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3.4.08

तुम्हारी कविता / आभा बोधिसत्त्व

तुम्हारी कविता से जानती हूँ

तुम्हारे बारे में

तुम सोचते क्या हो ,

कैसा बदलाव चाहते हो

किस बात से होते हो आहत;

किस बात से खुश


तुम्हारा कोई बायोडटा नहीं मेरे पास

फिर भी जानती हूँ मैं

तुम्हें तुम्हारी कविताओं से


क्या यह बडी़ बात नही कि

नहीं जानती तुम्हारा देश ,

तुम्हारी भाषा तुम्हारे लोग

मैं कुछ भी नहीं जानती ,

फिर भी कितना कुछ जानती हूँ

तुम्हारे बारे में


तुम्हारे घर के पास एक

जगल है

उस में एक झाड़ी

है अजीब

जिस में लगता है

एक चाँद-फल रोज

जिसके नीचे रोती है

विधवाएँ रात भर

दिन भर माँजती है

घरों के बर्तन

बुहारती हैं आकाश मार्ग

कि कब आएगा तारन हार

ऐसे ही चल रहा है

उस जंगल में


बताती है तुम्हारी कविता

कि सपनों को जोड़ कर बुनते हो एक तारा

और उसे समुद्र में डुबो देते हो।

(aabha bodhistv prashidh kvi bodhistv ki jivn-sngini hain. kavita me aajkal kafi sakriy hain)

3 comments:

Anonymous said...

हरे दादा हमें सपनों से बुने इन तारों को समुन्दर में डूबने से बचाना होगा...क्या दादा? अच्छी कविता लगी,मिस बोधिसत्व को बधाई रे भाई.

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

पंडित जी,कविता और अभिव्यक्ति दोनो मन की गहराइयों में उतार देते हैं,आभा बहन को साधुवाद। पर मनीष भइया को क्या हो गया है कैसी गंदी-गंदी बातें कर रहे हैं अगर बोधि भइया ने पढ़ा तो खिसिया-रिसिया जाएंगे कि ये दुष्ट मेरी जीवन संगिनी को "मिस" बता रहा है पब्लिक को आखिर इसकी नियत कैसी है......
aabha bodhistv prashidh kvi bodhistv ki jivn-sngini hain. kavita me aajkal kafi sakriy hain
जबकि आप खुद ही बता रहे हैं....

यशवंत सिंह yashwant singh said...

aabha ji, shandar hai aapki kavita.
yashwant