आज मै अपने कवि मित्र पवन करण के नवीन काव्य संग्रह ‘अस्पताल के बाहर टेलीफोन’ जो अभी राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है को पढ रहा था,तभी मैने उसमे एक कविता पढी जिसका शीर्षक था ‘एक अभिभाषक के बारे मे’। पवन करण हिन्दी साहित्य के लब्ध प्रतिष्ठित कवियों मे से एक है उनके काव्य मे गजब की संवेदना होती है।
मुझे कविता पढने के बाद लगा कि मुझे यह आपको भी पढानी चाहिए सो मैने श्रम साध्य करके यह कविता आपके लिए उनकी पुस्तक मे से टाईप की है आशा करता हूं कि आपको यह कविता पसंद आएगी।
एक अभिभाषक के बारे में
‘एक हाथ मे आदमी का कटा हुआ सिर
और दूसरे में नोटो का भरा हुआ झोला
वकील साहब के लेकर चले आइए आप,क्या मज़ाल
जो फिर कानून के हाथों आपका बाल बाँका भी हो जाए
वकील साहब का इतना नाम यों ही तो नही आखिर
मंत्री-संत्री की तो औकात क्या उनसे मिलने
मुख्यमंत्री तक को लेना पडता है समय
न्यायाधीश के पद को कई दफे मार चूके वे ठोकर
यह उनकी ख्याति है कि अपराधी के दिमाग में
सबसे पहले जो नाम होता है वह उनका होता है
मगर उठाईगीरों के साथ-साथ खासे सूरमा भी
उन्हें अपना केस लडने को तैयार करने से पहले
उनके दफ्तर की देहरी चढते हुए सौ बार सोचते हैं
कई न्यायाधीश उन्हें काला कोट पहने
जिरह करने आते देख अपने कोर्ट में उनके सम्मान में
उठकर हो जाते है खडे और उनसे नही करते
बिना सर कहे बातचीत,कई तो उनके शिष्यों में से
जज बने बैठे है आखिर इन नए-नए जजों की
उनके अनुभव और वरिष्ठता के सामने क्या गणना
कई प्रकरणों के फैसले तो वे अपने प्रभाव से ही
इन न्यायाधीशों से अपने पक्ष मे करवा लेते हैं
उन्हें उस अभियुक्त से मिलकर खुशी नही होती
जो रिरियाते हुई कहता है मुझे झूठा फँसाया गया है
वकील साहब मुझे बचाइए मैंने कोई अपराध नही किया
उसे बचाने की तो वकील साहब की इच्छा ही नहीं होती
वकील साहब को तो वह अपराधी पसंद है जो
छाती ठोककर हँसते हुए उनके सामने कहता है
हाँ साहब,अपराध मैंने किया है
अब यह आपके उपर है कि आप मुझे किस तरह बचाते हैं
आप तो ये बोलो नोट कितने लगेंगे
आपकी जेबें नोटों की गड्डियों से भरी हों तो भी क्या
यह ज़रुरी नहीं कि एक हवाई जहाज़ से
दूसरे हवाई जहाज़,एक शहर से दूसरे शहर
यात्राओं पर रहते वकील साहब आपको घास डाल ही दें
आपके तीसमार खाँ बने रहने के बावजूद ले ही लें,आपका केस
लक्ष्मी की कोई कमी तो बची नहीं उनके पास
वे अपने दफ्तर के दरवाज़े की तो छोडिए
घर के रौशनदान से भी बाहर झाँके तो उन्हें वहाँ भी
एक अभियुक्त अपनी पीठ पर नोंटो से भरा झोला टाँगे मिलेगा खडा
वह दिन उस न्यायपालिका के लिए बडा दिन होता है
जिस दिन वकील साहब जिस शहर मे होते है
जैसे आज वे अपने शहर में ही हैं
अलग-अलग प्रकरणों मे करनी हैं आज उनको बहस
एक प्रकरण में हत्यारे के खिलाफ चश्मदीद
गवाहों को ही संदेह के घेरे में लाते हुए कर देना है उन्हें
बचकर भागने के लिए मजबूर
बलात्कार से क्षत-विक्षत एक स्त्री को ही
करना है बदचलन घोषित और
नोंटो की गड्डियों पर नंगे होकर नाचते एक नामचीन को
कानून के फँदे से निष्कलंक निकालकर लाना है बाहर
और हर शाम की तरह आज शाम भी
लगभग थूकने के अन्दाज़ मे अपने घर की
अलमारी मे पटकते हुए नोंटो की गड्डियाँ
हम प्याला साथिय़ों के बीच मारते हुए आँख कहना है
न्याय को उँगलियों पर नचाना चाहते हो
तो उस पर संदेह पैदा करते हुए
उसे कठघरे मे खडा करना सीखो।
साभार
पवन करण- (अस्पताल के बाहर टेलीफोन)
राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली
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प्रस्तुति- डा.अजीत
10.4.10
कविता
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1 comment:
sundar post...
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