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10.3.12

आधुनिकता ने छीना कईयों का निवाला

शंकर जालान




कोलकाता। आधुनिकता ने जहां मनोरंजन के नए-नए साधन उपलब्ध कराए हैं। वहीं, बहुत से लोगों के मुंह से निवाला छीनने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है। टेलीविजन के अलावा कई तरह के मनोरंजन के साधन आ जाने से मदारी, सपेरे, बहुरुपिए समेत खिलौना बेच कर रोटी-रोटी कमाने वाले लोग भुखमरी की कगार पर पहुंच गए हैं। रही-सही कसर वन विभाग के कानून ने पूरी कर दी है। वन्य जीव कानून के तहत सांप, बंदर व भालू पकड़ने और उसका खेल दिखाने पर रोक लगने का बाद असंख्य सपेरे, मदारी व भालू का खेल दिखाने वाले लोग इन दिनों गर्दिश के दौर से गुजरते हुए भुखमरी की कगार पर हैं। दो-तीन दशक पहले जब सपेरे कंधे पर बांक और बांक के दोनों छोर पर रस्सी से बंधी टोकरी के साथ बीन बजाते हुए या डमरू बचाते हुए बंदर-भालू का खेल दिखाने वाला मदारी किसी गली मुहल्ले में प्रवेश करता था तो अनगिनत बच्चे एकत्रित हो जाते थे। बीन की तान पर सपेरे सांप का खेल हो या डमरू की डमडम पर बंदर अथवा भालू का खेल दिखाकर ये मदारी कुछ कमाई कर लेते थे और उसी पैसे से अपने व अपने परिवार के लोगों को पालन-पोषण करते थे। भूमंडलीकरण का दौर शुरू होने के बाद टेलीविजन ने घर-घर में कब्जा जमा लिया है। कार्टून व चटपटे कार्यक्रम देखने में व्यस्त बच्चे सांप, बंदर या भालू का खेल देखने में अब दिलचस्पी नहीं लेते। इसी कारण अब न तो पहले की तुलना में सपेरे और मदारी दिखाई देते हैं न बीन की तान या डमरू की आवाज ही सुनाई देती है और न सांप, बंदर या भालू का खेल कहीं दिखने को मिलता है।
मूल रूप से गुजरात के रहने वाले 48 साल के रसिक दास (सपेरे) ने बताया कि वे बीते 25 साल से महानगर कोलकाता में बीन बजा कर सांप का खेल दिखाते आ रहे हैं। उन्होंने बताया कि पहले दिन भर में 8-10 स्थानों पर खेल दिखा कर एक-डेढ़ सौ रुपए कमा लेते थे, उसमें 15-20रुपए सांप को दूध पीलाने में खर्च करने के बाद पत्नी समेत तीन बच्चों का गुजरा हो जाता था, लेकिन इन दिनों टेलीविजन और वन विभाग के नए कानून ने इनके लिए न सिर्फ मुसीबत खड़ी कर दी है, बल्कि मुंह से निवाला भी छीनने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। दास ने बताया कि उनके पिता रौनक दास ने उन्हें बीन बजाना और सांप का खेल दिखाना सिखाया था, लेकिन अब वह स्थिति नहीं कि मैं अपने बच्चों के हाथ में बीन पकड़वाने की सोचूं। उन्होंने बताया कि करीब दस साल पहले हम जैसे सपेरे ने मिलकर सांप और सपेरा एकता मंच का गठन किया था, लेकिन यह मंच हमारी आवाज को बुलंद करने में नाकामयाब रहा। इसके कारण का खुलासा करते हुए उन्होंने कहा-मंच के अधिकारी शिक्षा के अभाव में हमारी समस्याओं को सही तरीके से नहीं उठा पाते। लिहाजा हमारा खेल चौपट होता जा रहा है और हमारी हालत बदतर होती जा रही है।
