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6.9.10

मेरी आवाज़ 'इंक़लाब'


बग़ावत का झंडा बुलंद कर, आवाज़ अपनी उठा

कर अपना सर ऊंचा, एक चीख़ ऐसी लगा

हिल जाएं हुकूमत की जड़ें, आंधियां भी चल पड़ें

तू भूखा रह और भूखा ही आगे बढ़

कुछ खाया तूने तो तुझे नींद आ जाएगी

और आंखें बंद की तो आवाज़ भी खो जाएगी

जागना है तुझको, औरों को भी जगाना है

शायद इस बार इंक़लाब तुझे ही लाना है

ज़िंदाबाद, ज़िंदाबाद के नारे बहुत लगा लिए तूने

अब तुझे कुछ कर दिखाना होगा

ना उम्मीदी के सूरज को डुबाकर

उम्मीद की किरण को लाना होगा

तुझे चलना है उस पश्चिम की तरफ

जहां डूबी हुई उम्मीदें हैं...........

तुझे भी डूबना होगा इन्हीं उम्मीदों के लिए

एक नए कल के लिए...

सूरज फिर से निकलेगा, पंछी फिर से गाएंगे

एक नया घर, गांव, प्रदेश, एक नया देश हम बसाएंगे

वो देश जहां खुशहाली हो, हरियाली हो

वो देश जहां हर कंधे पर जिम्मेदारी हो...

आओ मिलकर फिर से एक सवेरा लाएं...

दर्द, भूख, बीमारी, गरीबी हर अंधकार को दूर भगाएं...

आओ मिलकर हम अपनी आवाज़ उठाएं...

1 comment:

ZEAL said...

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बहुत ओज भरी रचना।

zealzen.blogspot.com

आभार
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