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27.4.10

राजेन्द्र यादव के नाम एक पत्र



हंस का मार्च अंक पढ़ने के बाद
 राजेन्द्र जी नमस्ते,

आपके सानंद होने की कामना करता हूँ.

सबसे पहले तो हंस ऑनलाइन करने पर आपको बहुत सा आभार 

              

एक तरफ सरकारी जमाइयों के आठ प्रतिशत महंगाई भत्ता बढ़  गया है,दूजी और महानरेगा के मजदूर उसी मजदूरी के साथ इस खबर से बेखबर होकर गेंथी ,फावड़ा,तगारी लिए लगे हुए हैं काम में.दोपहरी भी अब तो ज्यादा गरम हो चली है.ऐसे माहौल  में ही हंस के मार्च का अंक पढ़ा-पढ़ाकर अपनी प्रतिक्रियाओं भरा ये पत्र आपको भेज रहा हूँ.राजेन्द्र जी हंस के प्रकाशन में आपका निर्देशन,लेखन और भड़कीले सम्पादकीय का मैं कायल हूँ.आपके द्वारा पाठकों के कटु पत्रों को हु-ब-हु  छापने का काम बहुत पसंद आया.इस बेबाकीभरी अदा पर मैं फ़िदा हूँ.





पिछले दो-तीन अंको से पत्रिका के ले-आउट में परिवर्तन नवीनता के साथ थोड़ा जरुरत के मुताबिक़ भी लगा है.चित्तौडगढ ठीक-ठाक शहर है.लेकिन पाठकीयता की कंजूसी की वजह से यहाँ का बाज़ार नहीं के बराबर मानिए.शायद  लोग पढ़ते हो गुपचुप ,तो मालूम नहीं. रेलवे स्टेशन पर तीन-चार बार के जाने पर प्लेटफोर्म टिकट लेकर हंस हासिल हो पाती है.कभी स्टाल बंद,कभी हंस ख़त्म कभी हंस के आने पहले मेरा जा धड़कना.लगभग तनख्वाह से भी जयादा इन्तजार रहता है पत्रिका का.आपकी पूरी और ऊर्जावान टीम को हमारी बधाई.





कवरपेज  के फोटो हमेशा सार्थक ही लगते रहे.मगर भीतर के रेखाचित्रों को उस नज़र से नहीं देख पता हूँ. खैर नए-नवेले रचनाकारों की अंगूली पकड़कर मंच तक लाने की आपकी विलग राह से आपकी सेवा बहुत समय तक पहचानी जायेगी.सम्पादकीय से शुरू पत्रिका पढ़ते-पढ़ते और साथ ही पत्नी को कथाएं सुनाते हुए ये कब ख़त्म हो जाती है कम ही ध्यान रहता है.और अचानक भारत भारद्वाज जी का समकालीन सृजन वाला पेज आ जाता है.


कई और पत्रिकाओं की तरह साग-भाजी के बढ़ते दामों वाले वक्त में भी  पच्चीस रूपये खर्चना हंस के लिए दिल नहीं दुखाता है.मगर ये ही बात औरों पर लागू नहीं होती. अपना मोर्चा स्तम्भ  में पाठको के  सुझावों के साथ कड़वे-मीठे पत्रों को पढ़ना भी एक ख़ास तरह की ताज़गी देता है.यथासमय पत्रिका में आवश्यक विज्ञापन भी सूचनापरक होने से पढ़ने में आते हैं. इस बार पिंडदान जैसी कहानी के ज़रिये जयश्री रॉय को संभावित लेखिका  का दर्ज़ा दिया जाना ठीक निर्णय रहा.वहीं पंचनामा भी बहुत अंदर  तक असर करती कहानी है.पुन्नी  सिंह जी को चित्तौडगढ शहर के सभी पाठकों की और से बधाई.


