानस के जीते सपनों को जब आग लगाई जाती है-
बाँसुरी फेंक दी जाती है, तलवार उठाई जाती है।’’
जब भी किसी हत्यारे, देशद्रोही, आतंकवादी या अपराधी को फाँसी पर लटकाया जाता है तो उससे उसकी अन्तिम इच्छा जानकर उसे पूरा करने का प्रयास किया जाता है।
नाथूराम गोडसे ने तो अपनी अन्तिम इच्छा में सिर्फ यही माँगा था-‘‘हिन्तुस्तान की सभी नदियाँ अपवित्र हो चुकी हैं, अतः मेरी अस्थियों को पवित्र सिंधु नदी में प्रवाहित कराया जाए।’’ क्या नाथूराम गोडसे की अन्तिम इच्छा कभी पूरी नहीं होगी ?
125 करोड़ भारतीयों में-है कोई माई का लाल-जो 15 नवम्बर, 1949 से रखीं नाथूराम गोडसे की अस्थियों को पवित्र सिन्धु नदी में प्रवाहित करा सके।

है कोई धर्मनिरपेक्ष नेता, अभिनेता, बुद्धिजीवी पत्रकार, विश्वविख्यात प्रसिद्ध लेखक, न्यायाधीष, राजनेता, योद्धा, धर्माचार्य, संन्यासी, सूफी-सन्त, फकीर, मौलवी-मुल्ला जो नाथूराम गोडसे की अस्थियों को पवित्र सिंधु नदी में प्रवाहित करा सके ?
हो सकता है मुम्बई या दूसरे राज्यों में जो बार-बार आपदाएँ आ रही हैं, नाथूराम गोडसे की अस्थियों को उनकी अन्तिम इच्छा के अनुसार प्रवाहित करने पर इन आपदाओं से बचा जा सके।

प्रस्तुत पुस्तक में उन घटनाओं को दिखाने का प्रयास किया गया है, जब एक ओर गांधीजी पचपन करोड़ रुपये के लिए हठ करके अनशन पर बैठे हुए थे और पाकिस्तान अपनी सेनाओं को निर्वासितों का कत्लेआम, माँ-बहनों की अस्मतें लूटने और बच्चों को जिन्दा जमीन में दबाने में मशगूल था। जब भारतीय सेना उन जगहों पर पहुँचती तो उसे मिलता पाकिस्तानी सेना द्वारा किये गये कत्लेआम से बहता खून, जगह-जगह रोती-बिलखती और अपनी अस्मत लुटा चुकीं माँ-बहनें, साथ ही मिलतीं जमीन में जिन्दा दबाये गये बच्चों की आवाजें।

मेरा मकसद किसी भी भारतीय व्यक्ति-विशेष की भावनाओं को ठेस पहुँचाना नहीं, बल्कि उस असलियत को उजागर करना है, जिसे भारत की सभी सरकारें अनदेखा करती रही हैं।
जयहिन्द !

दिव्य संदेश


‘‘वास्तव में मेरे जीवन का उसी समय अन्त हो गया था जब मैंने गांधी जी पर गोली चलायी थी। उसके पश्चात् मैं मानो समाधि में हूँ और अनासक्त जीवन बिता रहा हूँ।

मैं मानता हूँ कि गांधी जी ने देश के लिए बहुत कष्ट उठाए। जिसके कारण मैं उनकी सेवा के प्रति एवं उनके प्रति नतमस्तक हूँ, लेकिन देश के इस सेवक को भी जनता को धोखा देकर मातृभूमि के विभाजन का अधिकार नहीं था।
मैं किसी प्रकार की दया नहीं चाहता हूँ। मैं यह भी नहीं चाहता हूँ कि मेरी ओर से कोई और दया की याचना करे।
अपने देश के प्रति भक्ति-भाव रखना यदि पाप है तो मैं स्वीकार करता हूँ कि वह पाप मैंने किया है। यदि वह पुण्य है तो उससे जनित पुण्य पर मेरा नम्र अधिकार है।

मेरा विश्वास अडिग है कि मेरा कार्य ‘नीति की दृष्टि’ से पूर्णतया उचित है। मुझे इस बात में लेशमात्र भी सन्देह नहीं कि भविष्य में किसी समय सच्चे इतिहासकार इतिहास लिखेंगे तो वे मेरे कार्य को उचित आँकेंगे।

