चाहे जितना हम अपनी शैक्षिक प्रणाली को कोस् ले उसके बावजूद हर क्षेत्र में सफल व्यक्ति के पीछे एक शिक्षक की भूमिका देखी जा सकती है । एक स्कूल में तमाम तरह के संसाधनों के बावजूद एक शिक्षक के न होने पर वह स्कूल नहीं चल सकता है । दुनिया में ऐसे हजारों उदाहरण हैं, और रोज ऐसे हजारों उदाहरण गढे जा रहे हैं ,जंहा बिना संसाधनों के शिक्षक आज भी अपने बच्चों को गढ़ने में लगे हैं । वास्तव में आज के प्रदूषित परिवेश में यह कार्य समाज में आई गिरावट के बावजूद हो रहा है ,इसे तो दुनिया का हर निराशावादी व्यक्ति को भी मानना पड़ेगा ।
आज शिक्षक दिवस को 5 सितम्बर के दिन हम सबको यह बातें ध्यान में रखनी चाहिए , इसके साथ हमारे मस्तिष्क में यह प्रश्न भी उठना ही चाहिए कि आख़िर अपने पुरातन संस्कृति में महत्व के बावजूद आज समाज में एक शिक्षक इतनी अवहेलना का निरीह पात्र क्यों बन जाता है? स्कूली शिक्षा का यह स्तम्भ जब तक मजबूत नहीं होगा ,तब तक अपनी शैक्षिक प्रणाली में कोई आमूल - चूल परिवर्तन फलदायी नहीं हो सकता है । हाँ सब को यह समझना होगा कि संस्कृति से अधूरे बच्चे केवल साक्षरों की संख्या ही बढ़ा सकते हैं, पर कोई मौलिक परिवर्तन उनके बूते कि बात नहीं?
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म दिन आज हम शिक्षक दिवस पर मना रहे हैं । एकलव्य जैसे शिष्य देने वाली गुरुकुल शिक्षा कि संस्कृति वाले इस देश की शिक्षा के बदले मुखौटे में शिक्षक ,शिक्षार्थी व शिक्षा के मायने ही बदल दिए गए हैं। मार्गदर्शक कहे जाने वाले गुरु और शिष्य के मध्य नैतिक मर्यादाओं में तेजी से हो रही गिरावट पूरे समाज के लिए चिंतनीय है। समाज की गिरावट से होड़ लेते हुए शिक्षा से जुड़े हुए उच्च-आदर्श व मूल्य जिस तरह से खोये जा रहे हैं, उससे शिक्षक भी पूर्णतयः विचलित होते दिख रहे हैं। व्यावहारिक खामियों के चलते सर्व शिक्षा का प्रयोग सफल नहीं हो पा रहा है । नैतिक शिक्षा पढ़ाई जाने के बावजूद नैतिकता कितनी कायम है , यह समाज के आईने में दिख रहा है। इस शैक्षिक व्यवस्था में अधिकारीयों की छाया शिक्षकों पर, शिक्षकों की छाया छात्रों पर पड़ती है । राजनीती और अफसरशाही में खोट से ही अव्यवस्थाओं का आगमन हुआ है । जाहिर है इस बात पर सिर्फ़ क्षोभ ही जाहिर किया जा सकता है कि आज हमारा शैक्षिक जगत अमीरी व गरीबी कि दो वर्गीय व्यवस्था में साफ बटा हुआ दिख रहा है। आज ज्ञान के भंडार को खरीदा जा रहा है, और ज्ञान पाने के लिए अकूत धन खर्च करना पड़ रहा है।शैक्षिक हिस्से में पारदर्शिता समाप्तप्राय है ,और इस पवित्र पेशे में माफिया कब्जा जमा चुके हैं । यह कहा जाए कि शिक्षा अब धन व बाहुबलियों कि मुट्ठी में है ,तो ग़लत न होगा । व्यवसायीकरण के इस दौर में शिक्षा को शिक्षा को कुछ लोगों के हाथ कि कठपुतली बना दिया गया है । आख़िर शिक्षक भी इनकी चपेट कंहीं न कंहीं से आ ही जाते है । जाहिर है कि जब पूरे समाज का जो भटकाव हो रहा है , तो शिक्षक भी तो इसी का एक अंग ही तो है ।
