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31.10.09

भ्रष्टाचार का अचार

सभी भाईयों को सूचित किया जाता है कि भ्रष्टाचार का अचार बहुत ही स्वाद होता है .इसे बहुत ही बड़े -बड़े लोग विशेष रूचि से खाते हैं और जब कोई इनकी नक़ल करके इस अचार को खाता है तो इनको पसीना आता है .हमारे यहाँ दो चार निगरानी करने वाले विभाग हैं जो इस अचार को खाने वाले आम सरकारी आदमी को पकड़ कर अपनी कार्यकुशलता का दिखावा करतें हैं और आज तक किसी भी बड़े अधिकारी या नेता को भारत के इतिहास में ये विभाग पकड़ नहीं पाए.अपने भाषणों में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उच्चतम न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश बहुत गहरी चिंता जताते हैं कि आजकल लोग इस अचार का बहुत ही ज्यादा खाने लगे हैं यहाँ तक कि न्यायलय भी इसकी चपेट में आ चुके हैं कोई पूछने वाला हो इनसे कि भाषणों में रोना रोने की बजाये जब आपके हाथ में सरकार है तो कुछ करते क्यों नहीं? चाहे कोई भी सरकार हो अगर नेक नीयत से काम करे तो कुछ भी असंभव नहीं है .

पत्रकारों की स्थिति

पत्रकारों की स्थिति महिलाओ की तरह है ,जिसका इस्तेमाल तो किया जाता है पर उसके काम का उचित मुआवजा नहीं दिया जाता, न ही सम्मान और पहचान .

लो क सं घ र्ष !: कहीं सी आई ऐ के नौकर तो नही हैं ?

अपने देश में अंग्रेज व्यापारी बनकर आए थे और यहाँ के लोगों को लालच देकर उपहार देकर, घूष देकर देश के ऊपर कब्जा कर लिया थाउन्ही नीतियों से सबक लेकर अमेरिकन साम्राज्यवाद एशिया के मुल्को को गुलाम बनाने के लिए कार्य कर रहा हैअफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई के भाई अहमद वली करजई को सी आई पिछले आठ सालों से वेतन दे रही है और अमेरिका की कठपुतली सरकार अफगानिस्तान में हैइसके पूर्व इराक़ में भी अमेरिकन साम्राज्यवादी लोग पत्रकारों, टेक्नोक्रेट्स , नौकरशाहो , न्यायविदों को रुपया देकर अपनी तरफ़ मिला कर इराक़ पर कब्जा किया था और ताजा समाचारों के अनुसार पाकिस्तान में अमेरिकन खुफिया एजेन्सी सी आई पैसा बाँट रही है और अपनी तरफ़ लोगों को कर रही हैपाकिस्तान में उसकी कठपुतली सरकार तो है लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था द्वारा चुनी गई सरकार है अमेरिकन साम्राज्यवाद जनता द्वारा चुनी गई सरकारों की मुख्य दुश्मन हैमुंबई आतंकी घटना के बाद अमेरिकी खुफिया एजेन्सी एफ बी आई और इजराइल की खुफिया एजेन्सी मोसाद अपने देश में कार्य कर रही हैनिश्चित रूप से सी आई अपना कोई भी हथकंडा छोड़ने वाली नही है और अपने हितों के लिए इस देश के बुद्धजीवी तबको में से कुछ स्वार्थी तत्वों को रुपया लालच देकर कार्य करने के लिए प्रेरित कर सकती हैइस लिए आवश्यक यह है की इनकी गतिविधियों पर सख्त निगाह रखी जाए इनके हथकंडो से सावधान रहने की जरूरत हैक्योंकि यह लोग सी आई के लोग प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से लोगों को खरीद कर अपनी कठपुतली सरकारें बनाए का कार्य करती है


सुमन
loksangharsha.blogspot.com

जिन्दगी मोहताज नहीं मंजिलों की

जिन्दगी मोहताज नहीं मंजिलों की, वक्त हर मंजिल दिखा देता है, कुछ बिगड़ता नहीं किसी से बिछुड़कर, क्योंकि वक्त सबको जीना सिखा देता है.

धन्यवाद

भड़ास ब्लॉग पर मुझे स्थान देने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद..............

पसर गया सन्नाटा

---- चुटकी-----

जब से
ख़त्म हुआ है
कनस्तर में आटा,
तब से
पसरा हुआ है
घर में सन्नाटा।

राजनितिक षडयंत्र तो नही जयपुर अग्निकांड?

जयपुर शहर के शीतापुर ओधोगिकक क्षेत्र के इंडियन आयल के डिपो मैं गुरुवार के शाम भड़की आग कहीं राजनितिक षडयंत्र तो नही? मोके पर जो प्रूफ़ मिले हैं उसके अनुसार ये भी अनुमान लगाया जा रहा है की हो सकता है राजनीतिक षडयंत्र के चलते घटना को अंजाम दिया गया हो।

