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2.4.08

रोती जाती है काम करती जाती है पति के आने तक.... (पंकज पराशर की कविताएँ)

((पंकज पराशर ब्लागर तो हैं ही, एक अच्छे कवि, पत्रकार, लेखक और मनुष्य भी हैं। मैं निजी तौर पर उन्हें नहीं जानता, जो भी जानता हूं उनके ब्लाग और भड़ास पर उनके लेखन के जरिए। आज जब मैं उनके ब्लाग को देख रहा था तो उसमें बहुत पीछे जाने पर उनकी लिखी कुछ कविताएं मिलीं। भड़ास के संचालक मंडल के सीनियर साथी पंकज पराशर का ब्लाग भड़ास के भाई भड़ासियों का कोना में भी दर्ज है। अपने साथियों के लेखन और उनके ब्लाग को प्रमोट करने की मुहिम में पंकज पराशर जी के ब्लाग ख्वाब का दर का उल्लेख यहां कर रहा हूं। इस ब्लाग को देखने के लिए आपको यह यूआरएल कंपोज करना होगा http://khwabkadar.blogspot.com। इनके ब्लाग पर आपको ढेर सारे मुद्दों, व्यक्तियों, स्थितियों के बारे में आपको पंकज की बेबाकबयानी दिख मिल जाएगी। कुल मिलाकर आपके एक अच्छे ब्लाग पर टहलने और पढ़ने गुनने का मजा मिलेगा। आप फिलहाल पंकज जी की कविता पढ़ें और उन्हें साधुवाद उनके ब्लाग पर जाकर किसी पोस्ट के नीचे कमेंट के रूप में दें। पंकज पराशर ने अपने ब्लाग पर अपनी जो प्रोफाइल बनाई है उसमें उन्हें अपने बारे में बस इतना बताया है....हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे, कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयां और...

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हस्त चिन्ह
(बनारस के घाटों को देखते हुए)
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पुरखों के पदचिन्ह पर चलने वालों
कभी उनके हस्तचिन्हों को देखकर चलो तो समझ सकोगे
हाथ दुनिया को कितना सुंदर बना सकते हैं

ख़ैबर दर्रा से आए धनझपटू हाथ
जब मचा रहे थे तबाही
वे बना रहे थे मुलायम सीढ़ियाँ
सुंदर-सुंदर घाट और मिला रहे थे गंगा की निर्मलता को
मन की कोमलता से

तलवारें टूट गईं
मिट्टी में मिल गए ख़ून सने हाथ
कोई जानता तक नहीं उन हाथों को
जिसके मलबे के नीचे सदियों तक दबी रही दुनिया

याद करो उन हाथों को जिन्होंने बनाए ताजमहल
बड़े-बड़े राजमहल
और पूरे बनारस में इतने सारे घाट
आज किसे है याद?

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ो इतिहास में उन हाथों को
जिन्होंने बेघर होकर बनाए लोगों के घर
लेकिन अफसोस! वहाँ दीखते हैं वही हाथ
जिन्होंने चंद सिक्के देकर ख़रीदे ग़रीब मजूरों के
अमीर हाथ

जान की परवाह किए बग़ैर जो उकेरते रहे
राजाओं के नाम और जूझते रहे सालों
छेनी-हथौड़ी लिए पत्थरों से
उन हाथों की लकीर किस हर्फ़ में दबी है
ज़रा उसे ढँढ़ो तो अपने मुल्क के इतिहास में?

वे जो इन सीढ़ियों से पहुँचते हैं
विद्युत अभिमंत्रित सरकाऊ सीढ़ियों तक
क्या बना सकते हैं कोई एक ऐसा घाट
जहाँ पी सकें पानी एक साथ
बकरी और बाघ?


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बऊ बाज़ार
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यहाँ आई तो थी किसी एक की बनकर ही
लेकिन बऊ बाज़ार में अब किसी एक की बऊ नहीं रही मैं

ओ माँ!
अब तो उसकी भी नहीं जिसने सबके सामने
कुबूल, कुबूल,कुबूल कहकर कुबूल किया था निकाह
और दस सहस्र टका मेहर भी भरी महफिल में

उसने कितने सब्ज़बाग दिखाए थे तुम्हें
बाबा को गाड़ी और तुम्हें असली तंतु की साड़ी
माछ के लिए छोटा पोखर और धान के लिए खेत
जिसकी स्वप्निल हरियाली कैसे फैल गई थी तुम्हारी आँखों में
और...न जाने कहाँ खो गई थी तुम माँ!

यह जानकर तुम्हारी छाती फट जाएगी
कि जब लाठी और लात से नहीं बन सकी पालतू
तो भूख से हराया गया तुम्हारी बेटी को
जिससे हारते हुए मैंने तुम्हें बचपन से देखा है

रात के तीसरे पहर के निविड़ अंधकार में
सोचती हूँ कैसे बचे होंगे
इस बार की वृष्टि में पिसी माँ की बाड़ी
और चिंदी-चिंदी तुम्हारी साड़ी

मैं तो कुछ भी नहीं जान पाती यहाँ
कि छुटकी के रजस्वला होते ही
बाबा ने क्या उसे भी ब्याह दिया या क़िस्मत की धनी
वह अब तक है कुँआरी?

तुम्हें तो रतौंधी है माँ यह याद है मुझे
कि तुम देख नहीं सकती कुछ भी साँझ घिरते ही

चलो यह अच्छा ही हुआ कि तुम
देख नहीं सकती शाम को जो हर रोज़ उतरती है
मेरी ज़िंदगी में और-और स्याह बनकर

कभी पान खाकर कभी इलायची चबाकर
दारू की गंध को छिपाने की कोशिश करता हुआ
मेरा खरीददार खींच-खींचकर अलग करता है
मेरी देह से एक-एक कपड़ा

जैसे रोहू माछ की देह से उतार रहा हो एक-एक छिलका
छोटे-छोटे टुकड़ों में तलकर परोसने के लिए
आदमजात की थाली में.


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रात्रि से रात्रि तक
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सूरज ढलते ही लपकती है
सिंगारदान की ओर
और घंटी बजते ही खोलकर दरवाज़ा
मधुशालीन पति का करती है स्वागत
व्योमबालाई हँसी के साथ
जल्दी-जल्दी थमाकर चाय का प्याला
घुस जाती है रसोई में
खाना बनाते बच्चों से बतियाते होमवर्क कराते हुए
खिलाकर बच्चों को पति को
फड़फड़ाती है रात भर कक्ष-कफ़स में तन-मन से घायल

जल्दी उठकर तड़के नाश्ता बनाती बच्चों को उठाती
स्कूल भेजकर पहुँचाती है पति के कक्ष में चाय
फ़ोन उठाती सब्जी चलाती हुई भागती है दरवाज़े तक
दूधवाले की पुकार पर

हर पुकार पर लौटती है स्त्री खामोश कहीं खोई हुई

जब तक सहेजती हुई सब कुछ लौटती है पति तक
हाथ में थाली लिए जलपान की

पति भूखे ही जा चुके होते हैं दफ़्तर
एक और दिन उसके जीवन में बन जाता है पहाड़

रोती जाती है काम करती जाती है पति के आने तक
मकान को घर बनाती हुई स्त्री
सूरज ढलते ही करने लगती है पुनः स्वयं को तैयार
व्योमबालाई हँसी के लिए

1 comment:

Anonymous said...

यशवंत दादा आप का शुक्रिया की पंकज दा के इस रूप से भी हमे अवगत करवा दिया...बड़ी सुंदर कविता लगी दादा..पंकज दा टू बड़े भावुक इंसान लगते हैं.