हम किसी की मदद करें और बदले में वह हमें थैंक्स तक न कहे तो हम मन ही मन कुढ़ते रहते हैं और मौका मिलते ही उसे खरी-खोटी सुनाने में देर नहीं करते। अब जरा यह तो याद करें हमने कितने लोगों के प्रति धन्यवाद का फर्ज अदा किया। हम तो इसी भ्रम में जी रहे हैं कि जिस भी मुकाम पर पहुंचे हैं, रात-दिन एक कर अपनी मेहनत से पहुंचे हैं। जबकि सफलता वाली मंजिल के हर मोड़ पर प्रकृति से लेकर परिजन तक जाने कितने लोगों ने हमारे लिए त्याग किया है, उन सब ने तो आजतक हमसे धन्यवाद की अपेक्षा नहीं की।
शिमला में ट्रांसफर के बाद भी मेरी वही धारणा है कि पूर्वजन्म में इस शहर के लोगों का कुछ कर्ज बाकी रह गया होगा। इससे पहले जहां-जहां ट्रांसफर हुए, इसी सोच ने मुझे चुनौतियों का सामना करने की ताकत भी दी है।
जब आप किसी शहर में नए, अकेले होते हैं तो सबसे अनियमित खानपान ही होता है। आज यहां, कल वहां, जब जहां जैसा मिल जाए, ये सारी चीजें हमें स्वाद से ज्यादा हर हाल में एडजस्ट करना तो सिखाती ही हैं। उस दिन मैंने अपने मित्र जसवंत सिंह पवार को फोन लगाया कि चलो कुछ कर्ज उतार आएं। उन्होंने कहा मैं गेयटी में मैनेजर के रूम में बैठा हूं, यहीं आ जाओ। इस विश्व प्रसिद्ध थियेटर के मैनेजर सुदर्शन शर्मा से यह मेरी पहली मुलाकात थी। जितनी देर बैठे, जो चर्चा हुई, मुझे सीखने को यह मिला कि काम करते रहो फल की चिंता मत करो। वैसे भी यदि हम आम के बीज बोएंगे तो कैक्टस नहीं आम ही पैदा होंगे।आग में खाक होने के बाद गेयटी आज सिर ऊंचा किए खड़ा है तो सरकारी मदद के साथ सुदर्शन शर्मा जैसे न जाने कितने छोटे कर्मचारियों सहयोग रहा है।
गेयटी की ही तरह हमने भी न जाने कितनी ठोकरें खाईं, जाने कितने पापड़ बेले, तब कहीं मुकाम हासिल कर पाए। हमारी उपलब्धियों का जब यशोगान होता है तो हम और अकड़ कर बैठ जाते हैं। उन क्षणों में हमें भीड़ में ताली बजाते लोगों में वो चेहरे भी अंजान लगते हैं जिनके छोटे-छोटे त्याग की सीढिय़ों से हम सम्मान के मंच तक पहुंचते हैं।
दूर क्यों जाएं, बोर्ड एग्जाम में उपलब्धि हासिल करने पर हमारी तरह हमारे बच्चे भी सफलता का सारा श्रेय रात-रात भर जागकर की गई पढ़ाई को देते हैं। तब याद नहीं रहता कि बड़ी बहन अलार्म लगाती थी, वह पढऩे के लिए उठाती और हम झिड़क देते थे। मां जागती रहती थी कि हमारी आंख न लग जाए, चाय-काफी बनाकर देती थी। सुबह परीक्षा के लिए रवाना होने से पहले दही-शक्कर, पेड़े से मुंह मीठा कराकर भेजती थी। परिजनों की तरह हमारे टीचर भी हर वक्त हमारी परेशानी दूर करने को तत्पर रहते थे। मदद करते वक्त भी इन सबका यही स्वार्थ रहता था कि किसी तरह हम मंजिल हासिल कर लें। परीक्षा देते वक्त जब हमारा पेन चलते-चलते अचानक रुक गया था, तब पड़ोस की टेबल के उस अंजान परीक्षार्थी ने अपना एक्स्ट्रा पेन देकर हमारी मदद नहीं की होती तो उस पेपर में शायद ही हमें अच्छे नंबर मिल पाते।
बचपन से लेकर पचपन तक हर मोड़ पर अकसर ऐसे व्यक्ति मिलते ही रहे हैं जो बिना किसी स्वार्थ के हमारी मदद करके खुशबू के एक झोंके की तरह आए और चले गए। एक पल को आंखें बंद करें तो सही, रिप्ले में वो सारे खुदाई खिदमतगार सामने आ जाएंगे, इस पल ही हमें अहसास होगा कि जिस ऊंचाई पर हमारे पैर जमे हुए हैं वह नीचे की जमीन ऐसे ही लोगोंं के अहसान के कारण सख्त बनी हुई है। मन में यह विचार भी आ सकता है कि ये सारे लोग मिल जाएं तो थैंक्स कहकर एहसान उतार दें।
अच्छा तो यह होगा कि जिन लोगों ने हमारी थोड़ी सी भी मदद की है उनका यह कर्ज उतारने के लिए हम भी किसी के काम आ जाएं और यह अपेक्षा भी न करें कि कोई हमारा नाम याद रखेगा। हमारी संस्कृति में गुप्तदान की परंपरा भी तो सदियों से चली आ रही है। मोमबत्ती का ही त्याग देखिए, घुप्प अंधेरे में हमें उजाला देने के लिए जलती-पिघलती जाती है, लाइट आते ही हम उसे फूंक मार कर बुझा देते हैं। फिर जब अचानक लाइट चली जाती है तो माचिस की तीली के आगे खुशी-खुशी आत्मदाह करने वाली मोमबत्ती यह नहीं कहती की उसके त्याग का इतिहास लिखा जाए।
बिना किसी चाह की कामना के जब पत्थर मारने वालों को भी पेड़ मीठे फल देते हैं, बिना किसी भेदभाव के बादल सबका आंगन गीला करते हैं, झोपड़ी से लेकर सीएम हाउस तक रोशनी बांटने में सूरज समाजवाद के पुरोधा की तरह काम करता है, फिर हम क्यों किसी के काम नहीं आ सकते। प्रकृति का आभार व्यक्त करना तो हम भूल ही गए हैं लेकिन क्या हवा, बादल, सूरज, चांद, पेड़ और हमारी अपनी मां से बिना किसी अपेक्षा के सबके भले के लिए काम करते रहने के संस्कार भी नहीं ले सकते?
2 comments:
बहुत बढिया
, आप की बातों पर अमल जरुर करेगे
ek acchi parastutu
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