-नाथूराम गोडसे


1
विभाजन के घाव


गांधीजी की हत्या के विषय की परिधि में अभी तक एक आयोग बिठाया गया था। सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति श्री कपूर की नियुक्ति इस कार्य के लिए हुई थी। क्या यह दुर्घटना टाली जा सकती थी और क्या शासकीय कर्मचारियों ने सुरक्षा की उपेक्षा की ? ऐसे विषय उस के सामने थे। उस विषय के अन्तर्गत तत्कालीन दिल्ली के वातावरण का चित्रण करना भी उन्हें आवश्यक प्रतीत हुआ साथ ही, गांधीजी के सम्बन्ध में लोकमत कैसा था, यह भी देखना उन्हें अनिवार्य लगा। कुछ ग्रन्थों के आधार पर और उनके सामने आये साथियों के विवरण से श्री कपूर ने उस विषय की चर्चा की है।

(कपूर आयोग प्रतिवृत्त भाग 1 पृष्ठ 133)


दिल्ली की परिस्थिति


पंजाब उच्च न्यायालय के एक और न्यायमूर्ति श्री जी.डी. खोसला ने एक पुस्तक लिखी है ‘‘The stern Reckoning’’ पुस्तक में हिन्दुस्तान का विभाजन, विभाजन तक हुई घटनाएँ और विभाजन के भयानक परिणामों से सम्बन्धित जो अध्याय हैं, उनका आधार श्री कपूर ने अपने प्रतिवृत्त में लिखा है। दिनांक 12 दिसम्बर, 1949 में डान वृत्तपत्र में जिन्ना ने कहा है कि यदि लोग स्वेच्छा से स्थानान्तर करना चाहें तो वैसा हो सकता है। वे लोकमत को टटोलना चाहते थे। जो प्रान्त पाकिस्तान में जाने वाले थे, वहां के हिन्दुओं की इसमें सहमति नहीं थी, किन्तु मुस्लिम लीग को यह स्थानान्तर योजना का कार्यान्वयन तुरन्त चाहिए था। क्योंकि उससे पाकिस्तान का विरोध करने वालों को उत्तर मिलने वाला था। पंजाब, वायव्य सरसीमा प्रान्त सिंध और बंगाल, इन प्रान्तों के हिन्दू अपने-अपने व्यवसाय, व्यापार-धन्धे छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। वे उद्योग उन्होंने वहाँ पीढ़ियों के परिश्रम से खड़े किये थे। जिन्ना की मन की लहर पर भिखमँगे होना या भटकने वाले बनना और निर्वासित बनना उन्हें मान्य न था।

दूसरी ओर उत्तर प्रदेश, बम्बई मद्रास बिहार, मध्यप्रदेश आदि प्रान्तों के मुसलमानों को भी अपना घरबार छोड़ कर जाना जँचता नहीं था। इस कठिनाई को हल करने के लिए मुस्लिम लीग को अन्य कोई मार्ग ढूँढना अनिवार्य हो गया। (छेदक 12 ए 1)

कलकत्ते का नरसंहार का प्रयोग भले ही पूरी यात्रा में फलित न हुआ हो, किन्तु उसका एक परिणाम अवश्य हुआ। उस हत्याकाण्ड से निर्मित आतंक ने हिन्दुओं को अपना घरबार छोड़ने को बाध्य किया। वह प्रयोग नोआख्याली और टिप्पेरा भाग में सफल हुआ। वहाँ के हिन्दुओं के मन में भय उत्पन्न करना, उनकी सम्पत्ति की लूटपाट करना, स्त्रियों पर अत्याचार करना और हिन्दुओं को सामूहिक रूप में भ्रष्ट कर मुसलमान बनाना उनके लिए सुलभ हुआ। यह मार्ग लोगों के स्थानान्तर की दृष्टि से लीग को अधिक उपयुक्त जँचा। बिहार में उसकी प्रतिक्रिया हुई थी। वहाँ के मुसलमानों को सिंध में जाना पड़ा था। लोगों के स्थानान्तर का प्रश्न दुबारा सन्मुख आया था। फिर छब्बीस नवम्बर, 1946 को जिन्ना ने ‘डान’ वृत्तपत्र में प्रकाशित करवाया कि स्थानान्तरण का प्रश्न तुरन्त हाथ में लिया जाए। पूरे हिन्दुस्तान में हिन्दुओं ने इसका विरोध किया, किन्तु मुस्ल़िम लीग ने उस मार्ग की पुनरावृत्ति की और ममदोत के नवाब जैसे पंजाब मुस्लिम नेता ने इस स्थानान्तरण कार्य को निपटाने की धमकी भी दी।

