आखिर हम लिखते क्यों हैं? लिखना कोई रोग है या मजबूरी या कुछ और? इससे क्या हासिल हो सकता है? इन सवालों पर आप क्या जवाब देंगे? लिखना कुछ भी हो सकता है। कोई जरूरी नहीं कि वह साहित्य ही हो। लिखने वाला नहीं जानता कि वह जो लिख रहा है, वह साहित्य के रूप में जाना जायेगा या नहीं फिर भी वह लिखता है। यह भी जरूरी नहीं कि लिखने का कोई उद्देश्य हो। कभी-कभी लिखना आदत जैसा होता है। बिना लिखे चैन नहीं मिलता, मन भटकता रहता है, अस्थिर बना रहता है, कुछ खोया-खोया सा लगता है। लिखने के एकदम पहले मन कहीं टिकता नहीं, कोई आ धमके तो उससे बात करने का जी नहीं होता, कोई बुला दे तो गुस्सा आता है।
ऐसे होते हैं, जो लिखने के पहले उसके ढांचे, उसकी भाषा, उसके प्रभाव, उसके उद्देश्य पर गौर करते हैं। उनका लिखना नियोजित होता है। जैसे कोई खंडकाव्य, महाकाव्य या चरित काव्य लिख रहा है तो पूरा इतिवृत्त उसके सामने है। उस पर पहले भी बहुत कुछ लिखा गया है, इसलिए उसका व्यापक संदर्भ भी मौजूद है। अगर केवल काव्य-रुपांतरण करना है, कहानी याद भर दिलानी है तो कोई कठिनाई नहीं है। इसलिए कि तब लेखन यांत्रिक हो कुछ लोगजायेगा। बुद्धि केवल शिल्प पर केंद्रित रहेगी। यह तीसरे दर्जे का लेखन है क्योंकि इसमें अपने भीतर का स्फुलिंग काम नहीं आयेगा, अपनी मेधा की चमक प्रकट नहीं होगी। जब दृष्टि उधार की हो तब ज्यादा कुछ करना नहीं होता।
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30.4.10
हम आखिर लिखते क्यों हैं
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3 comments:
thik kaha aapne
आपसे पूरण रूप से सहमत हूँ
ऐसे ही लिखते रहिये
बहुत बढिया
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