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6.4.09

Loksangharsha: gazal

Loksangharsha: gazal

gazal



होठों पे एक हँसी ही सजाने की बात थी।
लगता है किसी और ज़माने की बात थी॥
अंधेरो की हैसियत बताने की बात थी।
बुझते हुए चिराग जलाने की बात थी॥
रोना ही इस निजाम की सौगात हो गई-
खुशियो से हर जमीन सजाने की बात थी॥
अब लोग बेचते है सरेराह अश्क भी-
मजबूर चश्मे-नम हँसाने की बात थी॥
चेहरों पे आपने चेहरे सजा लिए-
बे परदा घुमने घुमाने की बात थी॥
ये गिल के आस पास अकेले हुए हैं हम-
पर दूर तक का साथ निभाने की बात थी॥
लम्हों की ज़िन्दगी भी कमायत से कम नही-
नज़रों में एक मैयार बनाने की बात थी॥
-डॉक्टर यशवीर सिंह" राही"

1 comment:

प्रेम सागर सिंह [Prem Sagar Singh] said...

बहुत सुन्दर गज़ल, आभार...