श्रीमती इंदि‍रा गांधी की हत्‍या के दि‍न सदमे में था जेएनयू

ऐसा गम मैंने नहीं देखा बौद्धि‍कों के चेहरे गम और दहशत में डूबे हुए थे। चारों ओर बेचैनी थी । कैसे हुआ,कौन लोग थे, जि‍न्‍होंने प्रधानमंत्री स्‍व.श्रीमती इंदि‍रा गांधी की हत्‍या की। हत्‍या क्‍यों की। क्‍या खबर है।क्‍या कर रहे हो इत्‍यादि‍ सवालों को लगातार जेएनयू के छात्र -शि‍क्षक और कर्मचारी छात्रसंघ के दफतर में आकर पूछ रहे थे। मैंने तीन -चार दि‍न पहले ही छात्रसंघ अध्‍यक्ष का पद संभाला था,अभी हम लोग सही तरीके से यूनि‍यन का दफतर भी ठीक नहीं कर पाए थे। चुनाव की थकान दूर करने में सभी छात्र व्‍यस्‍त थे कि‍ अचानक 31 अक्‍टूबर 1984 को सुबह 11 बजे के करीब खबर आई प्रधानमंत्री श्रीमती इंदि‍रा गांधी की हत्‍या कर दी गयी है। सारे कैंपस का वातावरण गमगीन हो गया ।लोग परेशान थे। मैं समझ नहीं पा रहा था क्‍या करूँ ? उसी रात को पेरि‍यार होस्‍टल में शोकसभा हुई जि‍समें हजारों छात्रों और शि‍क्षकों ने शि‍रकत की और सभी ने शोक व्‍यक्‍त कि‍या। श्रीमती गांधी की हत्‍या के तुरंत बाद ही अफवाहों का बाजार गर्म हो गया। कि‍सी ने अफवाह उडा दी कि‍ यूनि‍यनवाले मि‍ठाई बांट रहे थे। जबकि‍ सच यह नहीं था। छात्रसंघ की तरफ से हमने शोक वार्ता और हत्‍या की निंदा का बयान जारी कर दि‍या था। इसके बावजूद अफवाहें शांत होने का नाम नहीं ले रही थीं। चारों ओर छात्र-छात्राओं को सतर्क कर दि‍या गया और कैम्‍पस में चौकसी बढा दी गयी।
कैंपस में दुष्‍ट तत्‍व भी थे। वे हमेशा तनाव और असुरक्षा के वातावरण में झंझट पैदा करने और राजनीति‍क बदला लेने की फि‍राक में रहते थे। खैर ,छात्रों की चौकसी, राजनीति‍क मुस्‍तैदी और दूरदर्शि‍ता ने कैम्‍पस को संभावि‍त संकट से बचा लि‍या।
दि‍ल्‍ली शहर और देश के वि‍भि‍न्‍न इलाकों में हत्‍यारे गि‍रोहों ने सि‍खों की संपत्‍ति‍ और जानोमाल पर हमले शुरू कर दि‍ए थे। ये हमले इतने भयावह थे कि‍ आज उनके बारे में जब भी सोचता हूँ तो रोंगटे खडे हो जाते हैं। श्रीमती गांधी की हत्‍या के बाद हत्‍यारे गि‍रोहों का नेतृत्‍व कौन लोग कर रहे थे, आज इसे दि‍ल्‍ली का बच्‍चा बच्‍चा जानता है। इनमें कुछ लोग अभी जिंदा हैं‍ और कुछ लोग मर चुके हैं। यहां कि‍सी भी दल और नेता का नाम लेना जरूरी नहीं है।कई हजार सि‍ख औरतें वि‍धवा बना दी गयीं। हजारों सि‍खों को घरों में घुसकर कत्‍ल कि‍या गया।कई हजार घर जला दि‍ए गए। घर जलाने वाले कौन थे , कैसे आए थे, इसके वि‍वरण और ब्‍यौरे आज भी कि‍सी भी पीडि‍त के मुँह से दि‍ल्‍ली के जनसंहार पीडि‍त इलाके में जाकर सुन सकते हैं। अनेक पीडि‍त अभी भी जिंदा हैं।
श्रीमती गांधी की हत्‍या और सि‍ख जनसंहार ने सारे देश को स्‍तब्‍ध कर दि‍या।इस हत्‍याकांड ने देश में साम्‍प्रदायि‍कता की लहर पैदा की। जि‍स दि‍न हत्‍या हुई उसी दि‍न रात को जेएनयू में छात्रसंघ की शोकसभा थी और उसमें सभी छात्रसंगठनों के प्रति‍नि‍धि‍यों के अलावा सैंकड़ो छात्रों और अनेक शि‍क्षकों ने भी भाग लि‍या था। सभी संगठनों के लोगों ने श्रीमती गांधी की हत्‍या की तीखे शब्‍दों में निंदा की और सबकी एक ही राय थी कि‍ हमें जेएनयू कैंपस में कोई दुर्घटना नहीं होने देनी है। कैंपस में चौकसी बढा दी गयी।
देश के वि‍भि‍न्‍न इलाकों में सि‍खों के ऊपर हमले हो रहे थे,उनकी घर,दुकान संपत्‍ति‍ आदि‍ को नष्‍ट कि‍या जा रहा था। पास के मुनीरका,आरकेपुरम आदि‍ इलाकों में भी आगजनी और लूटपाट की घटनाएं हो रही थीं। दूर के जनकपुरी,मंगोलपुरी,साउथ एक्‍सटेंशन आदि‍ में हिंसाचार जारी था। सि‍खों के घर जलाए जा रहे थे।सि‍खों को जिंदा जलाया जा रहा था। ट्रकों में पेट्रोल,डीजल आदि‍ लेकर हथि‍यारबंद गि‍रोह हमले करते घूम रहे थे।हत्‍यारे गि‍रोहों ने कई बार जेएनयू में भी प्रवेश करने की कोशि‍श की लेकि‍न छात्रों ने उन्‍हें घुसने नहीं दि‍या। जेएनयू से दो कि‍लोमीटर की दूरी पर ही हरि‍कि‍शनसिंह पब्‍लि‍क स्‍कूल में सि‍ख कर्मचारि‍यों और शि‍क्षकों की तरफ से अचानक संदेश मि‍ला कि‍ जान खतरे में है कि‍सी तरह बचा लो। आर. के .पुरम से कि‍सी सरदार परि‍वार का एक शि‍क्षक के यहां फोन आया हत्‍यारे गि‍रोह स्‍कूल में आग लगा रहे हैं। उन्‍होंने सारे स्‍कूल को जला दि‍या था। अनेक सि‍ख परि‍वार बाथरूम और पायखाने में बंद पडे थे। ये सभी स्‍कूल के कर्मी थे, शि‍क्षक थे। शि‍क्षक के यहां से संदेश मेरे पास आया कि‍ कुछ करो। सारे कैंपस में कहीं पर कोई हथि‍यार नहीं था। वि‍चारों की जंग लडने वाले हथि‍यारों के हमलों के सामने नि‍हत्‍थे थे। देर रात एक बजे वि‍चार आया सोशल साइंस की नयी बि‍ल्‍डिंग के पास कोई इमारत बन रही थी वहां पर जो लोहे के सरि‍या पडे थे वे मंगाए गए और जेएनयू में चौतरफा लोहे की छड़ों के सहारे नि‍गरानी और चौकसी का काम शुरू हुआ। कि‍सी तरह दो तीन मोटर साइकि‍ल और शि‍क्षकों की दो कारें जुगाड करके हरकि‍शन पब्‍लि‍क स्‍कूल में पायखाने में बंद पडे लोगों को जान जोखि‍म में डालकर कैंपस लाया गया,इस आपरेशन को कैंपस में छुपाकर कि‍या गया था क्‍योंकि‍ कैंपस में भी शरारती तत्‍व थे जो इस मौके पर हमला कर सकते थे। सतलज होस्‍टल,जि‍समें मैं रहता था ,उसके कॉमन रूम में इनलोगों को पहली रात टि‍काया गया। बाद में सभी परि‍वारों को अलग अलग शि‍क्षकों के घरों पर टि‍काया गया। यह सारी परेशानी चल ही रही थी कि‍ मुझे याद आया जेएनयू में उस समय एक सरदार रजि‍स्‍ट्रार था। डर था कोई शरारती तत्‍व उस पर हमला न कर दे। प्रो अगवानी उस समय रेक्‍टर थे और कैंपस में सबसे अलोकव्रि‍य व्‍यक्‍ति‍ थे। उनके लि‍ए भी खतरा था। मेरा डर सही साबि‍त हुआ। मैं जब रजि‍स्‍ट्रार के घर गया तो मेरा सि‍र शर्म से झुक गया। रजि‍स्‍ट्रार साहब डर के मारे अपने बाल कटा चुके थे । जि‍ससे कोई उन्‍हें सि‍ख न समझे।उस समय देश में जगह-जगह सैंकडों सि‍खों ने जान बचाने के लि‍ए अपने बाल कटवा लि‍ए थे। जि‍ससे उन पर हमले न हों। डाउन कैंपस में एक छोटी दुकान थी जि‍से एक सरदार चलाता था, चि‍न्‍ता हुई कहीं उस दुकान पर तो हमला नहीं कर दि‍या। जाकर देखा तो होश उड गए शरारती लोगों ने सरदार की दुकान में लाग लगा दी थी। मैंने रजि‍स्‍ट्रार साहब से कहा आपने बाल कटाकर अच्‍छा नहीं कि‍या आप चि‍न्‍ता न करें, हम सब हैं। यही बात प्रो. अगवानी से भी जाकर कही तो उन्‍ाके मन में भरोसा पैदा हुआ। कैंपस में सारे छात्र परेशान थे,उनके पास दि‍ल्‍ली के वि‍भि‍न्‍न इलाकों से खबरें आ रही थीं, और जि‍सके पास जो भी नई खबर आती, हम तुरंत कोई न कोई रास्‍ता नि‍कालने में जुट जाते।
याद आ रहा है जि‍स समय आरकेपुरम में सि‍ख परि‍वारों के घरों में चुन-चुनकर आग लगाई जा रही थी उसी समय दो लड़के जेएनयू से घटनास्‍थल पर मोटर साइकि‍ल से भेजे गए, हमने ठीक कि‍या था और कुछ न हो सके तो कम से कम पानी की बाल्‍टी से आग बुझाने का काम करो। यह जोखि‍म का काम था। आरकेपुरम में जि‍न घरों में आग लगाई गयी थी वहां पानी की बाल्‍टी का जमकर इस्‍तेमाल कि‍या गया।हत्‍यारे गि‍रोह आग लगा रहे थे जेएनयू के छात्र पीछे से जाकर आग बुझा रहे थे। पुलि‍स का दूर-दूर तक कहीं पता नहीं था।
कैंपस में चौकसी और मीटिंगें चल रही थीं। आसपास के इलाकों में जेएनयू के बहादुर छात्र अपनी पहलीकदमी पर आग बुझाने का काम कर रहे थे। सारा कैंपस इस आयोजन में शामि‍ल था। श्रीमती गांधी का अंति‍म संस्‍कार होते ही उसके बाद वाले दि‍न हमने दि‍ल्‍ली में शांति‍मार्च नि‍कालने का फैसला लि‍या। मैंने दि‍ल्‍ली के पुलि‍स अधि‍कारि‍यों से प्रदर्शन के लि‍ए अनुमति‍ मांगी उन्‍होंने अनुमति‍ नहीं दी। हमने प्रदर्शन में जेएनयू के शि‍क्षक और कर्मचारी सभी को बुलाया था । जेएनयू के अब तक के इति‍हास का यह सबसे बड़ा शांति‍मार्च था। इसमें जेएनयू के सारे कर्मचारी,छात्र और सैंकडों शि‍क्षक शामि‍ल हुए। ऐसे शि‍क्षकों ने इस मार्च में हि‍स्‍सा लि‍या था जि‍न्‍होंने अपने जीवन में कभी कि‍सी भी जुलूस में हि‍स्‍सा नहीं लि‍या था, मुझे अच्‍छी तरह याद है वि‍ज्ञान के सबसे बडे वि‍द्वान् शि‍वतोष मुखर्जी अपनी पत्‍नी के साथ जुलूस में आए थे,वे दोनों पर्यावरणवि‍ज्ञान स्‍कूल में प्रोफेसर थे,वे कलकत्‍ता वि‍श्‍ववि‍द्यालय के संस्‍थापक आशुतोष मुखर्जी के करीबी परि‍वारी थे। जुलूस में तकरीबन सात हजार लोग कैंपस से नि‍कले थे,बगैर पुलि‍स की अनुमति‍ के हमने शांति‍ जुलूस नि‍काला ,मैंने शि‍क्षक संघ के अध्‍यक्ष कुरैशी साहब को झूठ कह दि‍या कि‍ प्रदर्शन की अनुमति‍ ले ली है। मैं जानता था अवैध जुलूस में जेएनयू के शि‍क्षक शामि‍ल नहीं होंगे। मेरा झूठ पकडा गया पुलि‍स के बडे अधि‍कारि‍यों ने आरकेपुरम सैक्‍टर 1 पर जुलूस रोक दि‍या और कहा आपके पास प्रदर्शन की अनुमति‍ नहीं है।आपको गि‍रफतार करते हैं। मैंने पुलि‍स ऑफीसर को कहा तुम जानते नहीं हो इस जुलूस में बहुत बडे बडे़ लोग हैं वे तुम्‍हारी वर्दी उतरवा देंगे। उनके गांधी परि‍वार से गहरे रि‍श्‍ते हैं। अफसर डर गया बोला मैं आपको छोडूँगा नहीं मैंने कहा जुलूस खत्‍म हो जाए तब पकडकर ले जाना मुझे आपत्‍ति‍ नहीं है। इस तरह आरकेपुरम से पुलि‍स का दल-बल हमारे साथ चलने लगा और यह जुलूस जि‍स इलाके से गुजरा वहां के बाशिंदे सैंकडों की तादाद में शामि‍ल होते चले गए । जुलूस में शामि‍ल लोगों के सीने पर काले बि‍ल्‍ले लगे थे, शांति‍ के पोस्‍टर हाथ में थे। उस जुलूस का देश के सभी माध्‍यमों के अलावा दुनि‍या के सभी माध्‍यमों में व्‍यापक कवरेज आया था। यह देश का पहला वि‍शाल शांति‍मार्च था। जुलूस जब कैंपस में लौट आया तो अपना समापन भाषण देने के बाद मैंने सबको बताया कि‍ यह जुलूस हमने पुलि‍स की अनुमति‍ के बि‍ना नि‍काला था और ये पुलि‍स वाले मुझे पकडकर ले जाना चाहते हैं। वहां मौजूद सभी लोगों ने प्रति‍वाद में कहा था छात्रसंघ अध्‍यक्ष को पकडोगे तो हम सबको गि‍रफतार करना होगा। अंत में पुलि‍सबल मुझे गि‍रफतार कि‍ए बि‍ना चला गया। मामला इससे और भी आगे बढ गया। लोगों ने सि‍ख जनसंहार से पीडि‍त परि‍वारों की शरणार्थी शि‍वि‍रों में जाकर सहायता करने का प्रस्‍ताव दि‍या। इसके बाद जेएनयू के सभी लोग शहर से सहायता राशि‍ जुटाने के काम में जुट गए। प्रति‍दि‍न सैंकडों छात्र-छात्राओं की टोलि‍यां कैंपस से बाहर जाकर घर-घर सामग्री संकलन के लि‍ए जाती थीं और लाखों रूपयों का सामान एकत्रि‍त करके लाती थीं।यह सामान पीडि‍तों के कैम्‍प में बांटा गया। सहायता कार्य के लि‍ए शरणार्थी कैम्प भी चुन लि‍या गया। बाद में पीडि‍त परि‍वारों के घर जाकर जेएनयू छात्रसंघ और शि‍क्षक संघ के लोगों ने सहायता सामग्री के रूप में घरेलू काम के सभी बर्तनों से लेकर बि‍स्‍तर और पन्‍द्रह दि‍नों का राशन प्रत्‍येक घर में पहुँचाया। इस कार्य में हमारी दि‍ल्‍ली वि‍श्‍ववि‍द्यालय के शि‍क्षकों ने खास तौर पर मदद की। मैं भूल नहीं सकता दि‍ल्‍ली वि‍श्‍ववि‍द्यालय के प्रो.जहूर सि‍द्दीकी साहब की सक्रि‍यता को। उस समय हम सब नहीं जानते थे कि‍ क्‍या कर रहे हैं, सभी भेद भुलाकर सि‍खों की सेवा और साम्‍प्रदायि‍क सदभाव का जो कार्य जेएनयू के छात्रों -श्‍ि‍क्षकों और कर्मचारि‍यों ने कि‍या था वह हि‍न्‍दुस्‍तान के छात्र आंदोलन की अवि‍स्‍मरणीय घटना है। यह काम चल ही रहा था कि‍ पश्‍चि‍म बंगाल के सातों वि‍श्‍ववि‍द्यालयों के छात्रसंघों के द्वारा इकट्ठा की गई सहायता राशि‍ लेकर तत्‍कालीन सांसद नेपालदेव भट्टाचार्य मेरे पास पहुँचे कि‍ यह बंगाल की मददराशि‍ है। कि‍सी तरह इसे पीडि‍त परि‍वारों तक पहुँचा दो। वि‍पत्‍ति‍ की उस घड़ी में पश्‍चि‍म बंगाल के छात्र सबसे पहले आगे आए। हमने उस राशि‍ के जरि‍ए जरूरी सामान और राशन खरीदकर पीडि‍त परि‍वारों तक पहुँचाया। इसका हमें सुपरि‍णाम भी मि‍ला अचानक जेएनयू के छात्रों को धन्‍यवाद देने प्रसि‍द्ध सि‍ख संत और अकालीदल के प्रधान संत स्‍व.हरचंद सिंह लोंगोवाल,हि‍न्‍दी के प्रसि‍द्ध लेखक सरदार महीप सिंह और राज्‍यपाल सुरजीत सिंह बरनाला के साथ जेएनयू कैम्‍पस आए। संत लोंगोवाल ने झेलम लॉन में सार्वजनि‍क सभा को सम्‍बोधि‍त कि‍या था, उन्‍होंने कहा अकालीदल की राष्‍ट्रीय कार्यकारि‍णी ने जेएनयू समुदाय खासकर छात्रों को सि‍ख जनसंहार के समय साम्‍प्रदायि‍क सदभाव और पीडि‍त सि‍ख परि‍वारों की मदद करने,सि‍खों की जान बचाने के लि‍ए धन्‍यवाद भेजा है। सि‍ख जनसंहार की घडी में सि‍खों की जानोमाल की रक्षा में आपने जो भूमि‍का अदा की है उसके लि‍ए हम आपके ऋणी हैं।सि‍खों की मदद करने के लि‍ए उन्‍होंने जेएनयू समुदाय का धन्‍यवाद कि‍या। हमारे सबके लि‍ए संत लोंगोवाल का आना सबसे बड़ा पुरस्‍कार था। सारे छात्र उनके भाषण से प्रभावि‍त थे।
(लेखक उस समय जेएनयू छात्रसंघ का अध्‍यक्ष था)

30.10.09

लो क सं घ र्ष !: बुदबुदाते, खदबदाते, भरे बैठे लोगों को व्यंग्य वार्ता का आमंत्रण

लो क सं घ र्ष !: बुदबुदाते, खदबदाते, भरे बैठे लोगों को व्यंग्य वार्ता का आमंत्रण

आग के वो धमाके और खामोश निगाहे ................



आग के वो धमाके और खामोश निगाहे ................

शेखर kumawat

आग के वो धमाके और खामोश निगाहे ................



आग के वो धमाके और खामोश निगाहे ................