(छेदक 12 ए 2)

सर जिह्नान्स जेंकिन्स उन दिनों पंजाब के राज्यपाल थे। उन्होंने कहा कि ममदोत के नवाब के वक्तव्य का सीधा अर्थ है कि पंजाब के हिन्दुओं को पंजाब से छलपूर्वक निकालना, परन्तु मुस्लिम लीग के नेताओं ने उसका प्रतिरोध किया और कहा कि पंजाब की बहुसंख्यक जनता के भीतर इन अल्पसंख्यक हिन्दुओं का रहना असुरक्षित और भयप्रद है।

(छेदक 12 ए 3)


सर फिरोजखान नून ने धमकाया कि चंगेजखान और हलकुखान के किये हुए अत्याचार की पुनरावृत्ति होगी। नून भूल गए थे कि वे मुसलमान नहीं थे। जनवरी, 1947 में मुसलमानों ने अपना अत्याचारी आन्दोलन प्रारम्भ किया। उससे पंजाब के संयुक्त मंत्रिमण्डल का शासन समाप्त हुआ।

(छेदक 12 ए 4)


आरोप लगाया गया कि पंजाब के हिन्दू नेता और विशेषकर मास्टर तारा सिंह जी ने कड़े शब्दों में विरोध किया। वस्तुतः उन्होंने कड़े शब्दों का प्रयोग किया, इस बात का आधार तक न था। मुसलमान केवल बहाना ढूँढ़ते थे। रावलपिंडी में हुए हिन्दुओं के हत्याकाण्ड का वर्णन ‘रावलपिंडी का बलात्कार’ के नाम से जाना जाता है। अपनी प्राणरक्षा के कारण हिन्दुओं को छलबल के मारे मुसलमान धर्म स्वीकार करना पड़ा। हिन्दू और सिख स्त्रियों ने भारी संख्या में अग्नि में प्रवेश कर जोहर की प्रथा निभायी। उन्होंने कुओं में छलाँग लगाकर आत्म-बलिदान किया। अपनी बच्चियों को उन्होंने अपने आप मार डाला। अपनी लज्जा रक्षा का उनके पास केवल यही उपाय था।

(छेदक 12 ए 5)


गाड़ियाँ भर-भरकर निर्वासितों के दल हिन्दुस्तान आने लगे। उसका ब्यौरा भी हृदय विदीर्ण करने वाला है। वह भयाक्रान्त मानवता का बड़ा प्रवाह बह रहा था। डिब्बों में साँस लेने जितना भी स्थान न था। डिब्बों की छत पर बैठकर भी लोग आते थे। पश्चिमी पंजाब के मुसलमानों का आग्रह था कि लोगों का स्थानान्तरण होना चाहिए, परन्तु वह इतने सीधे, बिना किसी छह के हो, यह उन्हें नहीं भाता था। इन हिन्दुओं के जाते समय भयानकता, क्रूरता, पशुता अमानुषता, अवहेलना आदि भावों का अनुभव मिलना ही चाहिए, ऐसी उनकी सोच थी। उसी के अनुसार उनका व्यवहार था।

(छेदक 12 ए 9)



 
 

