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9.10.09

pankaj jee

गीत एवं नवगीत के स्पर्श-बिन्दु के कवि ’पंकज’










डॉ० रामवरण चौधरी





16 सितम्बर 1977 की आधी रात को ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ हमें छोड़ गये। मात्र 58 वर्ष की उम्र में एक सुन्दर तारा टूट गया। इसके 20 वर्ष पीछे लौट जाएं तो संभवत: 1957 या इसके भी कुछ पूर्व वे साहित्य साधना के शीर्ष पर रहे होंगे। इस अनुमान की भाषा को इसलिये बोलना पड़ रहा क्योंकि उन दिनों के कवि प्राय: आत्मविज्ञापन के प्रति सचेत नहीं रहा करते थे। परिणामत: पंकज की काव्य-यात्रा का कोई निश्चित वृत्तान्त मेरे पास नहीं है, हैं तो, बस, उनके गीत — उनकी कविताएं।



पंकज जी एस. पी. कालेज दुमका में हिन्दी के विभागाध्यक्ष थे। इसके पूर्व वे कई स्कूल के टीचर थे, देवघर के हिन्दी विद्यापीठ में भी कई वर्षों तक अध्यापन किया था।



यदि पंकज जी की आयु लम्बी होती और समय से मैं एस. पी. कालेज आया होता तो साथ कार्य करने का मीठा अनुभव मेरे साथ होता। मगर ऐसा हो नहीं सका।



दुमका में उत्पल जी मेरे अभिभावक थे। जब भी मैं कोई अपना गीत उत्पल जी को सुनाता तो वे पंकज जी के गीतों की चर्चा छेड़ देते थे।



हिन्दी और अंगिका के साधक साहित्यकार सुमन भी कुछ दिन पूर्व हमें छोड़कर चले गये। ’भाषा संगम’ से प्रकाशित बाँस-बाँस बाँसुरी में ’अतीत की प्रेरणायें’ स्तम्भ में हम लोगों ने पंकज जी के दो गीत प्रकाशित किये हैं। इन दोनों ही गीतों ने मुझे मुग्ध किया है।



पंकज के गीतों की दो एक पंक्तियाँ सुमन जी सुना दिया करते थे। बड़ी तृप्ति मिलती थी।



2005 में मैंने डॉ० चतुर्भुज नारायण मिश्र एवं जगदीशमंडल जी ने पंकज जी का पुण्य दिवस मनाने का निर्णय लिया था। इसी क्रम में दोनों प्रकाशित पुस्तकें ’स्नेह-दीप’ एवं ’उद्‍गार’ गौर से पढ़ने का सुयोग मिला। मैं अभिभूत हुआ मगर दु:ख भी हुआ कि संताल परगना का इतना सिद्ध कवि आज तक गुमनाम रहा।



कवि की मृत्यु नहीं होती। 30 जून 2009 को पंकज जी की भव्य 90वीं जयन्ती मनायी गयी। इस कार्यक्रम में उनके तीनों ही पुत्रों ने, कहिए समूचे परिवार ने, कह सकते हैं कि सम्पूर्ण दुमका ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया और लगा कि पंकज जी जीवित हो उठे हैं। बहुत अच्छा लगा। दुनिया के और लोग लेने आते हैं, कवि देने आता है।



आज वैश्वीकरण के दौर में बाजारवाद ने आदमी के जीवन को बदल दिया है। परिणाम है कि जो व्यक्ति नैतिकता और मूल्य की बात करता है, उसे ’छाड़न’ का आदमी माना जाता है। गांव गांव नहीं रहा, समाज समाज नहीं रहा। हर आदमी दौड़ रहा है, उसकी दौड़ अपनी और अकेली है। भीड़ के बीच का यह अकेलापन जीवन को घेरता चला जा रहा है। साहित्य और संस्कृति में इसके प्रतिबिम्ब स्पष्ट नजर आते है। एक तरफ आदि़मकाल से चली आती हमारी परंपराएं है, दूसरी तरफ इन पर चोट करती पश्चिम से आने वाली आंधियां है। भारतीय जीवन-मूल्य बेचारा लहरों का राजहंस बना थपेड़ों के बीच डोल रहा है।



