पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव के महायज्ञ में बहुत कम आहुतियाँ पड़ी प्रथम चरण के लगभग ४० प्रतिशत मतदाताओं ने राजनितिक पार्टियों के चयन पर अपनी मुहर लगाने से इंकार कर दिया। पंद्रह राज्यों व दो केन्द्रशासित प्रदेशों की १२४ सीटों पर कुल लगभग १४ करोड़ मतदाताओं में से औसतन ६० प्रतिशत ने ही अपने मताधिकार का प्रयोग किया। झारखंड में ५०, छात्तिसगद में ५१, उडीसा में ५३, बिहार में ४६, उत्तर प्रदेश में ४९, असम में ६२, नागालैंड ८४, महारास्ट्र में ५४, केरल में ६०, अरुणाचल प्रदेश में ६२, मिजोरम में ५२, मणिपुर में ६७, मेघालय में ६५, जम्मू कश्मीर में ४८, आँध्रप्रदेश में ६५ व लक्ष्य द्वीप में ८६ प्रतिशत लोगों ने वोट डाले। उप चुनाव आयुक्त ने भी स्वीकार किया कि प्रथम चरण में ५८ से ६० प्रतिशत वोटिंग हुयी। जबकि मतदाताओं को जागरुक कराने के लिए सरकारी व गैर सरकारी स्तर पर जो कैम्पेन चलाया गया उतना बड़ा कैम्पेन अबतक नहीं चलाया गया था। मतदान इस बार ही इतना कम नहीं हुआ है। यह स्थिति कई चुनावों से है लेकिन कभी संसद या विधानसभाओं में इस पर सार्थक बहस नहीं हुयी। जबकि इसपर बहस जरुरी है और यह पहले ही हो जानी चाहिए थी। दूसरी बात मतदाताओं की जागरूकता के लिए जो कैम्पेन ऐन चुनाव के वक्त चलाया गया वह सरकार बनने के बाद पांच साल सतत क्यों नहीं चलाया जाता है। यह सवाल भी अहम् है। शायद आजादी के बाद से अबतक लोगों को लोकतंत्र व उसके महत्व के बारे में समझाने की कोशिश नहीं की गई। अब परिणाम सामने है। औसतन ६० प्रतिशत वोट पडे। उसमें भी यदि उत्तर प्रदेश व बिहार की बात की जाए तो कुल मत प्रतिशत ४० से ऊपर नहीं जाएगा। इससे राजनीतिकों का चिंतित होना लाजिमी है। लेकिन इसके कारणों की खोज के बजाय अब मतदान की अनिवार्यता की बात उठाने लगी है जो कहीं न कहीं राजतंत्रीय मानसिकता का हिस्सा है, तबतक कि जबतक मतदाता को निगेटिव वोट का विकल्प न दे दिया जाय। क्योंकि प्रत्याशी जनता का होता नहीं है, उसे पार्टियाँ अपने मन से तय कर देती है। ऐसे में यदि मतदान अनिवार्य हो जाएगा तो बचा खुचा लोकतंत्र भी गायब हो जाएगा। क्योंकि तब भले ही पार्टियों द्वारा चयनित प्रत्याशी जनता कि पसंद न हों लेकिन उन्हीं में से चुनना मजबूरी होगी। यह लोकतंत्र की भावना के बिल्कुल विपरीत है। यह बांधकर वोट लेने जैसा होगा। मतदाता बंधुआ हो जाएगा। हाँ अपने मताधिकार का प्रयोग करना सबका अधिकार है और उसका उपयोग हर किसी को करना चाहिए। इसके लिए कानून बनेगा तो अधिकार बंधन हो जाएगा।
फिलहाल मतदान की अनिवार्यता की बात बाद की है। इसके पहले भी एक पहलू है जिसपर सोचना जरुरी है। वह है लोकतंत्र की समझ पैदा करने की कोशिश। लोक में यह विश्वाश पैदा हो कि तंत्र उसका है। दुर्भाग्य है कि अभी तक लोक को यह विश्वाश ही नहीं हो सका कि तंत्र उसका है। जनता ने हमेशा देखा व महसूस किया है कि वह जिस प्रत्याशी का चयन करती है वह प्रत्याशी अपने दल की किसी भी जनविरोधी नीतियों के खिलाफ जनता के पक्ष में खडा नहीं होता है। एक तरह से वह जनता व उसके महत्व को इंकार कर देता है और दल के पक्ष में खड़ा हो जाता है। जनता अब दल व प्रत्याशी दोनों से ऊब गई है। कम मत प्रतिशत इसका जीता जगाता सबूत है। मतदान की अनिवार्यता के आलावा एक विकल्प यह भी हो सकता है कि जनता को उसके संस्कारों के प्रति जागरूक किया जाय। स्व अनुशासन के प्रति जागरूक किया जाय। संस्कार की बात होगी तो संस्कृति कि बात भी करनी पड़ेगी। संस्कृति की बात करने वालों को नैतिक होना होगा और नैतिकता के विकास से ही कुछ संभव है। इसकी पहल होनी चाहिए और लगातार होनी चाहिए।
19.4.09
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