भगत सिंह Vs गांधी


आज़ादी के आंदोलन में भगत सिंह के समय में दो प्रमुख धाराएं थीं. एक महात्मा गांधी के नेतृत्व वाली धारा. जो ज़्यादा प्रभावशाली धाराथी. दूसरी क्रांतिकारियों की धारा थी जिसके एक प्रमुख नेता थे भगत सिंह. हालांकि इस का आधार उतना व्यापक नहीं था लेकिन वैचारिक रूप से क्रांतिकारी बहुत ताकतवर थे. गांधी शांतिपूर्वक नैतिकता की लड़ाई लड़ रहे थे जो अंग्रेज़ों के लिए काफ़ी अच्छा था क्योंकि इससे उनकी व्यवस्था पर बहुत ज़्यादा असर नहीं पड़ता था. भगत सिंह गांधी के इस आंदोलन को पैने तरीके से समझते थे और इसीलिए उन्होंने कहा था कि कांग्रेस का आंदोलन आख़िर में एक समझौते में तब्दील हो जाएगा. गांधी का रास्ता पूँजीवादी रास्ता था और भगत सिंह का रास्ता इससे बिल्कुल अलग क्रांतिकारी समाजवादी आंदोलन का रास्ता था. इतनी छोटी उम्र में भी भगत सिंह ने एक परिपक्व राजनीतिक समझ को सामने रखते हुए एक ज़मीन तैयार की जिससे और क्रांतिकारी पैदा हो सकें. गांधी ने भगत सिंह के असेंबली पर बम फ़ेंकने के क़दम को ''पागल युवकों का कृत्य'' करार दिया था. उधर भगत सिंह एक ही बात के लिए गांधी के सामर्थ्य को मानते थे और उनका आदर करते थे और वो बात थी गांधी की देश के अंतिम व्यक्ति तक पहुँच और प्रभाव. जब 23 वर्ष के भगत सिंह शहीद हुए, उस वक्त गांधी जी की उम्र 62 वर्ष थी पर लोकप्रियता के मामले में भगत सिंह कहीं से कम नहीं थे. पट्टाभि सीतारमैया जैसे कांग्रेस के इतिहासकारों ने कहा है कि एक समय भगत सिंह की लोकप्रियता किसी भी तरह से गांधी से कम नहीं थी. भगत सिंह के समर्थक देशभर और ब्रिटेन में भी थे. कई इतिहासकारों के मुताबिक गांधी कभी नहीं चाहते थे कि हिंसक क्रांतिकारी आंदोलन की ताकत बढ़े और भगत सिंह को इतनी लोकप्रियता मिले क्योंकि गांधी इस आंदोलन को रोक नहीं सकते थे, यह उनके वश में नहीं था. इस मामले में गांधी और ब्रिटिश हुकूमत के हित एक जैसे था. दोनों इस आंदोलन को प्रभावी नहीं होने देना चाहते थे. इस मामले में गांधी और इरविन के संवाद पर ध्यान देना होगा जो कि इतना नाटकीय है कि दोनों लगभग मिलजुलकर तय कर रहे हैं कि कौन कितना विरोध करेगा. दोनों इस बात पर सहमत थे कि इस प्रवृत्ति को बल नहीं मिलना चाहिए. गांधी ने अपने पत्र में इतना ही लिखा कि इनको फाँसी न दी जाए तो अच्छा है. इससे ज़्यादा ज़ोर उनकी फाँसी टलवाने के लिए गांधी ने नहीं दिया. गांधी की बजाय सुभाषचंद्र बोस इस फाँसी के सख़्त ख़िलाफ़ थे. गांधी ने बातचीत के दौरान इरविन से यह भी कहा था कि अगर इन युवकों की फाँसी माफ़ कर दी जाएगी तो इन्होंने मुझसे वादा किया है कि ये भविष्य में कभी हिंसा का रास्ता नहीं अपनाएंगे. गांधी के इस कथन का भगत सिंह ने पूरी तरह से खंडन किया था. असलियत तो यह है कि भगत सिंह हर हाल में फाँसी चढ़ना चाहते थे ताकि इससे प्रेरित होकर कई और क्रांतिकारी पैदा हों. उन्होंने देश के लिए प्राण तो दिए पर किसी तथाकथित अंधे राष्ट्रवादी के रूप में नहीं बल्कि इसी भावना से कि उनके फाँसी पर चढ़ने से आज़ादी की लड़ाई को लाभ मिलता. भगत सिंह की फाँसी जहाँ एक ओर गांधी और ब्रिटिश हुकूमत की नैतिक हार में तब्दील हुई वहीं यह भगत सिंह और क्रांतिकारी आंदोलन की नैतिक जीत भी बनी.

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