शेखर kumawat

लो क सं घ र्ष !: नोबुल पुरस्कार विजेता नए अर्थशास्त्री ? पुराने ख्यालात की री पैकेजिंग

योरप केंद्रित बुद्धि फिर एक बार उजागर हुई जब स्वेडिस साइंस अकादमी ने अमेरिकी अर्थशास्त्री ऑलिवर विलियम्सन और एलिनर आस्त्राम को इस वर्ष के नोबेल पुरस्कार से नवाजा । सामूहिक संपत्ति और अर्थ प्रबंधन के क्षेत्र में तथाकथित नए सिद्धांत का आविष्कार के लिए इन दोनों अर्थ शास्त्रियो को नोबेल पुरस्कार दिया गया है। यह वैसा ही आविष्कार है, जैसा किसी समय किताब में छापकर स्कूली बच्चों को पढाया जाता था की कोलाम्बस और वास्को डी गामा ने भारत की खोज की, जबकि कोलंबस और वास्को डी गामा के पैदा होने के हजारो वर्ष पहले भी भारत अस्तित्व में था। योरप केंद्रित बुद्धि का यह एक नमूना है की जिस दिन योरापियों को भारत का रास्ता मालूम हुआ उसी दिन को वे भारत का आविष्कार मानते है।

सर्विदित है की नेपाल में तुलसी मेहर और भारत में गाँधी जी ने विकेन्द्रित स्वावलंबी ग्रामीण अर्थव्यवस्था का समेकित सिद्धांत विकसित किया । इसका उन्होंने कई क्षेत्रो में सफल प्रयोग भी किया। इस साल जब गाँधी जी की मशहूर पुस्तक हिंद स्वराज के प्रकाशन के सौ वर्ष पूरे होने की स्वर्ण जयंती मनाई जा रही है, तब स्वेडिस साइंस अकादमी को दो अमेरिकी अर्थशास्त्री के हवाले से पता चलता है की भारत और नेपाल में सामूहिक संपत्ति का सामूहिक नियमन किस प्रकार किया जा रहा है । तुलसी मेहर ने, जिन्हें 'नेपाल का गाँधी' कहा जाता था और स्वयं गाँधी जी ने सरकार और कारपोरेट से विलग ग्रामवासियों के अभिक्रम जगाकर स्थानीय श्रोत्रो पर आधारित समग्र विकास का वैकल्पिक विकेन्द्रित स्वावलंबी ग्राम व्यवस्था का तंत्र विकसित किया था। अखिल भारतीय चरखा संघ इसका उदाहरण था, जिसका नेटवर्क पूरे देश में फैला । बाद में विनोबाजी ने इस व्यवस्था का प्रयोग 'ग्रामदान' आन्दोलन के मध्यम से किया। डेढ़ सौ साल पहले काल मार्क्स ने मूल प्रस्थापना पेश की की उत्पादक शक्तियों का स्वामित्व समाज में निहित होना चाहिए । मार्क्स उत्पादन की शक्तियों पर समाज का सामाजिक स्वामित्व स्वाभाविक मानते थे, क्योंकि पूरा समाज इसका परिचालन करता है सम्पूर्ण समाज के लिए। राष्ट्रीयकरण सामाजिक स्वामित्व का स्थान नही ले सकता। राष्ट्रीयकरण को स्टेट काप्लेलिज्म कहा जाता है। क्म्मयुनिज़म में राज्य सत्ता सूख जाती है, फलत: सरकार का कोई स्थान नही होता है। साम्यवादी अवस्था में उत्पादन और वितरण व्यवस्था की भूमिका समाज का स्थानीय तंत्र निभाएगा।

भारत के प्रत्येक ग्राम में सामूहिक इस्तेमाल के लिए 'गैर मजरुआ आम' जमींन है, जिसका सामूहिक उपयोग गाँव की सामूहिक राय से होती है। राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे के मुताबिक भारत की कुल भगौलिक क्षेत्र का 15 प्रतिशत ऐसी ही सामूहिक संपत्ति है, जिसका सामूहिक उपयोग चारागाह , तालाब, सिंचाई और जलावन की लकड़ी इकठ्ठा करने के लिए किया जाता है। यह बात अलग है कि सरकारी नीतियों के चलते ऐसी सामूहिक संपत्ति का नियंत्रण या तो सरकार ने स्वयं अधिग्रहण कर लिया है या सरकारी हलके में उसका प्रबंधन इधर किसी निजी कंपनी/संस्थान के हवाले करने की सरकारी प्रवित्ति बलवती हो गई है।
नेपाल के कतिपय गाँवों की सिंचाई व्यवस्था मछली पालन, चारागाह, तालाब प्रबंधन देखकर आस्त्राम ने सिद्धांत निकला की "सामूहिक संपत्ति का प्रबंधन इस संपत्ति के उपभोक्ताओं के संगठनों द्वारा किया जा सकता है।" उसी तरह ऑलिवर विलियम्सन निष्कर्ष निकला है कि विवादों के समाधान के लिए मुक्ति बाजार व्यवस्था से ज्यादा सक्षम संगठित कंपनियाँ होती हैं । विलियमन कहते है की मुक्त बाजार में झगडे और असहमतियां होती हैं। असहमति होने पर उपभोक्ता बाजार में उपलब्ध अन्य वैकल्पिक उत्पादों की तरफ़ मुद जातें हैं , किंतु मोनोपाली मार्केट की स्तिथि में खरीदार के समक्ष कोई विकल्प नही रहता । ऐसी स्तिथि में संगठित ट्रेडिंग फर्म्स स्वयं विवाद का संधान करने में सक्षम होती हैं। इस प्रकार विलियम्सन मुक्त बाजार को नियमित करने के लिए कंपनियों की भूमिका रेखांकित करते हैं । कंपनियाँ आपसी सहमति का तंत्र विकसित कर बाजार के विरोधाभाषों पर काबू पा सकते हैं । यहाँ यह ध्यान देने की बात है की आस्त्राम और विलियम्सन दोनों ही सरकारी हस्तचेप और सरकारी नियमन की भूमिका नकारते हैं और वे मुक्त बाजार व्यवस्था के विरोधाभासों के समाधान के लिए पूर्णतया निजी ट्रेडिंग कंपनियों के विवेक पर निर्भर हो जाते हैं।

लोकतंत्र में आम लोगों की निर्णायक भूमिका होती है वे अपनी मर्जी की सरकार चुनते हैं । ऐसी स्तिथि में बाजार को विनियमित कमाने के लिए सरकार की भूमिका के अहमियत है। लोकतंत्र में सरकारी नियमन लोक भावना की सहज अभिवयक्ति है। किंतु इसे स्वीकार करने में दोनों अर्थशास्त्रियों को परहेज है। जाहिर है, स्वेडिस साइंस अकादमी मूल रूप में शोषण पर आधारित निजी व्यापार की आजादी का पक्षधर है और मुक्त बाजार व्यवस्था में सरकारी हस्तक्षेप का विरोधी है। इसलिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त दोनों ही अर्थशास्त्रियों की तथाकथित 'नई खोज' पूँजी बाजार समर्थक पुराने ख्यालात की री पैकेजिंग है।

सत्य नारायण ठाकुर

सुमन
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शारीरिक व मानसिक चुनौतियों से जूझ रहे लोगों पर अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम


संभव २००९

शारीरिक व मानसिक चुनौतियों से जूझ रहे लोगों पर अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम

शारीरिक व मानसिक चुनौतियां झेल रहे बच्चों व उन के लिए काम कर रही संस्थाओं व लोगों के लिए नवंबर 2009 की 14 व 15 तारीखें खास हैं। सालों से ऐसे लोगों के बीच काम कर रही संस्था ‘‘अल्पना‘‘ ‘एसोसिएशन फार लर्निंग परफार्मिंग आटर्स एंड नारमेटिव एक्शन‘ ने ‘संभव 2009‘ के तहत 14 व 15 नवंबर को पूरे दिन अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार व सांस्कृतिक कार्यक्रमों की झड़ी लगा दी है. विस्तृत कार्यक्रम यों है

14 व 15 नवंबर २००९
स्थानः मेन आडिटोरियम, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, मैक्स मुलर मार्ग, नई दिल्ली-३
समयः प्रातः ९.३० से प्रतिदिन
मुख्य अतिथिः श्री जयराम रमेश (केंद्रिय राज्य मंत्री, वन एवं पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार।)
प्रतिभागी देशः भारत, अफगानिस्तान, नेपाल, भुटान, बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका, कम्बोडिया,
मलेशिया,
थाईलैंड, मोरिशस, नाइजीरिया।

अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक संध्या

14 नवंबर

स्थान: फिक्की आडिटोरियम, तानसेन मार्ग, नई दिल्ली - २
समयः सांय ६.00 बजे से।
प्रतिभागी देश: भारत ( अल्पना- नार्थ इंडियन ग्रुप, नार्थ ईस्ट इंडिया ग्रुप, ईस्ट इंडिया ग्रुप),
अफगानिस्तान, म्यांमार, नेपाल, थाइलैंड, बांग्लादेश।
मुख्य अतिथिः श्री मुकुल वासनिक, केंद्रिय मंत्री, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता।

15 नवंबर

स्थान: स्टेन आडिटोरियम, हैबिटेट सेंटर, लोदी एस्टेट्स, नई दिल्ली-३
समयः सांय ६ .00 बजे से.
प्रतिभागी देश: भारत (अल्पना- नार्थ इंडिया ग्रुप, वेस्ट इंडिया ग्रुप, साउथ इंडिया ग्रुप), नाइजीरिया,
मारिशस, भूटान , श्रीलंका, मलेशिया।
मुख्य अतिथिः श्रीमती गुरशरण कौर (प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की धर्मपत्नी, चर्चित समाजसेवी।)
विशिष्ट अतिथिः श्रीमती निरूपमा राव (विदेश सचिव, भारत सरकार)
अध्यक्षताः श्री शेवांग फुनसांग (चैयरमैन, पब्लिक इंटरप्राइजेज सलेक्शन बोर्ड.)

ताजा मीडि‍या सर्वे: ऑनलाइन के खेल में अखबार की सत्‍ता बरकरार


मीडि‍या के नए अनुसंधान अमरीकी मीडि‍या के अनेक मि‍थों को तोडते हैं। मीडि‍या खबरों का स्‍तर गि‍रा है। अधूरी,अपूर्ण, वि‍भ्रमपूर्ण खबरें प्रकाशि‍त होती है। वि‍गत बीस सालों में समाचारों का स्‍तर तेजी से गि‍रा है। यह नि‍ष्‍कर्ष है 'पेव रि‍सर्च सेंटर' के ताजा सर्वे का। 'पेव रि‍सर्च सेंटर' (PewResearchCente) ने 1,506 लोगों के साक्षात्‍कारों के आधार पर यह सर्वे तैयार कि‍या है। 63 प्रति‍शत लोगों का मानना है समाचारपत्रों में प्रकाशि‍त समाचार लेख अधूरे होते हैं। मात्र 29 प्रति‍शत लोगों का मानना था कि‍ मीडि‍या ''सीधे तथ्‍यों'' को संप्रेषि‍त करता है। सामाजि‍क -राजनीति‍क सवालों पर मीडि‍या घराने एक ही कि‍स्‍म के नजरि‍ए का पक्ष लेते हैं,ऐसा 74 प्रति‍शत लोगों का मानना था। कुछ लोगों का मानना था ताकतवर लोगों के हि‍तों का भी मीडि‍या पर प्रभाव देखा गया है। सन् 2007 के बाद के दो सालों में 'पेव' के पि‍छले सर्वे के नि‍ष्‍कर्ष और भी नकारात्‍मक दि‍शा में गए हैं। उल्‍लेखनीय है सन् 2002 से यह संस्‍थान सर्वे प्रकाशि‍त करता रहा है और इसके सर्वे महत्‍वपूर्ण और प्रामाणि‍क माने जाते हैं। सर्वे के अनुसार अमरीकी मीडि‍या दलीय पक्षधरता के आधार पर पूरी तरह बंटा हुआ है।

सर्वे के अनुसार आज भी 96 प्रति‍शत से ज्‍यादा लोग मुद्रि‍त अखबार के जरि‍ए ही खबरें पढते हैं। तकरीबन 3 प्रति‍शत से ज्‍यादा लोग ऑन लाइन अखबार पढते हैं। प्रसि‍द्ध मीडि‍या सर्वे कंपनी 'नेल्‍सन' के अनुसार सन् 2008 में दैनि‍क अखबारों को ऑन लाइन पढने वालों की संख्‍या प्रति‍ माह 3.2 वि‍लि‍यन पन्‍ने थी। अमेरि‍की दैनि‍क अखबारों के द्वारा प्रति‍माह ऑनलाइन और मुद्रि‍त रूप में 90.3 वि‍लि‍यन पन्‍ने प्रकाशि‍त कि‍ए जाते हैं। ऑन लाइन पढने वालों का इसमें हि‍स्‍सा मात्र 3.5 प्रति‍शत बनता है। यानी बाकी 96.5 प्रति‍शत पन्‍ने प्रिंट में पढे जाते हैं।

वेब पर अखबार पढने वालों ने औसतन कि‍तना समय गुजारा ,इसका भी बड़ा रोचक आंकड़ा है। 'नेल्‍सन' के अनुसार नेट का आदर्श यूजर 45 मि‍नट प्रति‍माह खर्च करता है।सन् 2008 में 67.3 मि‍लि‍यन यूजरों ने नेट का सफर कि‍या।इसमें अखबार की वेबसाइट पर यूजरों ने 3.03 वि‍लि‍यन मि‍नट प्रति‍माह खर्च कि‍ए। इसकी तुलना में मुद्रि‍त अखबार को पढने पर 96.5 वि‍लि‍यन मि‍नट प्रति‍माह पाठकों ने खर्च कि‍ए। इसमें सोम से शनि‍ तक 25 मि‍नट और रवि‍वार को 35 मि‍नट खर्च कि‍ए। समग्रता में देखें तो प्रेस ने पाठक का ध्‍यान अपनी ओर खींचने के लि‍ए पाठकों के प्रति‍माह 99.5 वि‍लि‍यन मि‍नट लि‍ए,इसकी तुलना में ऑनलाइन अखबार ने मात्र 3 प्रति‍शत ही ध्‍यानाकर्षित कि‍या।

