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1.3.08

कल खोई थी नींद जिससे मीर ने, इब्तिदा फिर वही कहानी की

इस्मत आपा की कहानी लिहाफ को लेकर उनको कोर्ट के कटघरे तक घसीटा गया। चचा मंटो तो अपनी भाषा और कहानी के डायलाग के लिए आज तक बदनाम हैं। नैतिकता के अलंबरदारों ने उन्हें भी अदालत में घसीटा और आज भी जब उर्दू के क्लासों में मंटो पढ़ाए जाते हैं तो रोजा-नमाज के पाबंद और शीन-क़ाफ के मुआमले में दुरुस्त आलिम नाक-भौं कुछ यों सिकोड़ते हैं गोया नौकरी की मजबूरी न होती तो वे मंटो साहब के अफसानों को भूलकर भी न छूते। पर किस्मत के मारे बेचारे छूते हैं और पढ़ाने को मजबूर भी हैं। तहमीना दुर्रानी, तसलीमा नसरीन जैसी खबातीनों की एक पूरी जमात अदब में मौजूद है जिन्होंने इस्लाम और श्लील-अश्लील के दायरे से बाहर जाकर अपनी बात कही।
कुछ सालों पहले जब समकालीन हिंदी की कथाकार लवलीन ने अपनी कहानी चक्रवात लिखी थी तो संपूर्ण लिंगाकार व्यक्तित्व के मालिक भी हंस में महीनों तक राजेन्द्र यादव और लवलीन को गरियाते रहे थे। भाषा और गाली को लेकर एक बार फिर हिंदी ब्लालिंग की दुनिया में हलचल मची हुई है। अफसोस यह कि यह हाय-तौबा वे लोग मचा रहे हैं जिनकी छवि बोलने की आजादी के बड़े पैरोकारों की रही है। वे हैं भी, मगर पता नहीं क्यों इतना ज्यादा उतावलापन और जल्दबाजी के शिकार हो रहे हैं। काशीनाथ सिंह के काशी का अस्सी किताब का क्या करोगे साहिबो? साहित्य अकादमी पुरस्कार के दौर में कई बार पहुंची यह कृति राजकमल प्रकाशन की सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों में से है। इसे हिंदी के आलोचकों ने भी श्रेष्ठ रचना का तमगा दिया हुआ है। मुझे लगता है अगर इस किताब को धारावाहिक रूप से ब्लाग पर शाया किया जाए तो नैतिकता के सिपाही शायद कराहने लगेंगे।
बार-बार फिर श्लील-अश्लील के बहस में उलझकर हिंदी ब्लागिंग वहीं पहुंचता हुआ दीख रहा है जहां से नारद एग्रीगेटर के खिलाफ कुछ लोगों ने मुहिम छेड़ी थी। प्रतिबंध और यह इस तरह की बहसें न केवल ब्लाग की अवधारणा के ही खिलाफ है बल्कि यह किसी भी लाइन से लोकतांत्रिक कदम नहीं है। अगर इसी तरह हम भी प्रतिबंधों, श्लीलता-अश्लीलता की राजनीति करना चाहते हैं तो फिर सांप्रदायिक ताकतों के लिए करने को क्या बचेगा दोस्तो? आमीन।

2 comments:

यशवंत सिंह yashwant singh said...

मठाधीशों के पास आत्मा नहीं होती,
आत्मा होने का नाटक होता है,
मठाधीशों के पास तर्क नहीं होता,
तर्क होने का नाटक होता है,
मठाधीशों का कोई सरोकार नहीं होता,
सरोकार होने का नाटक होता है,
मठाधीशों के पास व्यक्तित्व नहीं होता
व्यक्तित्व होने का नाटक होता है

और नाटकों से बने इन नाटकीय व्यक्तित्वों को
साहित्य
समझ
संस्कृति
सोच
सरोकार
....
से बस इतना लेना देना है कि
इनका मठाधीशी और फैले
इनकी पल्लगी करने वाले और बढ़ें
इनको ढेर सारे पुरस्कार मिलें
इनका हर जगह नाम लिया जाए
इन्हें हर कोई सराहे....

इन कामनाओं से अंटे बसे लोगों को

आइना न दिखाओ
खुल के गरियाओ...

कुत्तों....
तु्म्हारे बौद्धिक मैथुन से हम स्खलित नहीं होते
वरन हम तुम्हारे मुंह को ही तोड़ देंगे
जिसका तुम लिंग के रूप में
इस देश की भाषा और जनता के पिछवाड़े
इस्तेमाल कर रहे हो....

जय भड़ास
यशवंत

Unknown said...

sahi hai...ye elen ginsverg..dhumil, priymbd...maitreyee pushpa...rajendr yadav...sbko ban krenge....
pnkj j aapne sahi likha...sahi