शिक्षक संगठन भी अपने ही फायदों कि आड़ में लेकर आन्दोलन करते है , कभी शैक्षिक गुणवत्ता और उसका उन्नयन उनके आन्दोलन का हिस्सा या मुद्दा नहीं बना है । स्कूलों में बच्चों का कितना बहुआयामी और तथा समग्र विकास हो सकता है ,यह उन्हें पढ़ने वाले शिक्षकों कि लगन, क्षमता व उनकी कार्यकुसलता पर ही निर्भर होता है । सरकार को भी इस तथ्य को मानना ही चाहिए कि अच्छी गुणवत्ता और कौशलों से पूर्ण पठन - पाठन तभी सम्भव है जब हर अध्यापक यह मानकर कार्य करे कि वह नए भारत के भावी कर्णधारों को तैयार कर रहा है । आज शिक्षक दिवस के दिन सभी नीति निर्धारकों को भी चिंतन करना चाहिए कि क्या अपेक्षित बदलाव हो पा रहा है । समाज के सामने यह स्पष्ट किया जन चाहिए कि सारी समस्यायों कि जड़ केवल शिक्षा नीतियां और अध्यापक ही नहीं है । विश्लेषण का विषय यह होना चाहिए कि जिनके कारण शैक्षिक नीतियां अपना समय के अनुरूप कलेवर और चोला नहीं बदल पाती है । इस परिवेश में जंहा हर उस व्यक्ति कि तैयारी व शिक्षा को अधूरा मना जाता है , जिसने लगातार सीखते रहने का कौशल न प्राप्त किया हो और उसका उपयोग न कर रहा हो । जो अध्यापक नई तकनीकों से परिचित नहीं हो पा रहे हों , उनका योगदान शैक्षिक आचरण में लगातार कम होता जाता है । आज के परिवेश में वही अध्यापक अपना सच्चा उत्तर-दायित्व निभा सकेगा जो स्वयं अपनी रचनात्मकता व सृजन शीलता के प्रति आश्वस्त हो और अध्ययन शील हो । ऐसी स्थितियां उत्पन्न किए जाने पर उसका स्वागत किया जाना चाहिए जंहा शिक्षक और छात्र साथ-साथ सीखें , चिंतन और निष्कर्ष पर मेहनत करें ।
शिक्षा कि हर गंभीर या अगंभीर चर्चा में अक्सर अध्यापक की कमियां निकलने वाले अक्सर मिल ही जाते हैं । पर यह उसी सच्चाई के कारणवश ही होता कि समाज अध्यापकों से आज भी अन्य लोगों कि तुलना में कंहीं अधिक ऊँचे मापदंडों पर खरे उतरने कि कोशिश लगातार करता रहा है । मेरा मानना रहा है कि भारत के अधिकांशतः अध्यापक अनेक कठिनाइयों व समस्यायों के क्षेत्र में जूझते हुए कार्य करते रहते हैं । अध्यापकों की कमी , अन्य कार्यों में उनकी उर्जा खपाना , अध्यापक प्रशिक्षण संस्थानों कि आई बाढ़ के बावजूद अध्यापक प्रशिक्षण का स्तर लगातार गिर रहा है , जाहिर है इस तरह कि कमियों से उत्पन्न समस्यायों कि जिम्मेदारी शिक्षकों के बजाय शैक्षिक नीति निर्धारकों कि के ऊपर ही आनी चाहिए ।
एक प्राइमरी का मास्टर होने के नाते आज शिक्षक दिवस के दिन मैं यह शपथ लेता हूँ कि अपने कर्तव्य पथ से कभी भी नहीं टलूंगा । साथ ही अपने उन सभी गुरुजनों को प्रणाम करता हूँ , जिनके कारण मैं आज अपने सोच व विचार की ताकत को पा सका हूँ ।
आज शिक्षक दिवस को 5 सितम्बर के दिन हम सबको यह बातें ध्यान में रखनी चाहिए , इसके साथ हमारे मस्तिष्क में यह प्रश्न भी उठना ही चाहिए कि आख़िर अपने पुरातन संस्कृति में महत्व के बावजूद आज समाज में एक शिक्षक इतनी अवहेलना का निरीह पात्र क्यों बन जाता है? स्कूली शिक्षा का यह स्तम्भ जब तक मजबूत नहीं होगा ,तब तक अपनी शैक्षिक प्रणाली में कोई आमूल - चूल परिवर्तन फलदायी नहीं हो सकता है । हाँ सब को यह समझना होगा कि संस्कृति से अधूरे बच्चे केवल साक्षरों की संख्या ही बढ़ा सकते हैं, पर कोई मौलिक परिवर्तन उनके बूते कि बात नहीं?