इंटरनेट को हमें स्रोत के रूप में नहीं संसाधन के रूप में देखना चाहि‍ए। संसाधन के रूप में देखेंगे तो ऑनलाइन सामग्री का सही समझ के साथ इस्‍तेमाल कर पाएंगे। नेट की वि‍शेषता है कि‍ वह हमारा पाठकीय व्‍यवहार और आदतें नष्‍ट कर देता है। पाठक की पुरानी आदतें हैं। इन्‍हें नष्‍ट करने में नेट की बडी भूमि‍का है। नेट ने पाठक के समूचे व्‍यवहार को बदला है।

यह मि‍थ है कि‍ अखबार स्‍थानीय खबरों और नजरि‍ए का एकमात्र स्रोत है। नेट ने इस मि‍थ को नष्‍ट कर दि‍या है। आप अनेक बार अखबार में जो खबर देखते हैं उससे भि‍न्‍न खबर ऑन अखबार में देखते हैं। ऑनलाइन अखबार में प्रति‍क्षण अपडेटिंग होती है ,नयी खबरें आती रहती हैं।फलत: जि‍स समय अखबार पढते हैं उसी समय ऑनलाइन अखबार में अन्‍य खबरें लगी होती हैं। आपको ऑनलाइन खबर के सामने मुद्रि‍त खबर बासी नजर आने लगती है। यह मि‍थ भी टूटता है कि‍ अखबार ही स्‍थानीय खबर का स्रोत है।

दूसरी बात यह कि‍ ऑनलाइन अखबारों में वि‍भि‍न्‍न कि‍स्‍म की सूचनाएं,वि‍भि‍न्‍न कि‍स्‍म के नजरि‍ए एक ही साथ देखने को मि‍लते हैं। नए वि‍चार और नये की खोज के मामले में नेट आज भी सबसे प्रभावशाली माध्‍यम है। अखबार के जमाने में यह धारणा थी कि‍ अखबार का लेखक ज्‍यादा सूचना सम्‍पन्‍न और ज्ञान सम्‍पन्‍न होता है। लेकि‍न ऑन लाइन अखबार आने के बाद लेखक या संपादकीयकर्मी की तुलना में पाठक ज्‍यादा सूचना सम्‍पन्‍न हो गया है। आज ऑनलाइन यूजर के पास ज्‍यादा जानकारि‍यां और वैवि‍ध्‍यपूर्ण नजरि‍या होता है।इस अर्थमें ऑनलाइन रीडिंग ने पाठक की महत्‍ता,सत्‍ता और क्षमता बढा दी है।

'पेव' के सर्वे के अनुसार नेट के जरि‍ए समाचार पाने वाले 40 प्रति‍शत लोग हैं। जबकि‍ परंपरागत माध्‍यमों प्रेस,टीवी बगैरह से खबर प्राप्‍त करने वालों की संख्‍या 46 प्रति‍शत है। सर्वे के अनुसार नेट के पाठक ज्‍यादा शि‍क्षि‍त और संपन्‍न हैं इसकी तुलना में परंपरागत मीडि‍या से खबर प्राप्‍त करने वाले कम संपन्‍न और कम शि‍क्षि‍त हैं।

इंटरनेट पर खास वि‍षय केन्‍द्रि‍त खबरों को पढने और उन्‍हें वर्गीकृत करके यूजरों को संप्रेषि‍त करने का रि‍वाज चल नि‍कला है। 'नेल्‍सन' के सन् 2008 के सर्वे के अनुसार इस तरह की 30 वेबसाइट का जब सर्वे कि‍या गया तो पाया कि‍ इन वेबसाइट पर प्रति‍ व्‍यक्‍ति‍ 21.2 बार आया। इनका 2,709,000 यूजरों ने इस्‍तेमाल कि‍या।

ऑनलाइन यूजर की अखबार के पाठक से भि‍न्‍न प्रकृति‍ के कारण ऑनलाइन अखबार की वेबसाइट पर आपको वीडि‍यो,ऑडि‍यो,फोटो,भाषण और जाने ऐसी कि‍तनी ही सामग्री मि‍लेगी जो मुद्रि‍त अखबार में नहीं होती। अखबार में पाठकों की राय के लि‍ए सीमि‍त जगह होती है,अनेक अखबारों में वह भी नहीं होती, लेकि‍न ऑनलाइन अखबार की खबरों के अलावा प्रत्‍येक संपादकीय और लेख पर भी राय व्‍यक्‍त करने के लि‍ए स्‍थान उपलब्‍ध रहता है। इससे पाठक की शि‍रकत को बढावा मि‍ला है। मुद्रि‍त अखबार की तुलना में ऑन लाइन अखबार के साथ पाठक ज्‍यादा संपर्क और संवाद करता है। पाठ और अखबार का इतना प्रबल इंटरेक्‍टि‍व संबंध पहले कभी नहीं था। अखबार की तुलना में ऑनलाइन अखबार में ज्‍यादा आलोचनात्‍मक टि‍प्‍पणि‍यां रहती हैं।

प्रेस में प्रकाशि‍त खबरों के पतन को सि‍र्फ एक ही तथ्‍य से अच्‍छी तरह से समझा जा सकता है कि‍ जब सारी दुनि‍या में आर्थि‍क मंदी की तबाही मच रही थी, अमेरि‍का के समूचे व्‍यापार,उद्योग धंधे को मंदी चौपट कर रही थी उस समय अमेरि‍की मीडि‍या युद्ध के कवरेज में व्‍यस्‍त था। मंदी और बढती बेकारी में संवाददाताओं के सामने गंभीर संकट था प्रमाण का। वे कैसे लि‍खें और कि‍न प्रमाणों के आधार पर लि‍खें कि‍ मंदी तबाही मचा रही है और कि‍न-कि‍न क्षेत्रों को बर्बाद कर रही है। वे यह बताने में भी असमर्थ् रहे कि‍ मंदी और युद्ध के कारण कैसे सामान्‍य नागरि‍क अधि‍कारों का व्‍यापक पैमाने पर हनन हो रहा था। बहुराष्‍ट्रीय कारपोरेट मीडि‍या की जि‍तनी दि‍लचस्‍पी युद्ध के कवरेज में थी वैसी दि‍लचस्‍पी मंदी और नागरि‍क अधि‍कारों के हनन के मामलों में नहीं थी। हाल ही में ओबामा के स्‍वास्‍थ्‍य सुधारों का मीडि‍या ने अंध समर्थन कि‍या है। इस चक्‍कर में मीडि‍या को आम जनता की स्‍वास्‍थ्‍य तबाही नजर ही नहीं आयी।

मीडि‍या के द्वारा जि‍न स्रोतों के जरि‍ए खबरें दी जाती हैं उनकी भी दशा सोचनीय है। आमतौर पर पुरूषों के स्रोत के आधार पर खबरें तैयार की जाती हैं। प्रकाशि‍त खबरों में 85 प्रति‍शत खबरें पुरूष स्रोत के हवाले से लि‍खी गयीं। इनमें 92 प्रति‍शत गोरे थे। यही स्‍थि‍ति‍ भारत की भी है,यहां पर अधि‍कांश खबरों के स्रोत पुरूष हैं और हि‍न्‍दू हैं। और अधि‍कतर खबरें पार्टीजान स्रोत से लि‍खी जाती हैं। हमें भारत के संदर्भ में यह भी देखना चाहि‍ए कि‍तनी खबरें खाते-पीते, खुशहाल लोगों के स्रोत के आधार पर लि‍खी गयीं और कि‍तनी गरीबों के स्रोत के आधार पर लि‍खी गयीं ? अमेरि‍की मीडि‍या में शांति‍ और युद्ध,स्‍वतंत्रता,सामजि‍क न्‍याय, सार्वजनि‍क स्‍वास्‍थ्‍य,समृद्धि‍, और पृथ्‍वी का भवि‍ष्‍य जैसे सवालों के लि‍ए कोई जगह ही नहीं होती। यह तथ्‍य रेखांकि‍त कि‍या है वि‍श्‍ववि‍ख्‍यात 'फेयर' नामक मीडि‍या अनुसंधान संस्‍था ने।

जयपुरः भयावह आग में झुलसे हुए लोगों की तस्वीरें...


जयपुर में भीषण



जयपुरः भयावह आग में झुलसे हुए लोगों की तस्वीरें...



पता नही अब उन लोगो पर क्या बीत रही होगी जो इस आग से लड़ रहे हें ???????

बस ये आग बुज जाएँ बस ||||||||||||||


शेखर कुमावत

29.10.09

गुंडागर्दी का परमिट

गोरखपुर विश्वविद्यालय में इन दिनों कुछ लोगो को खुले आम गुंडागर्दी करने का परमिट मिल गया है ,वो लोग सरेआम स्टुडेंट को न सिर्फ़ पीट रहे है बल्कि कान पकड़कर उठक बैठक करवा रहे है , स्टुडेंट बेचारे चुप है क्योकि इन गुंडों का वे कुछ नही बिगाड़ सक्ते । कौन है ये गुंडे और क्यो कर रहे है गुंडागर्दी जानाने के लिये http://www.uplivenews.ब्लागस्पाट.com/ क्लिक करे


अमेरिका का सांस्कृतिक आतंकवाद

एक मार्क्सवादी विचारक ने कहा है कि '' संकट यदि आर्थिक संकट है या सत्ता का संकट है तो सत्ताए उसे भी सांस्कृतिक संकट में बदल देती है। '' अमेरिका के बजट का चौथा हिस्सा कल्चरल इकोनोमी का है । अमेरिकी कहते है कि अब हम किसी मुल्क में तोप लेकर नही घुसते है । हम अब सिर्फ़ अपनी संस्कृति ले जाते है , भाषा ले जाते है । और उस पर भारतीय मीडिया , पाश्चात्य सांस्कृतिक उद्योग को संभावना में बदल रहा है । भारत की सारी संभावनाए सिर के बल खड़ी है । भारतीय अख़बारों में अमेरिका की खबरें मुख्य पृष्ट पर छपनी शुरू हो चुकी है । इंतजार कीजिए ,शीघ्र ही अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव की खबरें ऐसी छपेंगी जैसे आप को ही वोट देने जाना है । यह अनौपचारिक साम्राज्यवाद का सबसे धूर्त और खतरनाक उदाहरण है । आपने सैनिकों की खंदकें देखी होंगी , उनकी पोशाकें देखी होंगी । उनकी पोशाकें फूल से मिलती है , पत्तों से मिलती है , मिटटी में वे बैठे रहते हैं , कभी कभी पेडो की पत्तियां भी खोस लेते है । क्या यह एक सैनिक का प्रकृति प्रेमी हो जाना है । बिल्कुल नहीं , इसका एक मात्र मकसद यह है कि दुश्मन उसे देख न सके और वह दुश्मन को लाश में तब्दील कर दे । अमेरिका का सांस्कृतिक आतंकवाद भी ठीक इसी प्रकार का है । कुछ ही समय में केवल दो भाषा होगी , एक मातृभाषा और एक इंग्लिश भाषा ।
मीडिया ने समाज को बाँटने का कार्य किया है । जो मीडिया विचार बेचने का कार्य करता था अब वह बस्तु बेंचने का कार्य करता है । केवल सी .एन.ई.बी. न्यूज़ और एन.डी.टी.वी. समाचार बेंचते है । बाकि सब क्या बेचते है मालूम नही !

मेरा ब्लॉग है - annapurnaabhi.blogspot.com

राजीव चौक स्टेशन








ये किसी मेले का दृश्य नहीं है बल्कि दिल्ली मेट्रो के राजीव चौक स्टेशन का नजारा है. दिल्ली मेट्रो दिल्ली के लोगों और ट्राफिक के लिए एक बहुत ही अच्छा कदम थी. पर लोगों की भीड़ देखकर लगता है अब दिल्ली सरकार को मेट्रो के लिए भी आप्शन खोजने होंगे...

आपका इन्तेजार कर रहा हूँ अपने ब्लॉग "कुछ बात" और "खामोशी..." पर. जरूरत है आपके मार्गदर्शन की....

