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23.6.21

तीसरा मोर्चा : क्या वाम मोर्चा का इतिहास दोहराएंगी ममता बनर्जी?

CHARAN SINGH RAJPUT-

एनसीपी नेता शरद पवार के दिल्ली स्थित आवास पर विपक्ष के नेताओं की बैठक हो रही है। राजनीतिज्ञ पंडित इसे तीसरा मोर्चा तैयार करने की रणनीति के रूप में देख रहे हैं। भले ही प्रशांत किशोर इस कवायद में लगे हों पर पर यह प्रयास पं. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का माना जा रहा है। अगले साल उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और गुजरात में होने वाले विधानसभा से ठीक पहले ममता बनर्जी का तीसरे मोर्चा बनाने का प्रयास क्या गुल खिलाएगा यह तो समय बताएगा पर इस कवायद से अलग-थलग पड़े विपक्ष को मजबूती जरूर मिल सकती है। देश की राजनीति की यह भी जमीनी हकीकत है जब भी राष्ट्रीय स्तर पर तीसरे मोर्चा की कवायद शुरू हुई पं. बंगाल की सत्तारूढ़ पार्टी इसकी सूत्रधार रही। गैरकांग्रेसवाद का आधार मानकर वाम मोर्चा ने  ने एक बार नहीं दो बार तीसरे मोर्चा की सरकार बनवाई है। वह बात दूसरी है कि जो वाम मोर्चा गैर कांग्रेसवाद का आधार लेकर चल रहा था वही वाम मोर्चा बाद में कांग्रेस से सट गया और सरकार भी बनवाई। इस बार ममता तीसरे मोर्चा के गठन में ममता बनर्जी का आधार गैर भाजपावाद है।


ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या आज की तारीख में देश में वी.पी. सिंह, देवीलाल, चंद्रशेखर, मुलायम सिंह यादव, देवगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल, हरकिशन सिंह सुरजीत जैसा मझा हुआ नेतृत्व है ? ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल को छोड़ दें तो पूरा का पूरा विपक्ष डर की राजनीति कर रहा है। इन्हीं शरद पवार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ कसीदे पढ़कर कर कई बार विपक्ष को कमजोर किया है। पीके बढिय़ा मैनेजर हो सकते हैं पर उन्हें परिपक्व राजनीतिज्ञ तो नहीं माना जा सकता है। देश के सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव का पूरा ध्यान अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव पर हैं। वैसे भी वह विपक्ष की भूमिका निभाने में विफल साबित हो रहे हैं। मायावती भाजपा के साथ खड़ी दिखाई दे रही हैं।

दरअसल, बंगाल चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने जिस तरह से नियम कानून को ताक पर रखकर ममता बनर्जी के खिलाफ मोर्चा खोला है उससे ममता बनर्जी भगवा पार्टी को सबक सिखाने की ठान ली है। ममता की नजर अब तीन साल बाद होने वाले लोकसभा चुनाव पर है। उन्हें पता है कि वह राष्ट्रीय स्तर पर वह अकेले दम पर भाजपा को टक्कर देने में सक्षम नहीं हैं। इसके लिए उन्हें गैर-भाजपा दलों का एक मोर्चा तैयार करना होगा।
तीसरे मोर्चा के गठन में सोचने की बात यह भी है कि राष्ट्रीय स्तर पर देश में मोदी सरकार से यदि कोई पार्टी मोर्चा ले रही है वह कांग्रेस ही है। हां यह बात दूसरी है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस की हालत मजबूत नहीं बल्कि और कमजोर हुई है। पंजाब, राजस्थान, केरल, कर्नाटक और असम में पार्टी गुटबाजी का शिकार है। कांग्रेस पंजाब में कैप्टन अमरिंदर-नवजोत सिंह सिद्धू, राजस्थान में अशोक गहलोत-सचिन पायलट के बीच आपसी टकराव पार्टी को लगातार कमजोर कर रहा है। कांग्रेस नेतृत्व परिवर्तन की मांग के साथ ही कई आंतरिक समस्याओं से जूझ रहा  है। इन सबके बावजूद आज की तारीख में कांग्रेस के अस्तित्व को दरकिनार नहीं किया जा सकता है। उत्तर प्रदेश में योगी सरकार को प्रियंका गांधी तो राष्ट्रीय स्तर पर   मोदी सरका को राहुल गांधी लगातार घेर रहे हैं।  

