प्रकाश चंडालिया
मां, माटी और मानुष का नारा इन दिनों पश्चिम बंगाल में चुनावी नारा बना हुआ है। यह अलग बात है कि नारा देने वालों की निष्ठा भी संदेह के घेरे में है। सियासत के नाम पर जो भी हो,पर इतना तो है कि नारे में है दम...। जहां तक सियासत का मामला है, हम हिन्दुस्तानी अपने नेताओं की वैचारिक गरीबी पर आंसू बहाने के सिवा भला कर भी क्या सकते हैं। एक अच्छे शायर ने इन नेताओं की नौटंकी पर क्या खूब लिखा है-सियासत के तूफान में हैं वे तिनके की तरहउनकी मजबूरी समझता हूं, उनपे खफा होते हुए।बहरहाल, यह तो बात रही सियासत का दांव चलने वालों की। अब मैं बात करना चाहता हूं, मां-माटी और मानुष के नेह की।राजस्थान में चूरू जिले में रतनगढ़ के समीप गांव है राजलदेसर। मेरा जन्म उसी माटी पर हुआ है। लाजिमी है, इस माटी से नेह का नाता रहना। इसी माटी पर जन्मे हैं श्री प्रदीप कुण्डलिया। राजस्थान के कवि स्व. रायचन्द कुण्डलिया के पुत्र हैं वे। माटी के प्रति उनका मोह मैंने हमेशा देखा-परखा है। प्रदीपजी के परिवार पर रामजी की भरपूर मेहर है। उन्होंने देश और दुनिया के तमाम अच्छे-बुरे रंग देखे हैं। दुनिया के कई बड़े देशों की यात्रा की है उन्होंने। कल यानी गुरुवार 8 मई को रात मैं कोलकाता में अपने अखबारी दायित्व निभाकर घर लौट रहा था, तभी मोबाइल पर घंटी बजी। अजीब सा नंबर देखकर चौंक गया। फोन उठाया। उधर से आवाज आई-ठेठ अपनायत से भरी हुयी। प्रदीप बोल रहा हूं-अमेरिका से। मेरे लिए सुखद अनुभूति थी यह। सुदूर अमेरिका में बैठे प्रदीपजी ने मुझे सहसा याद किया, यह मेरे लिए अत्यन्त चौंकाने वाली बात थी। मैंने उनके समक्ष अपनी अनुभूति का बखान किया। उन्होंने स्नेह भाव से मुस्कान भरे अंदाज में अपनी बातें रखी। प्रदीपजी और कनक भाभीजी अपनी लाडली नुपूर से मिलने इन दिनों अमेरिका गए हैं। उन्होंने अपने अंदाज में वहां की सुखद अनुभूतियां बताईं। प्रदीपजी को प्रकृति से कितना गहरा लगाव है, यह मैं अच्छी तरह जानता हूं। अमेरिका के तमाम अनुभव बताने के बाद उनका यह कहना कि अपने गांव की माटी की खुशबू के आगे सब फीका है यार। मैं इत्मीनान से कह सकता हूं कि उनका यह आकलन कोरा थोथा नहीं है। गांव में मैंने उन्हें ठेठ गंवई अंदाज में विचरण करते देखा है। कोलकाता में उनकी शोहरत भी गजब कहर बरपाती है। फिल्में भी बनाईं हैं उन्होंने। कामयाबी के शिखर पर रहे हैं वे। ऐसा व्यक्ति अमेरिका जैसे साम्राज्यवादी मुल्क की माटी से यदि अपने गांव को याद करता है, तो यही कहना चाहूंगा कि चन्दन है इस देश की माटी....।
4 comments:
Nicely written.jai hind
hitesh agrawal
Apna watan kise achha nahi lagta. Koi jab apni mitti se door rahta tabhi, apni mitti ke dard ko samajhta hai. Mr Prakash has made me think of my native, which my forefathers have left decades back, and I have never been there. Congrats.
Dr Rashmi Kanjroo,
Lucknow
ek yahi bandhan hai jo itne door hote hue bhi hume baandhe rakhta hai...janmbhoomi,maati ka bandhan...kaise bhool jaayen...
mati aur maa ek jaisi hi hoti hai, appke post se sukun mila, per mein apani genetic roots ke karib aa gayee aur bangal me janmi mati se door ho gayee
Post a Comment