हंस को हम मित्र-मंडली में ले-देकर पढ़ लेते हैं.ये लेनदेन और पत्रिकाओं तक भी रहता है.युवा कथाकार एम्.हनीफ मदार की लेखनी में बहुत ऊर्जा भरी है,जो कहानी 'अब खतरे से बाहर है' में उफनती नज़र आई है. आजकल कवितायें भी पढ़ने लगा है,और ब्लॉग्गिंग के चस्के से कुछ कविताओं जैसा  भी लिख डालता हूँ.प्रताप राव कदम की असलीयतभरी  और अपने ही मौहल्ले की कथा कहती कविता छू गयी. '  जिन्होंने मुझे बिगाड़ा' स्तम्भ को बहुत आकर्षण के साथ अरसे से  पढ़ता रहा हूँ.अब तो मुझे भी लगने लगा है कि मैं बिगड़ रहा हूँ.मैनेजर पांडे को पढ़ते रहें हैं,मगर उनके लेख से ये अंक और भी वजनदार हुआ है.हमारी अपनी ही लगती इस  पत्रिका हंस का सबसे ज्यादा आकर्षक कॉलम कसौटी है,मुकेश जी के व्यंगभरे असल तस्वीर खींचते विचार पाठकों  को मीडिया के अनछूए पहलुओं से परिचित कराते हैं.ज्ञानवर्धक  सामग्री पर उनके कृतज्ञ हैं.ख़ास तौर पर इस अंक में चेतन भगत के अंग्रेजी उपन्यास 'फाईव पॉइंट समवन व्हाट नोट टु  डु एट आई आई टी  ' की समीक्षा लेखन में अनंत  विजय ने बहुत मेहनत  की है.
कई बार अच्छी  समीक्षाओं के ज़रिये हम पुस्तक पढ़ने के काम से बच जाते हैं और कई बार क्या पढ़ना है ,पर जल्दी निर्णय कर पाते हैं.इसी अंक में प्रकाशित एक और पुस्तक समीक्षा पूरी तरह से पुस्तक के प्रति सच्चे हालचाल दिखाती लगती है,सार्थक और गहरा लेखन है.ऐसी समीक्षाएं पाठकों का कई रूपों में भला कर सकती है.सुधीश पचौरी की ''अध्य-पद्य बिंदास ''के लिए जयपाल सिंह जी तक बधाई पहुचाएं.सफ़र जारी रखें.सम्पादक जी ये पत्र हंस में छपे तो ठीक ना छपे तो भी ठीक वैसे केवल छपाने के मतलब से लिखा भी नहीं जाता,गौतम की ग़ज़ल और संजीव बाबू की बात बोलेगी  भी अच्छी लगी.संजीव जी के आलेख लगातार रूप से ज्ञानवर्धक होने के साथ-साथ पाठकों को पूरे रूप से बांधकर रखते हुए लेख पूरा पढ़ने तक छोड़ते नहीं है.भारत भारद्वाज पूरी मेहनत और दिल से अपने विचार लिख कर हंस के गठन में अपना पूरा मान रखते  दिखते हैं.उनके लिखे को पढ़कर हमें नित-नया छपा हुआ और पत्र-पत्रिकाओं  की पड़ताल सामने लिखी मिल जाती है.लम्बे चौड़े रचना संसार में इस तरह के समीक्षणपरक  आलेख पढ़ने के बाद पठन सामग्री के चयन में बड़ी सुविधा हो जाती है.अप्रैल के अंक का ले-आउट देख लिया है बस इन्तजार है.होकर की आवाज़ का जो इन्तजार रहा बस.वैसे मैं आकाशवाणी और स्पिक मैके  से झुड़ा हुआ  हूँ साथ ही सरकारी अध्यापक हूँ.अब धीरे धीरे  हंस के करीब आ रहा हूँ.



माणिक 

 






2 comments:

अरुणेश मिश्र said...

माणिक भाई , इस पत्र मे कोई अथंपूर्ण बात भी लिखी होती जो मार्च अंक की सार्थकता का संकेत करती । वैसँ हंस जीवन्त और ज्वलंत पत्रिका है , जो राजेन्द्र भाई की बहुआयामी तृप्ति पूर्ति का माध्यम है ।

''अपनी माटी'' वेबपत्रिका सम्पादन मंडल said...

अरुणेश जी आपकी बात का ध्यान आगे के अंक के बारे में लिखते हुए रखूंगा. थैंक्स
kaa अपनी माटी
माणिकनामा