खड़ी बोली के विकास के साथ छायावाद के नाम से एक बड़ा काव्यांदोलन खड़ा हुआ जिसके चार विशिष्ट कवि — प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी वर्मा हुए। छायावाद के बाद प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नयी कविता, नयी कहानी, नवगीत आदि के नाम से हिन्दी कविता के तेवर बदलते रहे और बदल रहे हैं।



पंकज जी जब छात्र रहे होंगे तो छायावाद की धमस का काल रहा होगा, जब शिक्षक बने होंगे तो प्रगतिवाद की प्रतिध्वनियां सुनी होंगी और जब साहित्य साधना में पूरी तरह सन्नद्ध हुए होंगे तो प्रयोग का दौर शुरू हो चुका होगा।



इस प्रकार विचार करने से निष्कर्ष आता है कि पंकज जी के भीतर के गीतकार ने मैथिली शरण के गीतों को पीया होगा। महादेवी, पंत, निराला, दिनकर, जानकी वल्लभ शास्त्री, हंस कुमार तिवारी, द्विज, गोपाल सिंह नेपाली आदि के मनहर गीत इनकी प्रेरणा के केन्द्र में रहे होंगे।



महाप्राण निराला ने छंद के बंधन तोड़े थे, किन्तु कविता के अंतर्लय को प्राण-वायु के रूप में स्वीकार किया था। ’जुही की कली’ और ’राम की शक्ति पूजा’ का अंतर्नाद एवं प्रवाह अन्यत्र शायद ही मिले कहीं। मगर ’नई कविता’ के नाम पर जो आंदोलन आया उसमें छंद और लय से प्राय: कविता को विलगा दिया। अत: इस दौर की कविताएं (कुछ को छोड़कर) छिन्न लगती है। छंद से छिन्न कविता जनमानस से भी टूट गयी। इसीलिये राजेन्द्र गौतम ने लिखा है, और ठीक ही लिखा है कि “पचास वर्षों की हिन्दी की छंदमुक्त कविता में देश का ’एरियल सर्वे’ ही मिलता है…. समकालीन कविता का बहुलांश ऐसा है जिसमें ऋतुएं गायब हैं, गांव अनुपस्थित हैं, प्रकृति का दूर-दूर तक अस्तित्व नहीं” (आजकल, अप्रेल 2009, पेज 17)।



कविता यदि आज भी जीवित है, लोकजीवन से इसका सीधा सरोकार है तो गीतों के ही कारण। क्योंकि गीत छूता है, झंकृत और आह्लादित करता है।



पंकज जी के गीत ही नहीं, इनकी कविताएं — सभी की सभी — छंदों के अनुशासन में बंधी हैं।



गीत यदि बिंब है तो संगीत इसका प्रकाश है, रिफ्लेक्शन है, प्रतिबिंब है। गीत का आधार शब्द है और संगीत का आधार नाद है। संगीत गीत की परिणति है। जिस गीत के भीतर संगीत नहीं है वह आकाश का वैसा सूखा बादल है, जिसके भीतर पानी नहीं होता, जो बरसता नहीं है, धरती को सराबोर नहीं करता है।



पंकज जी के गीतों में सहज संगीत है, इन गीतों का शिल्प इतना सुघर है कि कोई गायक इन्हें तुरत गा सकता है।



चोटी के नवगीत का देवेन्द्र शर्मा ’इन्द्र’ गीत और नवगीत के अन्तर्संबंध को व्याख्यायित करते हुए कहते है — “पारंपरिक गीत और नवगीत में जनक-जन्य और कारण-कार्य संबद्धता है। नवगीत ने पूर्वतन, काव्यरूढियों को जहां नकारा है, वहां परंपरा के प्राणवाही तत्वों का अंतर्भाव भी किया है। दोनों ही छंदोबद्ध, लयात्मक और गेय होते हैं, किन्तु जहां तक इनकी अंतर्वस्तुओं का संबंध है, वहां ये एक-दूसरे से भिन्न है” (आजकल, अप्रेल 2009 पेज 32)।



यह सच है कि नवगीत की जमीन सामाजिक संदर्भों की माटी से बनी है। यहां व्यक्तिगत प्रेमरूदन, भावुक संवेदन, स्वप्न-संसार से ज्यादा सामाजिक विसंगतियां, विद्रोह की मनसिकता बलवत्तर है।



तो क्या पंकज के गीतों में आत्मरूदन एवं स्वप्न ही है केवल? या कुछ और?



