अभी दो दिन पहले शिक्षक दिवस था और उसके मौके पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने क्या कहा शायद ही किसी को याद होगा। वे ऐसे शिक्षक हैं जिसने भारत के गरीबों के भाग्य बदलने के लिए कुछ भी नहीं किया। शिक्षक दिवस पर हमारे प्रधानमंत्री के पास बोलने के लिए कुछ भी नहीं था क्योंकि उनके शासनकाल में शिक्षा की स्थिति में और भी गिरावट आई है। गुण और मात्रा दोनों ही दृष्टियों से भारत का स्थान विश्व में काफी नीचे है।
इन दिनों जो लोग समाजवाद को गाली देते हैं। मार्क्सवाद को निरर्थक साबित करने में लगे हैं और अमेरिका के पदचिह्नों का अनुकरण करते हुए भारत में शिक्षा को विदेशी विद्यालयों के हाथों सौंप देना चाहते हैं और उन्हें नव्य उदार शिक्षा नीति से बेहतर कोई मार्ग नजर नहीं आ रहा ऐसे लोगों के लिए समाजवादी क्यूबा से सीखना चाहिए। जो लोग मार्क्सवाद की असफलता का अहर्निश राग अलापते रहते हैं और मार्क्सवाद के ऊपर कीचड़ उछालने के लिए मिथ्या प्रचार करते रहते हैं उन्हें क्यूबा की शिक्षा क्षेत्र की उपलब्धियों पर गौर करना चाहिए। क्यूबा की सच्चाई को हम फिदेल कास्त्रो के नजरिए से देखें तो कुछ नई चीजों पर भी रोशनी पड़ेगी।
फिदेल कास्त्रो ने लिखा है कि ‘‘मेरा हमेशा से विश्वास रहा है कि शिक्षा श्रेष्ठ और मानवीय कार्य है जिसमें लोगों को अपना जीवन लगाना चाहिए। इसके बगैर न विज्ञान होगा, न कला और न साहित्य; न उत्पादन होगा और न अर्थव्यवस्था, न स्वास्थ्य होगा और न कल्याण, न अच्छा जीवन होगा और न मनोरंजन तथा आत्म-सम्मान। सामाजिक जागरूकता भी नहीं होगी।’’
‘‘ज्ञान और संस्कृति सुलभ हो जाने मात्र से नैतिक सिध्दांत प्राप्त नहीं हो जाते। लेकिन ज्ञान और संस्कृति के बगैर कोई नीतिशास्त्र तक नहीं पहुंच सकता। इनके बिना किसी तरह की समानता या स्वतंत्रता संभव नहीं है। शिक्षा और संस्कृति के बगैर किसी भी तरह का लोकतंत्र संभव नहीं है। 100 से अधिक साल पहले जोसे मार्ती ने बड़े साफ तौर पर कहा था, 'शिक्षा ही मुक्ति का द्वार है।' ’’
‘‘हमारे मंत्री ने कहा कि क्रांति के समय हमारे देश में 23.6 प्रतिशत साक्षरता थी। मेरा जन्म गांव में हुआ और मैंने बचपन पूरी तरह से ग्रामीण इलाके में बिताया। मुझे उस समय की बहुत सी बातें याद हैं। मैं यहां कह सकता हूं कि वहां 20 प्रतिशत से कम लोग मुश्किल से पढ़-लिख सकते थे। बहुत मुश्किल से बहुत कम बच्चे छठी कक्षा तक पहुंच पाते थे। शहरों में अधिक स्कूल थे। इसलिए वहां निरक्षरों का प्रतिशत कम था।
इस तरह के आंकड़ों का अपेक्षाकृत अधिक मूल्य होता है। क्रांति की जीत के समय कितने बच्चे छठी कक्षा पास थे इस बारे में जांच करने से पता चला कि लगभग सत्तर लाख बाशिंदों में इनकी संख्या चार लाख थी। और वह छठी कक्षा कैसी थी! संक्षिप्त आंकड़े वास्तविकता को प्रकट नहीं करते। यदि सभी निरक्षरों को लिया जाए तो उस समय 90 प्रतिशत से अधिक क्यूबाई छठी कक्षा से आगे नहीं गए थे।’’