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म दिन आज हम शिक्षक दिवस पर मना रहे हैं । एकलव्य जैसे शिष्य देने वाली गुरुकुल शिक्षा कि संस्कृति वाले इस देश की शिक्षा के बदले मुखौटे में शिक्षक ,शिक्षार्थी व शिक्षा के मायने ही बदल दिए गए हैं। मार्गदर्शक कहे जाने वाले गुरु और शिष्य के मध्य नैतिक मर्यादाओं में तेजी से हो रही गिरावट पूरे समाज के लिए चिंतनीय है। समाज की गिरावट से होड़ लेते हुए शिक्षा से जुड़े हुए उच्च-आदर्श व मूल्य जिस तरह से खोये जा रहे हैं, उससे शिक्षक भी पूर्णतयः विचलित होते दिख रहे हैं। व्यावहारिक खामियों के चलते सर्व शिक्षा का प्रयोग सफल नहीं हो पा रहा है । नैतिक शिक्षा पढ़ाई जाने के बावजूद नैतिकता कितनी कायम है , यह समाज के आईने में दिख रहा है। इस शैक्षिक व्यवस्था में अधिकारीयों की छाया शिक्षकों पर, शिक्षकों की छाया छात्रों पर पड़ती है । राजनीती और अफसरशाही में खोट से ही अव्यवस्थाओं का आगमन हुआ है । जाहिर है इस बात पर सिर्फ़ क्षोभ ही जाहिर किया जा सकता है कि आज हमारा शैक्षिक जगत अमीरी व गरीबी कि दो वर्गीय व्यवस्था में साफ बटा हुआ दिख रहा है। आज ज्ञान के भंडार को खरीदा जा रहा है, और ज्ञान पाने के लिए अकूत धन खर्च करना पड़ रहा है।शैक्षिक हिस्से में पारदर्शिता समाप्तप्राय है ,और इस पवित्र पेशे में माफिया कब्जा जमा चुके हैं । यह कहा जाए कि शिक्षा अब धन व बाहुबलियों कि मुट्ठी में है ,तो ग़लत न होगा । व्यवसायीकरण के इस दौर में शिक्षा को शिक्षा को कुछ लोगों के हाथ कि कठपुतली बना दिया गया है । आख़िर शिक्षक भी इनकी चपेट कंहीं न कंहीं से आ ही जाते है । जाहिर है कि जब पूरे समाज का जो भटकाव हो रहा है , तो शिक्षक भी तो इसी का एक अंग ही तो है ।
शिक्षक संगठन भी अपने ही फायदों कि आड़ में लेकर आन्दोलन करते है , कभी शैक्षिक गुणवत्ता और उसका उन्नयन उनके आन्दोलन का हिस्सा या मुद्दा नहीं बना है । स्कूलों में बच्चों का कितना बहुआयामी और तथा समग्र विकास हो सकता है ,यह उन्हें पढ़ने वाले शिक्षकों कि लगन, क्षमता व उनकी कार्यकुसलता पर ही निर्भर होता है । सरकार को भी इस तथ्य को मानना ही चाहिए कि अच्छी गुणवत्ता और कौशलों से पूर्ण पठन - पाठन तभी सम्भव है जब हर अध्यापक यह मानकर कार्य करे कि वह नए भारत के भावी कर्णधारों को तैयार कर रहा है । आज शिक्षक दिवस के दिन सभी नीति निर्धारकों को भी चिंतन करना चाहिए कि क्या अपेक्षित बदलाव हो पा रहा है । समाज के सामने यह स्पष्ट किया जन चाहिए कि सारी समस्यायों कि जड़ केवल शिक्षा नीतियां और अध्यापक ही नहीं है । विश्लेषण का विषय यह होना चाहिए कि जिनके कारण शैक्षिक नीतियां अपना समय के अनुरूप कलेवर और चोला नहीं बदल पाती है । इस परिवेश में जंहा हर उस व्यक्ति कि तैयारी व शिक्षा को अधूरा मना जाता है , जिसने लगातार सीखते रहने का कौशल न प्राप्त किया हो और उसका उपयोग न कर रहा हो । जो अध्यापक नई तकनीकों से परिचित नहीं हो पा रहे हों , उनका योगदान शैक्षिक आचरण में लगातार कम होता जाता है । आज के परिवेश में वही अध्यापक अपना सच्चा उत्तर-दायित्व निभा सकेगा जो स्वयं अपनी रचनात्मकता व सृजन शीलता के प्रति आश्वस्त हो और अध्ययन शील हो । ऐसी स्थितियां उत्पन्न किए जाने पर उसका स्वागत किया जाना चाहिए जंहा शिक्षक और छात्र साथ-साथ सीखें , चिंतन और निष्कर्ष पर मेहनत करें ।
शिक्षा कि हर गंभीर या अगंभीर चर्चा में अक्सर अध्यापक की कमियां निकलने वाले अक्सर मिल ही जाते हैं । पर यह उसी सच्चाई के कारणवश ही होता कि समाज अध्यापकों से आज भी अन्य लोगों कि तुलना में कंहीं अधिक ऊँचे मापदंडों पर खरे उतरने कि कोशिश लगातार करता रहा है । मेरा मानना रहा है कि भारत के अधिकांशतः अध्यापक अनेक कठिनाइयों व समस्यायों के क्षेत्र में जूझते हुए कार्य करते रहते हैं । अध्यापकों की कमी , अन्य कार्यों में उनकी उर्जा खपाना , अध्यापक प्रशिक्षण संस्थानों कि आई बाढ़ के बावजूद अध्यापक प्रशिक्षण का स्तर लगातार गिर रहा है , जाहिर है इस तरह कि कमियों से उत्पन्न समस्यायों कि जिम्मेदारी शिक्षकों के बजाय शैक्षिक नीति निर्धारकों कि के ऊपर ही आनी चाहिए ।
एक प्राइमरी का मास्टर होने के नाते आज शिक्षक दिवस के दिन मैं यह शपथ लेता हूँ कि अपने कर्तव्य पथ से कभी भी नहीं टलूंगा । साथ ही अपने उन सभी गुरुजनों को प्रणाम करता हूँ , जिनके कारण मैं आज अपने सोच व विचार की ताकत को पा सका हूँ ।
3 comments:
पंडित जी,मैं आपकी सोच को नमन करता हूं। कमियां और खामियां तो आ ही गई हैं लेकिन इसके चलते हम अपनी जिम्मेदारियों से मुंह नहीं मोड़ सकते मैंने सुना है एक हक की लड़ाई लड़ते शख्स के मुंह से कि अगर मेरा देश महान नहीं है तो इसके लिये मैं जिम्मेदार हूं...
जय जय भड़ास
रूपेश जी आपसे सहमत हूँ/
त्रिवेदी जी,
आपके विचार और आपका प्रण, इश्वर आपके साथ रहे और रास्ते से ना डिगाए, लोगों की बात ना करें अगर हम अपने विचारों और सिद्दांतों को ही अक्षरश: पालन करें तो सच में कमी कहाँ रहेगी..
आपको दंडवत
जय जय भड़ास
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