दिल-दिमाग में अयोध्या छाया हुआ है। उसे झटकने के इरादे से ‘रोबोट’ देखने चला गया। सोचा रजनीकान्त के लटके-झटकों में दिमाग साफ़ हो जायेगा, सारा कचरा निकल बाहर आयेगा!
190 मिनट तक रजनी सर आँख-कान और मन पर छाये रहे।एक भी फ़्रेम रजनी के बिना नहीं है। एक रजनी ही काफ़ी थे, इस फ़िल्म में तो एकसाथ सैकङों रजनीकान्त हैं………तो हुआ यूं कि अयोध्यामुद्दा भी रोबोट और रजनी के रंग में रंग गया।
1- इंसानों से मशीन अच्छी, वह सोचती नहीं ना! सोचती नहीं तो इतिहास की घटनाओं को अपनी आशा-विचार-इच्छानुसार कैसे तोङ-मरोङ सकती है। मशीन अच्छी है कि उसमें भावनायें नहीं होती, जिन्हें भङकाकर धर्मगुरु अपनी दूकानें चला सकें। मशीनें अच्छी है।
4.10.10
अयोध्यामुद्दा और रोबोट
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1 comment:
बात विचारणीय है तो क्या मनुष्य भावनाविहीन होना चाहिए. शुभकामनाये
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