‘‘1959 के विश्वविद्यालय स्नातकों के सही आंकड़े मेरे पास नहीं हैं लेकिन इनकी संख्या तीस हजार से अधिक नहीं रही होगी। अपने लोगों को शिक्षा तथा पुनर्प्रशिक्षण और इसकी उच्च गुणवत्ता बनाए रखने की चार दशकों की जद्दोजहद के बाद आज हमारी 1 करोड़ 10 लाख से अधिक की आबादी में ऐसे बहुत कम नागरिक हैं जिन्होंने कम से कम नौवीं कक्षा तक शिक्षा नहीं पाई है। विश्वविद्यालय स्नातक और उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों की संख्या 8 लाख है। शिक्षा से जुड़े विभिन्न मानदंडों जैसे कि प्रति व्यक्ति अध्यापक संख्या, प्रति क्लासरूम बच्चों की संख्या तथा प्राथमिक स्कूली बच्चों के गणित और भाषा ज्ञान की दृष्टि से पूरी दुनिया जिसमें अत्यधिक विकसित देश शामिल हैं में क्यूबा का पहला स्थान है। स्कूल में उपस्थिति, पढ़ाई में बने रहने और छठी तथा नौवीं कक्षा पूरी करने वाले बच्चों जैसे मानदंडों की दृष्टि से कोई देश हमसे आगे नहीं है। वास्तव में बहुत कम देश बच्चों, किशोरों और युवकों की शिक्षा तथा सांस्कृतिक प्रशिक्षण पर इतना ध्यान देते हैं।’’
‘‘लेकिन अपनी वर्तमान उपलब्धियों से संतुष्ट होने का मतलब अपने दंभ, उग्र राष्ट्रीयता, आत्म संतोष और धृष्टता का प्रदर्शन होगा। हमारी शिक्षा प्रणाली में अभी भी बहुत कमियां हैं। यह सही है कि आज हमारा एक भी बच्चा सुदूर पहाड़ी क्षेत्र में अकेला बच्चा भी बगैर स्कूल या अध्यापक के नहीं है। भौतिक या मानसिक अक्षमताओं वाला शिक्षा के योग्य एक भी बच्चा या नवयुवक बगैर विशेष स्कूल के नहीं है। यह सही है कि हमारे उच्च शिक्षा संस्थानों में 20 गुना वृध्दि हुई है, जरूरतमंदों के लिए लाखों बोर्डिंग स्कूल हैं, शिक्षा के लिए निधियां हमेशा उपलब्ध रहती हैं, शिक्षा पर प्राथमिक ध्यान दिया जा रहा है, शिक्षा के क्षेत्र में हमारे पास लाखों प्रोफेसर, अध्यापक और कार्यकर्ता हैं जिनमें से बहुत उत्कृष्ट कोटि के हैं, नि:स्वार्थ, समर्पित तथा मूल्यवान नागरिक हैं फिर भी हम आदर्श शिक्षा प्रणाली कायम नहीं कर पाए हैं।’’
‘‘हमारे प्राथमिक स्कूली छात्र, जिनका पूरा दुनिया में उत्कृष्ट स्थान है, आज के मुकाबले तीन गुना ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं और करेंगे।’’
सब जानते हैं कि माध्यमिक शिक्षा जिसमें सातवीं, आठवीं और नौवीं कक्षाएं आती हैं पूरी दुनिया में घोर संकट का क्षेत्र है। किशोरों की इस नाजुक उम्र में जब उन्हें उत्कृष्ट शिक्षा और अधिकतम ध्यान की जरूरत होती है तो उन्हें कुलीन समाज के जमाने में प्रचलित विचार पढ़ाए जाते हैं। ये विचार उस समय के हैं जब जन शिक्षा के बारे में कोई सोचता भी नहीं था।’’
‘‘मैं सत्य का एक मात्र ज्ञाता होने का दावा नहीं करता लेकिन मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि इस समय प्रचलित प्रणाली मूर्खतापूर्ण है। इन कक्षाओं में तथा इस उम्र में अति विशेषज्ञता लाद दी जाती है। 25-30 या उससे अधिक छात्रों के बड़े समूह को अध्यापक देखते हैं। वे विभिन्न समूहों में 200 या उससे अधिक छात्रों को पढ़ाते हैं। वे छात्रों के नाम तक याद नहीं कर सकते, वे उनके परिवार तथा सामाजिक माहौल से वाकिफ नहीं हो सकते, उनके माता-पिताओं से संपर्क नहीं रख सकते, प्रत्येक छात्र की विशेषताओं का ज्ञान नहीं रख सकते तथा उनमें अंतर के अनुसार उनके साथ अलग-अलग तरीके से ध्यान नहीं दे सकते। नकल करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है और छात्रों का ज्ञान पाठय पुस्तकों में समाविष्ट ज्ञान के 30 फीसदी से आगे नहीं जाता। यहां हम यह मानकर चल रहे हैं कि ये पाठय पुस्तकें पूरी गंभीरता से साथ तैयार की गई हैं। यहां मैं यह कहना चाहता हूं कि परंपरा या आत्मतुष्टि के कारण हम युवाओं के लिए कथित रूप से अद्वितीय अध्यापन व्यवसाय को बढ़ा-चढ़ाकर सम्मान देते हैं। यदि आप 12वीं कक्षा पास विद्यार्थियों से यह पूछें कि भविष्य में अध्यापकों के रूप में वे क्या पढ़ना चाहते हैं तो उनकी इच्छाएं कार्यक्रम की आवश्यकताओं तथा विषयों की साप्ताहिक आवृत्ति से कभी मेल नहीं खाएंगी। इसके फलस्वरूप अध्यापक कभी अपनी इच्छाएं पूरी नहीं कर सके।