ऋगवेद के दशम्‌ मंडल में कई ऋचाएं मिल जाती है जब थका हुआ सवित(सूर्य) कभी उषा, कभी संध्या के आंचल में विश्राम करता है। चाहे कोई तीर्थ यात्रा हो या जीवन-यात्रा, चलने के लिये दो पल का आराम तो चाहिये ही। फिर यदि कोई मनमीत साथ हो तो विश्राम में कुछ और मजा आ जाता है। यह विश्राम क्यों? क्योंकि खोई उर्जा मिल जाए, थोड़ी जिजीविषा मिल जाए, थोड़ी स्फूर्ति मिल जाए। यह विश्राम रूकना नहीं है, बल्कि दुलकी चाल चलने की तैयारी मात्र है। पंकज जी लिखते है —







हम राही है विर में छन भर

फिर तो अपनी राह चलेंगे

आओ उर की गांठ खोल लें

अपनी अपनी बात कहेंगे।

कवि को तो चलना ही चलना है, चलते ही रहना है। यह चलना — संघर्षवाची चलना है। निरंतरता इसके भीतर की आकांक्षा है। मगर कवि दो पल विरमना चाहता है। क्यों? इसलिये कि मन की गांठों को खोलना है। मन की गांठ बहुत वजनदार होती है। उसके खुलते ही मन हल्का हो जाता है, पांवों में पंख लग जाते है। आगे पंकज जी खुद लिखते है —







नूतन परिचय का बल पाकर

कल की दूरी तय कर लेंगे।

लगता है पंकज जी को गीत की नाजूकता का पूरा ही ज्ञान है। “हम राही है विर में छन भर”. यहां तत्सम क्षण का प्रयोग किया जाता तो ’क्ष’ और ’ण’ दोनों ही कठोर वर्ण होते जबकि ’छन’ में दोनों ही कोमल वर्ण है तथा गांव की माटी की सुगंध है, सो अलग से।



एक दूसरा गीत देखा जाए —







गुमसुम गुमसुम चांद गगन में और उनींदी रात है

जानें रह रह याद आ रही किस अतीत की बात है

प्रथम गीत 16 मात्राओं का है, द्वितीय गीत 28 मात्राओं का। कहीं एक मात्रा भी इधर-उधर नहीं, कहीं यतिभंग नहीं, ताल-तुक में सोलह आने सधे हुए।



गीत के अतिरिक्त पंकज जी ने ढेर सारी कविताएं लिखी हैं जिन्हें आप ’स्नेह-दीप’ और ’उद्‌गार’ में देख सकते है। ये कविताएं बहुरंगिनी हैं। हां, राष्ट्रप्रेम की धारा इनमें मुख्य है, क्योंकि आजादी के संघर्ष को इन्होंने जिया था, अनुभव किया था।



मगर पंकज जी को छायावादी कवि कहना उचित नहीं होगा। ये आकाशचारी नहीं रहे। जमीन का खुरदुरापन, ढेलाधक्कर का सामना इन्हें सदा करना पड़ा था। साथ ही, माटी की सुगंध का भरापूरा एहसास इनके गीतों में मिलता है। इन्हें और कुछ नहीं कहकर माटी का गीतकार कहना मुझे ज्यादा ही अच्छा लगता है।



सुना है इनके आलोचनात्मक निबंध तत्कालीन उच्चस्तरीय पत्रिकाओं में छपते थे। नाट्‌य-विद्या में भी उनकी अच्छी पैठ थी। उनकी बहुत सारी रचनाएं अभी भी अप्रकाशित पड़ी है। यह शब्द जान सुनकर मन दुखित होता है। क्या संताल परगना के साहित्यकारों की यहीं नियति है?

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