वि‍श्‍व ब्‍लॉग सर्वे : ब्‍लॉगिंग से स्‍तब्‍ध हैं सत्‍ताधारी

ब्‍लॉगिंग का परंपरागत मीडि‍या के साथ कोई बैर नहीं है। सच यह है कि परंपरागत मीडि‍या में काम करने वाले अधि‍कांश पत्रकारों के ब्‍लॉग हैं। हिंदी में एक खास बात यह है कि‍ नये युवा लेखक ब्‍लॉग बना कर लि‍ख रहे हैं। नये पेशेवर लोग लि‍ख रहे हैं। हिंदी में जो अभी कम लि‍ख रहे हैं, वे हैं हिंदी के कॉलेज, वि‍श्‍ववि‍द्यालयों में पढ़ाने वाले शिक्षक। लेकि‍न जो शि‍क्षक नहीं हैं, लेकि‍न युवा हैं, लि‍खने का मन है, वि‍भि‍न्‍न वि‍षयों पर अच्‍छी तैयारी है, ऐसे नये लेखक हज़ारों की तादाद में लि‍ख रहे हैं। ऐसे लेखकों की संख्‍या को चि‍ट्ठाजगत पर ब्‍लॉगरों की बढ़ती हुई सूची देख कर सहज ही समझा जा सकता है। तकरीबन 11 हज़ार ब्‍लॉग लेखक हैं, जो प्रति‍दि‍न सैकड़ों लेख लि‍ख रहे हैं। इनमें अच्‍छा कौन लि‍ख रहा है, बुरा कौन लि‍ख रहा है – पढ़ने वाला सहज ही अंदाज़ा लगा लेता है।

ब्‍लॉग पाठक को कि‍सी बि‍चौलि‍ये की ज़रूरत नहीं है। उसे कि‍सी आलोचक की भी ज़रूरत नहीं है, जो यह बताये कि कौन लेखक है और कौन लेखक नहीं है। इस अर्थ में ब्‍लॉगिंग ने बिचौलिये आलोचक की मौत की घोषणा कर दी है। हिंदी के ब्‍लॉगरों का अधि‍कांश लेखकवर्ग उनमें से आता है, जो कि‍सी भी मीडि‍या में काम नहीं करते। ब्‍लॉगरों में एक हि‍स्‍सा उनका भी है, जो परंपरागत मीडि‍या में काम करते हैं। जैसे प्रेस, रेडि‍यो, टीवी, अध्‍यापक, साहि‍त्‍यकार आदि‍। इनसे ही ब्‍लॉगर की पहचान बन रही है। इसमें पुरानी और नयी पहचान गड्डमड्ड हो रही है। यह लेखन का शुभ लक्षण है। हिंदी ब्‍लॉगिंग स्‍वात:सुखाय बहुजन हि‍ताय की धारणा से प्रेरि‍त है। जो लोग परंपरागत माध्‍यमों में काम करते हैं, उनमें से अधि‍कांश मुफ्त में ही ब्‍लॉग पर लि‍खते हैं।

ब्‍लॉगिंग से परंपरागत मीडि‍या खासकर प्रेस को कोई ख़तरा नहीं है। ब्‍लॉगिंग को प्रेस की वि‍दाई समझने की भूल नहीं करनी चाहि‍ए। धीरे-धीरे ब्‍लॉगिंग सूचना के स्रोत की जगह लेती जा रही है। इंटरनेट के यूज़रों का एक बड़ा हि‍स्‍सा है, जो ब्‍लॉग से ख़बर, सूचनाएं आदि‍ प्राप्‍त करता है। ब्‍लॉगरों में एक वर्ग यह मानता है कि‍ ब्‍लॉगिंग के आने के साथ ही प्रेस की वि‍दाई की बेला आ गयी है।

2009 टैक्‍नोरती ब्‍लॉग सर्वे हाल ही में प्रकाशि‍त हुआ है। वि‍श्‍व ब्‍लॉग जगत का यह सबसे बड़ा सर्वेक्षण है। वि‍श्‍व ब्‍लॉग सर्वे में पाया गया कि‍ टेलीवि‍जन, ब्‍लॉग और सोशल मीडि‍या इन तीन माध्‍यमों का ज़्यादा उपभोग हो रहा है। सर्वे में शामि‍ल ब्‍लॉगरों ने बताया कि‍ वे सर्च और शेयरिंग के काम पर औसतन तीन घंटे प्रति‍ सप्‍ताह और वीडि‍यो पर प्रति‍ सप्‍ताह दो घंटा खर्च
करते हैं। ब्‍लॉग लेखकों में अधि‍कांश ऐसे हैं, जो प्रति‍ सप्‍ताह ऑनलाइन अखबार-पत्रि‍का पढ़ने पर 2-3 घंटे खर्च करते हैं। ब्‍लॉग लेखकों में मात्र 20 प्रति‍शत अपने ब्‍लॉग अपडेट करते हैं। 80 प्रति‍शत अपडेट नहीं करते। मात्र 13 प्रति‍शत हैं, जो मोबाइल के जरि‍ये अपने ब्‍लॉग को अपडेट करते हैं। अंग्रेजी ब्‍लॉगरों में किये गये सर्वे से पता चला है कि‍ अधि‍कांश ब्‍लॉगर उच्‍च शि‍क्षाप्राप्‍त हैं। अधि‍कांश ब्‍लॉगर स्‍नातक हैं। अधि‍कांश की आय प्रति‍वर्ष औसत 75 हज़ार डालर या उससे ज़्यादा है। अधि‍कांश के एकाधि‍क ब्‍लॉग हैं। आज ब्‍लॉगिंग मीडि‍या की मूलधारा का हि‍स्‍सा है। अधि‍कांश ब्‍लॉगर दो-तीन सालों से ब्‍लॉग लेखन कर रहे हैं।

दो-ति‍हाई ब्‍लॉगर पुरुष हैं। 60 प्रति‍शत की उम्र 18-44 के बीच है। ज़्यादातर ब्‍लॉग लेखक शि‍क्षि‍त और समर्थ हैं। इनमें 75 प्रति‍शत के पास कॉलेज डि‍ग्री है, 40 प्रति‍शत के पास स्‍नातक डि‍ग्री है। तीन में से एक ब्‍लॉगर की सालाना पारि‍वारि‍क आय 75 हज़ार डालर से ज़्यादा है। चार में से एक ब्‍लॉगर की 1 लाख डालर से ज़्यादा की आय है। पेशेवर, स्‍व-रोज़गार करने वाले और नौकरीपेशा ब्‍लॉगरों की आय 75 हज़ार डालर प्रति‍वर्ष है। आधे से ज़्यादा शादीशुदा, अभि‍भावक वाले हैं और पूरावक्‍ती नौकरी करते हैं। ब्‍लॉगरों में 67 प्रति‍शत पुरुष और 33 प्रति‍शत महि‍लाएं हैं। 51 प्रति‍शत का यह पहला ब्‍लॉग है जबकि‍ 49 प्रति‍शत का यह पहला ब्‍लॉग नहीं है। इसी तरह ब्‍लॉग लेखकों की उम्र देखें, सात प्रति‍शत ब्‍लॉगरों की उम्र 18-24 साल के बीच है। 25-34 साल के 25 प्रति‍शत, 35- 44 साल के 28 प्रति‍शत, 44-49 साल के 11 प्रति‍शत, 50-54 के बीच के 10 प्रति‍शत, 55-60 साल के बीच के 14 प्रति‍शत, चार प्रति‍शत ब्‍लॉगर की उम्र 65 और उससे अधि‍क है।

ब्‍लॉगिंग की बुनि‍याद है आत्‍माभि‍व्‍यक्ति और अनुभवों को साझा करने का भाव। मूलत: इन्‍हीं दो कारणों से प्रेरि‍त होकर ब्‍लॉग लि‍खे जा रहे हैं। सर्वे में 70 प्रति‍शत ने कहा कि‍ वे व्‍यक्तिगत संतोष के लि‍ए लि‍खते हैं। जो अभिरुचि‍यों पर केंद्रि‍त होकर लि‍ख रहे हैं, उनकी संख्‍या ज़्यादा है। इसके अलावा वि‍शेषज्ञ कि‍स्‍म के लोगों का लेखन वि‍षयकेंद्रित होता है। ये लोग राजनीति‍क सवालों पर भी लि‍खते हैं। राजनीति‍क वि‍षयों पर स्‍व-रोज़गारी और पेशेवर लोग कम लि‍खते हैं। अधि‍कांश ब्‍लॉगर अपने को गंभीर, संवादी या वि‍शेषज्ञ कहते हैं। ब्‍लॉगिंग में आत्‍मस्‍वीकारोक्ति की शैली ज़्यादा जनप्रि‍य नहीं है।

ब्‍लॉगिंग में पेशेवर लोगों की संख्‍या लगातार बढ़ रही है। व्‍यक्ति‍ अनुभवों पर लि‍खने वालों की तादाद बढ़ रही है। इन्‍हें ज़्यादा लोग पढ़ते हैं। ब्‍लॉग के 70 प्रति‍शत लेखक अंशकालि‍क हैं। ब्‍लॉग में कम लि‍ख पाने का प्रधान कारण है ब्‍लॉग लेखकों का घरेलू संसार में उलझे रहना। 64 प्रति‍शत ब्‍लॉगर का मानना है वे नि‍यमि‍त इसलि‍ए नहीं लि‍ख पाते क्‍योंकि‍ उनकी पारि‍वारि‍क ज़‍ि‍म्‍मेदारि‍यां हैं। 30 प्रति‍शत ऐसे लेखक हैं, जो कम लि‍खते हैं। इनके कम लि‍खने का प्रधान कारण है इनका नेट पर अन्‍य गति‍वि‍धि‍यों में व्‍यस्‍त रहना। ज़्यादातर ब्‍लॉगर का मानना है उनके व्‍यक्तिगत जीवन पर ब्‍लॉगिंग का सकारात्‍मक प्रभाव हुआ है।

ब्‍लॉग मूलत: व्‍यक्तिगत आख्‍यान है। 45 प्रति‍शत ब्‍लॉगरों ने बताया कि‍ वे नि‍जी अनुभवों पर लि‍खते हैं। 23 प्रति‍शत ऐसे हैं, जो जीवन की व्‍यापक जानकारी में इज़ाफ़ा करने के लि‍ए लि‍खते हैं। 30 प्रति‍शत का मानना है उनके लेखन का मुख्‍य वि‍षय अन्‍य हैं। 50 प्रति‍शत ब्‍लॉगरों को अपने प्रि‍य राजनीति‍क वि‍षय पर बातें करने में मज़ा आता है। जबकि‍ पेशेवरों में यह संख्‍या घट गयी है। पेशेवरों में 37 प्रति‍शत और स्‍वरोज़गाररत लोगों में मात्र 33 प्रति‍शत ब्‍लॉगर ही राजनीति‍ में रुचि‍ लेते हैं। 74 प्रति‍शत ब्‍लॉगर सामाजि‍क और पर्यावरण के सवालों पर लि‍खते हैं। जबकि‍ 66 प्रति‍शत पेशेवर लोग अपने काम के वातावरण पर लि‍खते हैं। आर्थि‍क मंदी ने 81 प्रति‍शत ब्‍लॉगरों की वि‍षयवस्‍तु को खास प्रभावि‍त नहीं कि‍या है। वे जि‍न वि‍षयों पर लि‍ख रहे थे उन्‍हीं पर लि‍खते रहे। ज़्यादातर (70 प्रति‍शत) ब्‍लॉग लेखक इस बात से संतुष्‍ट हैं कि‍ उनके ब्‍लॉग पर ज़्यादा लोग पढ़ने आते हैं।

सर्वे के अनुसार 15 प्रति‍शत ब्‍लॉगर 10 या उससे ज़्यादा घंटे प्रति‍ सप्‍ताह खर्च करते हैं। जबकि अंशकालि‍क 24 प्रति‍शत ब्‍लॉगर, 25 प्रति‍शत पेशेवर और स्‍वरोज़गारयुक्‍त 32 प्रति‍शत ब्‍लॉगर प्रति‍ सप्‍ताह 10 या उससे ज़्यादा घंटे समय खर्च करते हैं। पांच में से एक ब्‍लॉगर प्रति‍दि‍न अपने ब्‍लॉग को अपडेट करता है। औसतन सप्‍ताह में 2-3 बार ब्‍लॉगर अपने ब्‍लॉग की अपडेटिंग करते हैं। जो स्‍वरोज़गारयुक्‍त हैं वे अपने ब्‍लॉग की ज़्यादा जल्‍दी अपडेटिंग करते हैं।