दरअसल तीसरे मोर्चा का खेल वाम मोर्चा द्वारा खेला जाता रहा है। देश में दो बार तीसरे मोर्चा की सरकार बनी दोनों बार वाममोर्चा ने बिना शर्त समर्थन दिया। 1989 में तो वीपी सिंह  सरकार को तो वाम मोर्चा ने भाजपा के साथ ही समर्थन दिया था। हालांकि 1996 आते-आते वाममोर्चा के सैद्धांतिक आधार में बदलाव आया और उसने गैर कांग्रेसवाद के साथ सांप्रदायिकता विरोध का भी रास्ता अख्तियार कर लिया था और पहले देवगौड़ा और बाद में इंद्रकुमार गुजराल की सरकारों को समर्थन दिया। इतना ही नहीं, वाममोर्चा अपने सैद्धांतिक आधार को यहां तक ले आया कि उसने गैर कांग्रेसवाद के नाम पर एकत्रित हुए गैर भाजपा और गैर कांग्रेसी दलों की सरकार को कांग्रेस से समर्थन भी दिलवा दिया। तब वाममोर्चे की तरफ से सीपीएम के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत उस नई राजनीतिक सैद्धांतिकी के बड़े पैरोकार थे। लेकिन बाद में उनका झुकाव कांग्रेस की तरफ होने लगा था। हालांकि 1995 की चंडीगढ़ कांग्रेस (वाममोर्चे में पार्टी के सालाना जलसे को कांग्रेस कहा जाता है) में तब के सीपीएम के प्रमुख सांसद सैफुद्दीन चौधरी ने कांग्रेस विरोध की बजाय कांग्रेस समर्थन की राजनीति अख्तियार करने की वकालत की थी। तब सीपीएम में उनकी राय का इतना विरोध हुआ कि अगले ही साल के आम चुनावों में सीपीएम ने उनका टिकट काट दिया।

वह बात दूसरी है कि 1999 आते-आते हरकिशनसिंह सुरजीत  खुद कांग्रेस की ही सरकार बनवाने के लिए इतने उतावले नजर आने लगे कि उनकी ही पार्टी के अंदर बाबा नागार्जुन की कविता की पंक्तियां- 'आओ रानी ढोएं हम तुम्हारी पालकीÓ को व्यंग्य में गाया-सुनाया जाने लगा। यह वह दौर था, जब जयललिता की समर्थन वापसी के बाद वाजपेयी सरकार एक वोट से गिर गई थी। तब सोनिया गांधी ने सरकार बनाने का दावा पेश किया था। हां वह बात और है कि सुरजीत के तमाम साथ के बावजूद बहुमत के समर्थन का वह ठोस दावा पेश नहीं कर पाई थीं।

2004 आते-आते वाममोर्चे ने सांप्रदायिकता विरोध के नाम पर कांग्रेसवाद को बढ़ावा देने की ठानी और 2008 की जुलाई तक संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार भी चलाई। लेकिन अमेरिका से परमाणु समझौता क्या हुआ, सीपीएम के नए महासचिव प्रकाश करात को कांग्रेसवाद ही नहीं पचा और मनमोहन की सरकार गिराने की कोशिश की गई। तब उत्तर भारत में सांप्रदायिकता विरोध के सबसे बड़े हीरो के तौर पर सीपीएम ने जिस मुलायमसिंह यादव को स्थापित किया था उन्होंने ही सीपीएम को गच्चा दे दिया और मनमोहन सरकार को बचा लिया। तब भी पी.के. की तरह ही मुलायम सिंह के मैनेजर अमर सिंह ने अहम भूमिका निभाई थी।

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