32 वर्षीय चमनलाल (बंदर का खेल दिखाने वाले) ने बताया कि उनके पास प्रशिक्षित बंदर और बंदरी के तीन जोडों हैं। बावजूद इसके उन्हें सप्ताह में तीन दिन आधा पेट खाना खाकर सोना पड़ता है। उन्होंने बताया कि 16 वर्ष की उम्र से वे महानगर कोलकाता के वृहत्तर बड़ाबाजार में डमरू बजाकर बंदर-बंदरी का करतब दिखाते आ रहे हैं, लेकिन बीते पांच-छह सालों से ऐसा लगने लगा है कि अब तक मैंनं डमरू बजाकर बंदर को नचाया और दशर्कों ने ताली बजाई, लेकिन अब हालात मुझे नचा रहा है और समाज ताली बजा रहा है।
यही हाल भालू का खेल दिखाने वाले अशोक कुमार का है। 58 साल के अशोक कुमार भी कमोवेश बंदर का खेल दिखाने वाले चमनलाल सपेरे रसिक लाल की भाषा में ही बात करते हैं। यह पूछने पर कि पहली जैसी आमदनी न होने पर भी आप भालू लेकर गली-गली क्यों घूमते हैं? कोई दूसरा कारोबार क्यों नहीं करते? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि जब से होश संभाला है तब से भालू नचाकर बच्चों को खुशी प्रदान करते आ रहा है, अब जीवन के अंतिम पड़ाव में क्या धंधा बदलू।
वहीं, तरह-तरह का रूप धारण करने वाले बहुरुपिए और धूम-धूम कर बच्चे के खिलौना बेचने वाले लोग की रोजी-रोटी भी इन दिनों खतरे में है। स्वांग रचने वाले बहुरुपिए और खिलौना बेच परिवार का भरण-पोषण करने वाले लोग भी पुराने दिनों को याद करते हुए आंसू बहाते हुए नजर आते हैं। आधुनिक युग में बैलून, चरखी, बांसुरी, मुखौटे समेत विभिन्न तरह के बाजे व गुड़िया (पुतुल) जैसे पारंपरिक खिलौना की बिक्री लगभग बंद हो गई है।
शिव ठाकुर गली के रहने वाले 54 साल के रामप्रसाद दुबे ने बताया कि 30-32 सालों से बड़ाबाजार की गलियों में धूम-धूम कर खिलौना बेच रहे हैं। उन्होंने बताया कि 5-6 साल पहले तक दिनभर में 80-90 रुपए कमा लेते थे। अतीत के दिनों को याद करते हुए उन्होंने बताया कि वे जब बांसुरी बजाते हुए एक गली या मकान में प्रवेश करते थे तो अपनी-अपनी पसंद के खिलौना लेने के लिए बच्चों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। कोई 50 पैसे की सीटी से खुश होता था तो कोई पांच रुपए की बांसुरी से । कोई बच्ची अपने अभिभावक से गुड़िया खरीदकर देने की जिद करती थी तो कोई बच्चा बैलून खरीदने को कहता था। कुल मिलाकर दिनभर में परिवार का पेट भरने लायक कमाई हो जाती थी। उन्होंने बताया कि बैटरी चालित खिलौने के अलावा टेलीविजन पर आने वाले कार्टून शो ने बच्चों का ध्यान हमारी तरफ से लगभग हटा दिया है। और तो और बड़ी-बड़ी मल्टीस्टोरेज बिल्डिंगों में खड़े गार्ड उन्हें मकानों में प्रवेश नहीं करने देते, इसलिए उन्हें ग्राहकों के इंतजार में सकड़ के किनारे खड़ा रहना पड़ता है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आधुनिक युग ने जहां हमें सुख-सुविधा मुहैया कराई है वहीं, समाज के एक वर्ग को दाने-दाने के लिए मोहताज कर दिया है।

1 comment:

Shalini kaushik said...

sahi kah rahe hain aap .aaj aadhunikta ne hamari zindgi ko tahas nahas karke rakh diya hai.