ब्‍लॉग लेखन का वि‍श्‍वव्‍यापी प्रभाव होता है। हाल की दो घटनाएं साक्षी हैं कि‍ कि‍स तरह ब्‍लॉग लेखकों ने राजनीति‍क प्रभाव छोड़ा है। सन 2008 में संपन्‍न हुए ईरान के राष्‍ट्रपति‍ चुनाव में ब्‍लॉग लेखकों ने जमकर राजनीति‍क प्रचार अभि‍यान चलाया। इसके कारण ईरान में जनप्रि‍य वेबसाइट, फेसबुक और ट्वि‍टर पर पाबंदी लगा दी गयी। उल्‍लेखनीय है कि ईरान में पत्रकारों को लि‍खने की आज़ादी नहीं है। चुनाव के दौरान देश में इधर-उधर जाने की भी आज़ादी नहीं थी। इसी अर्थ में ईरान को मध्‍य-पूर्व का सबसे बड़ा क़ैदखाना कहा जाता है। ईरान दुनि‍या का पहला देश है, जि‍सने पहली बार कि‍सी ब्‍लॉगर को ब्‍लॉगिंग के लि‍ए जेलखाने पहुंचा दि‍या गया। इसके बावजूद प्रति‍वाद के स्‍वर ब्‍लॉग पर थमे नहीं हैं। कुछ अरसा पहले अमेरि‍का के राष्‍ट्रपति‍ चुनाव में ब्‍लॉग लेखकों के राजनीति‍क लेखन का जम कर इस्‍तेमाल कि‍या गया। नीति‍गत सवालों से लेकर व्‍यक्ति‍गत सवालों तक ब्‍लॉग लेखन को अमेरि‍की नागरि‍कों ने परंपरागत मीडि‍या की तरह ही सम्‍मान और प्‍यार दि‍या।

ब्‍लॉग लेखन ने वि‍चारों के संसार को सारी दुनि‍या में नयी बुलंदि‍यों तक पहुंचाया है। वि‍श्‍व स्‍तर वर अभि‍व्‍यक्ति की आज़ादी को पुख्‍ता बनाया है। ज़्यादा सूचना संपन्‍न, सहि‍ष्‍णु और लोकतांत्रि‍क बनाया है। ब्‍लॉग की दुनि‍या को शि‍क्षि‍तों के समाज में ज़्यादा ध्‍यान दि‍या जा रहा है। अभी बहुत कम शि‍क्षि‍त हैं जो ब्‍लॉग पर जाते हैं, किंतु इनकी संख्‍या बढ़ रही है। यह ऐसा माध्‍यम है, जि‍सका नि‍यंत्रण संभव नहीं है। यह वि‍नि‍मय का माध्‍यम है। यह सरकार और राष्‍ट्र की सीमाओं का अति‍क्रमण करते हुए वि‍नि‍मय करता है। उम्‍मीद की जा रही है कि‍ भावी ब्‍लॉग और भी ज़्यादा एक्‍शन केंद्रित होंगे। अभी तो ब्‍लॉगर के द्वारा घटनाओं पर टि‍प्‍पणी आती है – आगामी दि‍नों में ब्‍लॉग एक्‍शन करते नज़र आएंगे। वे घटनाओं को संचालि‍त करेंगे।

ब्‍लॉगिंग का नया रूप ट्वि‍टर के साथ दि‍खाई दे रहा है। आम जनता की तुलना में ब्‍लॉगरों के द्वारा ट्वि‍टर का ज़्यादा प्रयोग हो रहा है। मई 2009 में पेन, शोन एंड बेर्लेंड एसोसि‍एट्स के द्वारा कराये सर्वे से पता चला है कि‍ ट्वि‍टर का इस्‍तेमाल करने वालों में मात्र 14 प्रति‍शत आम जनता है जबकि‍ 73 प्रति‍शत ब्‍लॉगर हैं जो अपने ब्‍लॉग की जनप्रि‍यता बढ़ाने के लि‍ए इसका इस्‍तेमाल कर रहे हैं। हाल ही में ट्वि‍टर का संचालन करने वाली कंपनी ने इस क्षेत्र में एक बि‍लि‍यन डॉलर का पूंजी नि‍वेश करने का फ़ैसला लि‍या है। जून 2009 तक सोशल मीडि‍या पर आने वालों की संख्‍या 44.5 मि‍लि‍यन गि‍नी गयी। अभी ट्वि‍टर पर वि‍ज्ञापन नहीं लेने का फ़ैसला कि‍या गया है लेकि‍न भवि‍ष्‍य में वि‍ज्ञापन नहीं दि‍खेंगे – यह कहना मुश्‍कि‍ल है।


28.10.09

इंटरनेट में लैटि‍न की वि‍दाई और देशजभाषाओं का आगमन

इंटरनेट पर देशज भाषाओं दखल बढ़ रहा है। इंटरनेट पर आने वाले समय में डोमेन नाम, वेबसाइट, ईमेल पता, ट्वि‍टर पोस्‍ट आदि‍ में अब गैर अंग्रेजी भाषाएं भी नजर आएंगी। खासकर चीनी, अरबी,कोरि‍यन और जापानी भाषाओं का प्रयोग होने लगेगा। अभी तक डोमेन पते पर अंग्रेजी का ही इस्‍तेमाल होता है। इसके अलावा ग्रीक,हि‍न्‍दी,रूसी आदि‍ भाषाओं के प्रयोग का रास्‍ता भी खुल जाएगा। '' Internet Corporation for Assigned Names and Numbers '' (आईसीएएनएन) के प्रवक्‍ता ने 26 अक्‍टूबर 2009 को बताया कि वेब पते पर लैटि‍न भाषा के उपयोग का फैसला इस सप्‍ताह उठा लि‍या है। इंटरनेट के भाषि‍क और संरचनात्‍मक इति‍हास का यह अब तक का सबसे बड़ा बदलाव है। इंटरनेट के जन्‍म के साथ वि‍गत चालीस सालों में वेब पते‍ के लि‍ए लैटि‍न का प्रयोग होता रहा है। दक्षि‍ण कोरि‍या की राजधानी सि‍ओल में सारी दुनि‍या की इंटरनेट कंपनि‍यों, सूचना सम्राटों, वि‍भि‍न्‍न सर्वर के मालि‍कों,सुरक्षा वि‍शेषज्ञों आदि‍ छह दि‍नों तक चलने वाली कॉंफ्रेंस में मि‍ले। इसी कॉंफ्रेस में यह महत्‍वपूर्ण फैसला लि‍या गया है। इस परि‍वर्तन की घोषणा इंटरनेट के 40 साल पूरे होने के एक दि‍न बाद ही की गई है। इंटरनेट में इस भाषि‍क परि‍वर्तन का प्रधान कारण है गैर अंग्रेजी यूजरों की तादाद में तेजी से इजाफा। इस इजाफे ने इंटरनेट कर्त्‍ताओं को लैटि‍न की जगह देशज भाषाओं के डोमेन,पते बगैरह के लि‍ए इस्‍तेमाल की अनुमति‍ देने के लि‍ए वि‍वश कि‍या है। सन् 2010 तक इस फैसले के लागू कि‍ए जाने की संभावना है।

सारी दुनि‍या में इंटरनेट के 1.6 वि‍लि‍यन यूजर हैं जो लैटि‍न भाषा आधारि‍त स्‍क्रि‍प्‍ट का इस्‍तेमाल नहीं करते। यह संख्‍या इंटरनेट यूजरों की आधी संख्‍या के बराबर है, भवि‍ष्‍य में इनकी संख्‍या और भी बढ़ सकती है। इंटरनेट के वि‍कास के लि‍ए देशज भाषाओं के पक्ष में यह परि‍वर्तन करना अनि‍वार्य हो उठा था। अभी इंटरनेट में पते के तौर पर 'कॉम' ,' ओआरजी' का इस्‍तेमाल कि‍या जाता है। इसकी जगह ज्‍यादा लचीली व्‍यवस्‍था लागू की जाएगी। जैसे 'पोस्‍ट' और ''बैंक' आदि‍। उल्‍लेखनीय है इंटरनेट में ये परि‍वर्तन तब आए हैं जब वाशिंगटन प्रशासन ने इंटरनेट पर अपनी पकड़ कुछ कम करने का फैसला लि‍या है । नयी पते की व्‍यवस्‍था के अनुसार सभी पते 'bank ' के साथ खत्‍म होंगे। ये सभी प्रामाणि‍क पते होंगे। उल्‍लेखनीय है इंटरनेट के कर्त्‍ता अब जि‍स नए पते की व्‍यवस्‍था को लागू करने जा रहे हैं वह पहले से ही प्रचलन में हैं। उसे उन्‍होंने कभी मान्‍यता नहीं दी। जो लोग इसका इस्‍तेमाल करते हैं उनका नाम है Jerusalem Style Web Design Studio