प्राथमिक शिक्षा स्तर तक ऐसी स्थिति नहीं है। यहां अध्यापक चौथी कक्षा तक एक ही समूह के साथ रहते हैं तथा पांचवीं और छठी कक्षा में किसी अन्य अध्यापक के साथ विषय बांटते हैं।’’
‘‘सातवीं से नौवीं कक्षा के दरम्यान अचानक तथा पूरा परिवर्तन हो जाता है। प्राथमिक स्कूलों में कोई न कोई हर बच्चे को देख रहा होता है। माध्यमिक शिक्षा में हर कोई हर किसी को देखता है, कोई किसी को विशेष रूप से नहीं देखता।
इस विषय पर खुद अध्यापकों के साथ चर्चा करना आसान नहीं है। विकल्प में रूप में हमने सातवीं, आठवीं और नौवीं के लिए कई विषय पढ़ाने वाले अध्यापक रखने के बारे में सोचा है जो भाषा और शारीरिक शिक्षा के साथ-साथ अन्य विषय पढ़ा सकें तथा प्रति 15 विद्यार्थी एक अध्यापक के अनुपात में उन तीनों साल छात्रों के साथ आगे बढ़ सकें। ’’
‘‘इस विचार की कड़ी जांच की जा रही है। तत्काल बदलाव की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए हम हजारों नए अध्यापकों को प्रशिक्षण दे रहे हैं। ये अध्यापक 12वीं कक्षा के विद्यार्थियों में से चुने गए हैं। इस समय वे जबर्दस्त उत्साह के साथ इस सघन अभ्यास में जुटे हुए हैं। हमें अभी तक प्राप्त शिक्षा परिणामों से तसल्ली हुई है। उत्साहजनक बात यह भी है कि परंपरागत प्रणाली के अंतर्गत कार्य करने वाले बहुत से अध्यापक दो, तीन या इससे अधिक विषय पढ़ाने और यहां तक कि बहु-विषय अध्यापक के रूप में कार्य करने के लिए भी तैयार हो रहे हैं। इससे इस दिशा में काफी प्रगति हुई है। अधिक पढ़े जाने वाले विषयों में अध्यापकों की कमी दूर हुई है तथा अध्यापन व्यवसाय के प्रति आकर्षण बढ़ा है।’’
‘‘माध्यमिक शिक्षा में दोपहर के भोजन की उचित व्यवस्था के साथ दोहरे सत्र मुस्तैदी के साथ शुरू किए जाएंगे। यह कार्य राजधानी से शुरू किया जाएगा जहां हर चीज अधिक उलझी होती है। 10वीं, 11वीं और 12वीं कक्षा वाले सीनियर हाई स्कूल स्तर पर बुनियादी और तकनीकी दोनों तरह की शिक्षा के लिए कार्यक्रम तैयार किए जा रहे हैं। छात्रों की ओर विशेष ध्यान दिए जाने की योजना के अंतर्गत विशेषज्ञ अध्यापक रखे जाएंगे। किसी को इस बात का डर नहीं है कि इन योजनाओं के कारण अध्यापकों की संख्या कम हो जाएगी तथा माध्यमिक शिक्षा में इस समय कार्य कर रहे अध्यापक फालतू हो जाएंगे। इसके विपरीत हर स्तर पर अध्यापकों की संख्या बढ़ेगी और यदि आवश्यक हुआ तो एक रिजर्व तैयार किया जाएगा ताकि अध्यापन निकाय में लगातार प्रशिक्षण चलता रहे। मैंने इस मुद्दे पर बहुत समय दिया है क्योंकि उच्चतम जोखिम के इस युग में यह बहुत महत्वपूर्ण है। एक देश, जिसमें 100 प्रतिशत छात्र इस शैक्षिक स्तर से गुजरते हैं, में सब बच्चों को इस जोखिम से गुजरना होगा। इस तरह से हम अध्ययन को पांच गुना बढ़ाने की आशा करते हैं।’’
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