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19.6.21

कोरोना वैक्सीन की एक डोज़ बनाने में कितना खर्च आता होगा?

Vishwa Deepak-
 
केला गणतंत्र या समाजवाद -- क्या चाहिए?

फार्मा सेक्टर में काम करने वाले एक मित्र से मैंने पूछा कि कोरोना वैक्सीन की एक डोज़ बनाने में अनुमानत: कितना खर्च आता होगा. उन्होंने कहा कि सब मिलाकर यानि स्टाफ की सैलरी, बिजली, मशीन और ट्रांसपोर्ट का 10-15 रुपये. इससे ज्यादा नहीं. इसे बढ़ाकर अगर डबल कर दें तो भी 30 रुपये से ज्यादा नहीं होगा.


सीरम इंस्टीट्यूट जैसी कंपनियां केन्द्र सरकार को एक डोज़, 150 रुपये में बेच रही हैं. इसमें भी कम मुनाफा नहीं. लेकिन इस देश में चल रहे सिस्टमेटिक लूट और शोषण का हाल देखिए कि प्राइवेट अस्पताल जानकारी के मुताबिक 400-600 रुपये प्रति डोज़ के हिसाब से खरीदते हैं फिर आपको 1000-1200 में बेचते हैं. सरकारी अस्तपतालों में वैक्सीन नहीं मिलती लेकिन मैक्स, अपोलो जैसे पांच सितारा अस्पतालों में उपलब्ध रहती है. क्यों ? जबकि विकसित देशों में वैक्सीन की कीमत भारत से भी कम है.

यही है बनाना रिपब्लिक उर्फ केला गणतंत्र. जनता के टैक्स के पैसे से जेएनयू चलता है इसलिए जेएनयू को बंद कर देना चाहिए -- यह तर्क तिहाड़ी संपादक सुधीर चौधरी और फ्रॉड देशभक्त अरनब गोस्वामी ने खूब उछाला था. वैक्सीन का पैसा झूठ के सौदागर क्या अपनी जेब से दे रहे या नाज़ीवादी पुरखों की विरासत बेंचकर भर रहे ?  

यह अश्लील मुनाफाखोरी सरकार की जानकारी और सहयोग के साथ इसीलिए चल रही है क्योंकि इसका एक हिस्सा चुनाव के वक्त चंदे के रूप में उनको वापस मिल जाएगा. हमको, आपको क्या मिलेगा ?

समाजवाद इसीलिए ज़रूरी है ताकि जनता का पैसा, जनता के लिए खर्च हो.  अगर स्वास्थ्य सेवाओं का राष्ट्रीयकरण नहीं किया गया तो हमको, आपको गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे. पूनावाला जैसों का क्या वो तो भाग ही जाएंगे.


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