शर्म इनको मगर नहीं आती

बंद करो `बिग बॉस ' का नंगा नाच
-राजेश त्रिपाठी
आजकल टेलीविजन चैनलों में टीआरपी के लिए गलाकाट प्रतिस्पर्धा चल रही है। इसके चलते नया कुछ दिखाने और दूसरों से आगे बढ़ने के नाम पर चैनल किस तरह से मर्यादा और शालीनता की सीमा लांघ रहे हैं इसका ताजा उदाहरण है कलर्स चैनल का `बिग बॉस' कार्यक्रम। इस कार्यक्रम में 25 अक्टूबर की रात जो भी दिखाया गया उसे फूहड़, नंगापन, भोड़ापन या टुच्चई के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता। उसमें तुर्रा यह कि यह नंगई करनेवालों को अपने इस कुकृ्त्य पर रत्ती भर शर्मिंदगी नहीं। जो दृश्य क्षण भर के लिए करोड़ों दर्शकों भौंचक्का और शर्मशार कर गया उसे अंजाम देनेवालों ने उसका जम कर लुत्फ उठाया। यानी शर्म इनको नहीं आती भले ही देखने वालों को आती हो। कलर्स चैनल अपने कई अच्छे धारावाहिकों के लिए काफी पसंद किया जाता है लेकिन `बिग बॉस' में उस दिन जो कुछ हुआ, उसने इस चैनल की सारी साख धो दी और इसे भी उन चैनलों की पांत में ला खड़ा किया जो मनोरंजन के नाम पर जनता को नंगा नाच दिखाते हैं और सीरियलों के नाम पर सामाजिक विकृति फैलाने का काम करते हैं। 25 अक्टूबर की रात `बिग बॉस' में जो कुछ हुआ पहले उस पर नजर डालते हैं। `बिग बॉस' का कार्यक्रम इस बार शुरुआत से ही विवादों के केंद्र में रहा है। पहले तो कमाल खान का वह बड़बोलापन इस पर भारी रहा जो न दर्शकों को पसंद आया, न ही `बिग बॉस' के घर में इस बार रह रहे प्रतिभागियों को। कमाल खान इस घर से निकले भी बड़े बेआबरू होकर। रात दो बजे उन्हें निकाल फेंका गया। चैनल वाले क्या करना चाहते हैं इसका इरादा शार्लिन चोपड़ा के उस स्नान दृश्य से ही चल गया था जिसमें सिर्फ अंतर्वस्त्रों में स्वीमिंग पूल में अपने जलवे बिखऱेती शार्लिन को देख राजू श्रीवास्तव अपनी आंखें सेंक रहे थे, आप यह भी कह सकते हैं कि नयन सुख प्राप्त कर रहे थे। माफ करें ऐसी भाषा इस्तेमाल करने के लिए लेकिन राजू श्रीवास्तव ने जो संवाद इस दृश्य में इस्तेमाल किये वे करीब-करीब ऐसा ही प्रकट करते हैं। सद्यस्नाता शार्लिन मात्र उतने कपडों में जिनमें एक स्त्री का लज्जा ढंकना भी मुनासिब नहीं था, राजू से मुखातिब हैं और राजू हैं कि अपलक उनके रूप सौंदर्य को टकटकी लगाये निर्निमेष घूर रहे हैं। ना महिला को शर्म है न नयनों से उसके रूप रस को पीते पुरुष को। बल्कि पुरुष जो गुजारिश करता है उससे उसकी मंशा साफ जाहिर हो जाती है। राजू शार्लिन से गुजारिश करते हैं कि वे कब-कब स्वीमिंग पूल में नहाने आती हैं उसका टाइम टेबल बता दें ताकि वे भी आनंद ले सकें , उनके भी मुफ्त में चर्चे-वर्चे हो जायेंगे। आप खुद ही सोच लें कोई भद्र महिला कम कपड़ों में स्वीमिंग पूल में नहा रही है तो उस वक्त कोई पुरुष वहां पूजा-आरती करने तो आता नहीं। क्यों आता है यह दिन के उजाले की तरह साफ है। यानी `बिग बॉस' किस तरह गंदगी फैला रहा है और क्या दिखा रहा है या दिखाना चाहता है यह स्पष्ट हो चुका है। 25 अक्टूबर को `बिग बॉस' के ही घर में स्वीमिंग पूल के पास एक पार्टी में सब मस्ती में नाच रहे हैं। इनमें राजू श्रीवास्तव भी हैं जो सिर्फ अंडरबीयर पहने हैं। पार्टी में नाचते-नाचते अचानक अदिति गोवात्रिकर और तनाज ईरानी मस्ती में उनका अंडरबियर खींच देती हैं और राजू नग्न हो जाते हैं। दोनों महिलाएं राजू को नंगा देख कर इस तरह खुश होती हैं और आपस में लिपट कर ठहाकों में डूब जाती हैं जैसे उन्होंने कोई जंग जीत ली हो। भला हो तकनीक का कि पलक झपकते कैमरे में स्मोक्ड स्क्रीन इस्तेमाल किया जाता है और वह नंगा दृश्य धुंधला हो जाता है। इसके बावजूद इसके करोड़ों दर्शक धक्क रह जाते हैं। उन्हें पता चल जाता है कि दृश्य क्या था और उनके परिवार का अभिन्न अंग बन चुका टीवी चैनल अब कितना फूहड और अशालीन होता जा रहा है। जाहिर है इस पर शोर मचना था, मचा, सूचना प्रसारण मंत्रालय को जो करना था उसने किया। चैनल के नियंताओं को नोटिस भेज कर आगाह किया कि वे ऐसी गंदगी न परोसें लेकिन ऐसी कितनी नोटिसें कारगर साबित हुई हैं। जहां तक `बिग बॉस' का सवाल है तो इससे पहलेवाले `बिग बॉस' (यानी सेशन-2) को भी विवाद झेलने पड़े थे। उसमें भी राहुल महाजन और पायल रोहतगी की जल क्रीडा से कई भौंहें तन गयी थीं, बहुत सी नजरें शर्मशार हुई थीं। वैसे ऐसे कार्यक्रमों की आलोचना करते वक्त एक डर लगता है कि मैं अपने महान देश भारत के और भी महान तथाकथित प्रगतिशील वर्ग को अपना दुश्मन न बना बैठूं जैसा ` सच का सामना' की मेरी आलोचना के वक्त हुआ था। कुछ लोगों को लगा कि उस कार्यक्रम पर आपत्ति जता कर मैंने महापाप किया है, ऐसे कार्यक्रम आते रहने चाहिए जिसमें भारत की एक महान नारी (?) अपने पति के सामने ही गर्व से स्वीकार करती है कि वह आज भी पराये मर्द के संग की कामना करती है। मेरे प्रगतिशील भाई ही जानते होगे कि यह सच किस महान समाज की संरचना करेगा। `बिग बॉस' की आलोचना भी बहुतों को अखर सकती है। वे कह सकते हैं कि आपको बुरा लगा तो क्या, हमें तो मजा आया। भाई माफ कीजिए आपका यह आनंद हमारे समाज को, जो पश्चिमी रंग-ढंग में रच कर इतरा रहा है, पतन के उस गर्क में धकेल देगा जहां सारे संस्कार स्वाहा हो जायेंगे और अनाचार, कदाचार, व्याभिचार राज करेंगे।
इस बार के `बिग बॉस' के प्रति लोगों के सर्वाधिक आकर्षण का कारण यह है कि इससे सूत्रधार के रूप में सदी के सितारे बिग बी यानी अमिताभ बच्चन जुड़े हैं। कुछ लोग तो उन्हें ही `बिग बॉस' मान रहे हैं। वैसे उनकी आत्मीयता भरी प्रस्तुति की प्रशंसा सर्वत्र हो रही है। जिस कार्यक्रम से अमित जी जुड़े हों उसमें ऐसी अश्लीलता और अशालीनता दिखायी जाये तो फिर अमित जी के नाम पर भी बट्टा लगता है। सवाल उठ सकते हैं कि आखिर ऐसी क्या मजबूरी थी कि उनको इस फूहड़ और अशालीन कार्यक्रम का हिस्सा बनना पड़ा। जाहिर है उन्हें इस बारे में पहले से कुछ नहीं बताया गया होगा। अगर उन्हें पता होता कि ऐसे प्रसंग इस कार्यक्रम में आयेंगे तो शायद वे इसमें शामिल होना पसंद नहीं करते। आखिर उनका नाम है, कला की दनिया में एक ऊंचा मकाम है जो इस तरह के कार्यक्रमों से जुड़ने में धूमिल होता है। `बिग बॉस' बनाने वाले यह कह कर अपना पल्ला झाड़ सकते हैं कि यह अचानक हो गया और यह अनायास था सायास नहीं तो सवाल यह उठता है कि जब `बिग बॉस' का दावा है कि उनके घर के हर कोने में कैमरे लगे हैं और वे कैमरे 24 घंटे सतर्क नजर रखते हैं, जब सब सो जाते हैं तब भी कैमरे जागते रहते हैं तो फिर ऐसी भूल कैसे हो गयी। इन कैमरों का संचालन कहीं कोई एक केंद्रीय इकाई करती होगी जिसे इस पर ध्यान रखना था। हर भारतीय चैनल की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह ऐसा कुछ भी नहीं दिखाये जिससे समाज में गलत संदेश जाता हो या कुछ लोगों को ही सही मानसिक आघात लगता हो। `बिग बॉस' में जिस तरह से खुला खेल फरुर्खाबादी दिखाया जा रहा है, उसकी मिसाल शुरू से ही मिलने लगी थी जब कमाल खान विदेशी बाला क्लाडिया से इश्क फरमाते वक्त मजनूं बन जाते हैं और दो दिन के लिए खाना त्याग देते हैं और जब भूख बरदाश्त नहीं होती तो रसोई में चोरी-छिपे खाना खाते पकड़े जाते हैं। वैसे `बिग बॉस' में कुछ पात्रों को क्यों ठूंसा गया यह समझ में नहीं आता। जैसे जया सावंत की बात लें जो घर में सिर्फ इसलिए आयी ताकि बेटी ऱाखी सावंत की ओर से सताये जाने और अमिताभ जी की कृपा पाने की कहानी दुनिया को सुना सके। इसके अलावा और उसकी क्या भूमिका थी। वैसे भी इस घर के सभी पात्र आपस में एक दूसरे पर खीझते- खौख्याते ही दिखते हैं। लगा था कि राजू श्रीवास्तव हैं उनका सही प्रयोग करके इस बार `बिग बॉस' को रोचक बनाया जायेगा मगर यह तो चूं-चूं का मुरब्बा बन कर रह गया है। अगर यही रीयलिटी शो की रीयलिटी है तो फिर इससे तौबा। बिग बी कहां फंस गये हैं आप? या तो इस कार्यक्रम को सही दिशा में मोड़िए, एक सही और सार्थक सारथी की भूमिका में आइए या फिर इसे नमस्कार कर बाइज्जत इससे निकल जाइए क्योंकि पता नहीं इसमें आगे क्या-क्या होने वाला है। इसके सारे पात्र फुल टेंशन में नजर आते हैं पता नहीं कब क्या कर बैठें। बोतल चल चुकी है, वस्त्रहरण हो चुका है, अब जो बाकी है खुदा न करे वह भी सरेआम होने लगे तो फिर यही कहना होगा-वतन का क्या होगा अंजाम बचा लो ऐ मौला ऐ राम। दुनिया की नजरों में होगा भारत बदनाम बचा लो ऐ मौला ऐ राम।
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राजेश त्रिपाठी कोलकाता के वरिष्ठ पत्रकार हैं और तीन दशक से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। इन दिनों हिंदी दैनिक सन्मार्ग में कार्यरत हैं। राजेश से संपर्क rajeshtripathi@sify.com के जरिए कर सकते हैं। वे ब्लागर भी हैं और अपने ब्लाग http://rajeshtripathi4u.blogspot.com में समसामयिक विषयों पर अक्सर लिखते रहते हैं।

तुम्हारे संग






-रंजना डीन


महकी सी अंगडाई के संग...
ठंडी सी पुरवाई के संग...
भीगी लटें, टपकती बूंदे....
अलसाई आँखों को मूंदे...
हलकी सी ठिठुरन को सहती....
अनजाने भावों में बहती...
सम्मोहित सी जाने कैसे...
तुम तक आखिर पहुच गयी मै...
अब जाने क्या होगा आगे...
प्यास देखकर बरस गयी मै.

साइबर उत्‍पाति‍यों की खैर नहीं


भारत में मंगलवार से संशोधि‍त सूचना तकनीक कानून 2008 लागू हो गया है। यह सन् 2008 के सूचना तकनीक कानून का संशोधि‍त रूप है। साइबर जगत के अपराधों पर अब सरकार और भी सख्‍ती के साथ पेश आएगी। अभि‍व्‍यक्‍ति‍ की आजादी के नाम चाहे जि‍से संदेश भेजना, अपमानजनक ब्‍लाग लेखन, अपमानजनक टि‍प्‍पणि‍यां,अश्‍लील सामग्री का वि‍तरण, बाल पोर्नोग्राफी के वि‍तरण के साथ -साथ साइबर सामग्री के बगैर अनुमति‍ के उपयोग और दुरूपयोग के बारे में यह कानून ज्‍यादा सख्‍त है। इस कानून से गैर कानूनी साइबर हरकतें कि‍तनी कम होंगी यह तो वक्‍त ही बताएगा, लेकि‍न यह तय है‍ अब आप मनमाने लेखन के दि‍न लद गए।

साइबर जगत में जि‍म्‍मेदार लेखन और सृजन के लि‍ए ज्‍यादा सुरक्षि‍त रास्‍ता तैयार हुआ है। अभी तक जो लोग अपमानजनक ईमेल भेजकर सो जाते थे वे ऐसा नहीं कर पाएंगे। अपमानजनक, अवैध ईमेल कानून के दायरे में आ चुके हैं। अब आपका ईमेल भी वैध गति‍वि‍धि‍ है। आपकी टि‍प्‍पणी और ईमेल भी कॉपीराइट के दायरे में हैं। गलत करने पर दंडि‍त हो सकते हैं। गोपनीयता का उल्‍लंघन अभी तक साइबर स्‍पेस में अपराध नहीं था लेकि‍न अब अपराध है। आप कि‍सी के वैध संरक्षि‍त डाटा का अनुमि‍त के बि‍ना व्‍यवसायि‍क इस्‍तेमाल नहीं कर सकते। अब तक 'ई व्‍यापार' के नाम पर जो धोखाधड़ी चल रही थी उसे रोक नहीं सकते थे। इस कानून के जरि‍ए 'ई व्‍यापार' की धोखाधडी भी दंड वि‍धान के दायरे में चली आयी है। साइबर स्‍पेस में चलने वाली खरीद-फरोख्‍त भी इसके दायरे में चली आयी है। संशोधि‍त कानून के व्‍यापक सामाजि‍क प्रभाव हो सकते हैं बशर्ते सरकार के पास 'ई नि‍गरानी' करने वाली व्‍यापक मशीनरी हो। साइबर कानून में संशोधन से सि‍र्फ इतना हुआ है कि‍ हमारे पास कानून है। कोई शि‍कायत करने आएगा तो कानूनी कार्रवाई की जा सकती है लेकि‍न स्‍वयं सरकार अपनी तरफ से कोई कदम नहीं उठाने जा रही है। आमतौर पर जि‍न देशों ने साइबर कानून बनाए हैं वहां पर साइबर नि‍गरानी करने वाली लंबी-चौडी फौज रखी गयी है। भारत में कानून है लेकि‍न कानून लागू करने वाली संरचनाएं अभी तक नहीं बन पायी हैं। अदालतों का जो हाल है उसे देखकर नहीं लगता कि‍ यह कानून कि‍सी भी साइबर अपराधी को रीयल टाइम में पकड पाएगा अथवा रीयल टाइम में दंडि‍त कर पाएगा। साइबर कानून तब ही प्रभावी हो सकता है जब उसकी नि‍गरानी करने वाली स्‍वतंत्र एजेंसी हो, साइबर जगत पर भारत सरकार की नि‍गरानी चौकि‍यॉं हों, इसके लि‍ए लाखों साइबर पुलि‍सकर्मी हों जो रीयल टाइम में एक्‍शन लें और कानून का पालन करें। संशोधि‍त सूचना तकनीक कानून को सन् 2000 में बनाया गया था बाद में दि‍सम्‍बर 2008 में इसमें संशोधन कि‍ए गए जि‍न्‍हें राष्‍ट्रपति‍ के पास स्‍वीकृति‍ के लि‍ए भेजा गया था ,राष्‍ट्रपति‍ ने फरवरी 2009 में इसे मंजूरी दी है और 27 अक्‍टूबर 2009 से यह कानून लागू हो गया है। इसके दायरे में साइबर आतंकवाद को भी शामि‍ल कर लि‍या गया है। साथ ही पहलीबार बाल पोर्नोग्राफी को अपराध माना गया है। इस कानून का अभि‍व्‍यक्‍ति‍ की आजादी को कुचलने के लि‍ए भी कोई भी सरकार दुरूपयोग कर सकती है।

**हदों को लांघता अंधविश्वास <("_")>

*इंसान भले ही चाँद पर क्यों न पहुच गया हो लेकिन समाज मे न तो तंत्र मन्त्र का ढोंग करने वालों की कमी है और न ही अंध विश्वास करने वालो की. सहारनपुर मे एक काली बिल्ली का खोफ कुछ एस तरह फे़ला की लोगों ने बंगाल से हजारों खर्च करके तांत्रिकों की एक टीम बुलवा ली. उन्होंने लोगो का जमकर पागल बनाया. आफत और अफवाओ ने पुलिस के भी होश उडा दिए. अंधविश्वास का आलम यह था की लोगों ने दारुल उलूम के मुफ्ती आरिफ कासमी व सहर काजी की अपील को भी नहीं माना. ढोंगी तांत्रिकों ने कई बकरों व मुर्गों की भी बलि दे डाली. उन्होंने एक लड़की को जबरन मुर्गे का खून कटोरे मे डालकर पीने पर मजबूर किया. काली बिल्ली के साये से बचने को लोगों ने महंगाई के इस दोंर मे १० कुंतल सरसों सड़कों पर बिखरवा दी. आखिर पुलिस नींद से जागी और मुकदमा दर्ज करने के साथ ही बंगाली बाबावों की तलाश मे दबिसे दी तो वह भाग गए. अब काली बिल्ली का साया भी नहीं है. ये घटना सबूत ही एस बात का की हमारे देश मे अंधविश्वास की जड़ें किस हद तक मोजूद है. काली बिल्ली से साये को भगाने मे लोगों ने जीतना रुपया ढोंगी बाबावो पर खर्च क्या उतने मे उनके इलाके का विकाश हो सकता था. गरीबों को कई दीनों का भरपेट भोज़न मील सकता था. "सरस सलिल" नवम्बर,०९ के अंक में.***
****नितिन सबरंगी

फिर लौट रहा है ...सलाम ज़िन्दगी



आखिरकार लौट आये हम ......आपके दिलों में जगह बनाने वाला ब्लॉग -सलाम ज़िन्दगी ..अब लौट रहा है .. गौरतलब है सलाम ज़िन्दगी वो ब्लॉग रहा है जिसने न सिर्फ गंभीर ख़बरों और मीडिया की दर्दनाक तस्वीर को पेश किया है ...चाहे वो मीडिया में internship की दर्दनाक तस्वीर हो या फिर एक लड़की से intreview में पूछे गए घटिया सवालों का दौर हो ...हमने उस दर्द को आप तक कराहट के साथ आप तक पहुचाया ....आपने हमारे ब्लॉग पर जो राय दी ...वो सब शानदार दी .. एक बार फिर दर्दनाक लेखो पर अपनी नज़र जरुर दौडाए --http://salaamzindagii.blogspot.com/2009/07/blog-post_29.html
सुधि का लेख -http://salaamzindagii.blogspot.com/2009/08/blog-post.html

27.10.09

क्या यही प्यार है....

अपने एक लंगोटिया यार के दादाजी के श्राद्ध पर हमें जिगर के टुकड़े राधे की याद आ गई। राधे के गाल पसधारी के लड्डू जैसे और नाक सब्जी की तरह तीखी थी। उसकी बातों में खीर का सा मिठास और चेहरा पूड़ी की भांति गोल था। राधे और मैं हरियाणा में पढ़ा करते थे।
12वीं कक्षा के दौरान एक दिन अपने मुंहबोले नानाजी के श्राद्ध के लिए राधे तीसरे कालांश के बाद स्कूल से गायब हो गया था और दूसरे दिन स्कूल आया तो पहले कालांश में मास्टरजी की मार के डर से पेंट में ही...........। समझ गए ना आप। राधे को मास्टरजी का बड़ा डर लगता था परन्तु वह प्यार और इश्क के मामले में इतना डरपोक नहीं था। बासंती बयार आई तो वह सहपाठी चम्पा को दिल दे बैठा। चम्पा कक्षा में मेरे बगल में और मैं राधे के बगल में बैठा करता था। उसका छात्रावास की गली से रोज स्कूल आना-जाना था। कभी-कभार तो वह हमारे साथ ही स्कूल जाती।
एक दिन दोनों की आंख लड़ी, बात बढ़ी और प्यार हो गया। दोनों एक-दूसरे को टुकर-टुकर देखा करते थे। स्कूल में मास्टरजी जब भी कुछ लिखने के लिए ब्लैक बोर्ड की ओर मुड़ते तो राधे और चम्पा का मुंह मेरी ओर यानि वे दोनों एक-दूसरे को देखने लगते। एक दिन राधे ने मेरे से चम्पा के नाम प्रेमपत्र लिखवा डाला। नीली स्याही में डूबाकर दिल के सारे अरमान कागज पर उतरवा दिए। मुझे अपने बगल में और खुद चम्पा के बगल में बैठकर उसके हाथ में थमा दिया परवाना। निकाल ली दिल की सारी भड़ास।
दो दिन बाद चम्पा ने कागज के एक छोटे से टुकड़े पर 143 लिखकर राधे से अपने प्यार का इजहार कर दिया। वार्षिक परीक्षा तक दोनों का प्यार चला और फिर चम्पा अपने गांव चली गई। उसका गांव हरियाणा की खाप पंचायतों में से एक था। (हरियाणा का कुछ क्षेत्र खाप पंचायतों के रूप विख्यात है) राधे से चम्पा की जुदाई सही नहीं गई और वह इतवार को उससे मिलने गांव जाने लगा। गांव के बाहरी इलाके में दोनों एक नीम के पेड़ के नीचे घंटों बतियाते और सांझ ढलने से पहले जुदा हो जाते। दोनों का प्यार इस कदर परवान चढ़ा कि उन्होंने जीवनभर साथ निभाने का फैसला कर लिया।
कहते हैं कि इश्क और मुश्क ज्यादा दिन तक नहीं छिपते। चम्पा और राधे के साथ भी ऐसा ही हुआ। आखिर खाप पंचायतों के चौधरियों की नजर से वे बच नहीं पाए। हर दिन एक नया चौधरी उनके प्यार का दुश्मन बनता गया। दोनों सात फेरों में बंधने का ख्वाब सजाने लगे और मैं उनके विवाह के निमंत्रण पत्र का इंतजार कर रहा था। एक रोज खबर मिली कि दोनों की किसी ने गला रेतकर हत्या कर दी। खाप पंचायतों के एक खेत में दोनों अचेत अवस्था में पड़े मिले। हत्यारों का कोई सुराग नहीं लगा। हां, यह जरूर तय था कि उनकी हत्या खाप पंचायतों में से ही किसी ने की है। मेरे दोस्त, सखा और मित्र राधे व चम्पा की प्रेम कहानी के साथ-साथ उनका भी अंत हो गया।
दोस्तों सवाल उनकी मौत का नहीं बल्कि सवाल यह है कि आखिर हरियाणा की खाप पंचायतों में प्रेमी जोड़ों को खुलकर जीने की आजादी कब मिलेगी? आजादी के साठ साल गुजरे जाने के बाद भी आखिर कब तक प्रेमी यूं ही मौत का शिकार होते रहेंगे? अपनी बर्बरता और मानवाधिकार की खुलेआम धज्जियां उडाने के लिए जानी जाने वाली खाप पंचायतों के लिए राधे और चम्पा को मौत के घाट उतारना कोई नया काम नहीं था।
ताजा घटनाक्रम पर नजर डालें तो पिछले साल नौ मई को कालीरमन खाप पंचायत के आदेश पर प्रेमी जसवीर और प्रेमिका सनिता की हत्या कर दी गई थी और इस साल 12 मार्च को करनाल जिले के मातौर गांव में बनवाला खाप ने वेदपाल और सोनिया को अलग होने का फरमान सुनाया। बाद में 26 जुलाई को वेदपाल भी खाप पंचायत का शिकार हो गया। अगस्त में झझर जिले के घाडऩा गांव में बतौर पति-पत्नी साथ रह रहे रवीन्द्र और शिल्पा को भाई-बहन बनाने के पक्ष में कायदान खाप ने चार दिन तक धरना दिया। विडम्बना है कि धरने में महिलाएं भी शामिल हुईं। इसी मामले को लेकर गांव बेरी में खाप पंचायत बैठी। प्रेमी-प्रेमिका को कभी गांव वापस न आने और रवीन्द्र के पिता को तीन महीने गांव से बाहर रहने का फरमान सुनाया गया।
ऑल इण्डिया वीमेंस एसोसिएशन एडवा की एक रिपोर्ट के अनुसार हरियाणा में खाप पंचायतों समेत हर वर्ष करीब सौ प्रेमी जोड़ों की या तो हत्या कर दी जाती या उन्हें आत्महत्या के लिए मजबूर किया जाता है। अकेली खाप पंचायतें हर माह आठ से दस प्रेमी जोड़ों के साथ यह अन्याय करती हैं।
गंगा मैया की कसम ना तो हमारा कोई राधे दोस्त था और ना ही राधे की प्रेमिका चम्पा। खाप पंचायतों के मन को झकझोर देने वाले नित नए कारनामे पढ़कर हमारी कलम चल गई...।

क्या है औरत?

औरत.... क्या है औरत?
जन्म के समय जिसे न वो प्यार मिले,
जिसे दो वक़्त कि रोटी भी उधर मिले,
जो भाइयो के लिए अपनी पढाई का त्याग करे,
माँ-बाप के वात्सल्य का जो इन्तेजार करे... वही है औरत
 
जिसकी उम्र के साथ लोगों कि निगाहें बढ़ने लगे
हर चौक से गुजरने में जिसे डर लगने लगे
हर अजनबी को देख जिसकी धड़कने बढ़ने लगे
जो घर में भी सुरक्षित न महसूस करे... वही है औरत
 
जिसे पेट भरने कि खातिर अपनी देह बेचनी पड़े
जिसे हर बात पर पुरुषों के जुल्म सहने पड़े
जिसे सबके साथ भी अकेले रहना पड़े
जो कभी अपना दुःख किसी से न कह सके... वही है औरत
 
और आज की औरत पर एक नजर....
जिसके १०-१२ प्रेमी हो और उसके नखरे सहे
जिसके शादी के बाद भी एक दो प्रेम-सम्बन्ध रहे
जिसकी हर बेजरूरत चीजों के लिए  उसका पिता फिर पति सहे
जो किटी पार्टी में बैठ ससुराल की बुराई करे
जिसे बच्चे बिगड़ रहे है इसका ध्यान न रहे
जिसे घर कि किन्ही बातों का ज्ञान न रहे... वो भी है औरत... 

लो क सं घ र्ष !: हिंदू आतंकी संगठनों की घुसपैठ

मालेगांव की आतंकी घटना में हिंदू आतंकी संगठनों के साथ सैन्य अधिकारियों का सम्बन्ध भी प्रत्यक्ष रूप से थाउसी प्रकार मडगांव (गोवा) विस्फोट में आरोपी कार्यकर्त्ता (हिंदू सनातन संस्था) ने बड़े-बड़े नेताओं, पुलिस अधिकारी सहित न्याय व्यवस्था में भी पकड़ मजबूत कर रखी हैमुख्य बात यह है कि गोवा विधि आयोग अध्यक्ष रमाकांत खलप गोवा के गृह मंत्री रवि नायक ने इस बात को बड़ी साफगोई से माना हैप्रश्न यह उठता है चाहे हिंदू आतंकी संगठन हो या अन्य आतंकी संगठन होअगर उनका प्रभाव सेना से लेकर न्याय व्यवस्था तक है और उनके अधिकारी इन संगठनों के आदेश से कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार हैं तो देश के लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बनाये बचाए रखना मुश्किल होगासाम्राज्यवादी शक्तियां ऐसे संगठनों को मदद देकर देश को गृह युद्घ की स्थिति में झोंक देना चाहती है जिससे देश में हमेशा अशांति बनी रहेदूसरी तरफ़ पुलिस विभाग के लोग फर्जी एनकाउंटर करके जनता में वाहवाही लूटने का काम करते हैंअभी लखनऊ में एनकाउंटर विशेषज्ञयों की फायरिंग प्रक्टिस में निशाने टारगेट पर लगे ही नहीआतंकवाद का दमन करने के नाम पर बने सरकारी सशस्त्र बल भी फर्जी घटनाओ के आधार पर ही वाहवाही लूट रहे हैंपुलिस के एक क्षेत्राधिकारी ने अपने सरकारी असलहे से हाथी के ऊपर गोलियाँ चलाई थी और एक भी गोली हाथी को नही लगी थी । इससे यह साबित होता है कि यह लोग लोगों को पकड़ कर एनकाउंटर के नाम पर उनकी हत्या कर रहे हैं। आज जरूरत इस बात की है कि इन आतंकी सगठनों के ख़िलाफ़ ईमानदारी से वैचारिक स्तर से जमीनी स्तर तक संघर्ष की आवश्यकता है अन्यथा विदेशी साम्राज्यवादी शक्तियां इस देश की एकता और अखंडता को नुकसान पहुँचा सकती है

सुमन
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