नहीं डाकिया अब आता है, फेसबुकी साथी बतला दो
कैसा है अब गांव का मंजर,चैटिंग में ही तुम समझा दो
पनघट पर अब लय में सुरीली,पायल बजती है कि नहीं
और परब पर तीखी आंखें, काजल से सजती हैं कि नहीं
धक्कड़-धूल,धूएं वाली, गलियों का आलम कैसा है
जिस कमसिन पर थी जान फिदा,उसका वो बालम कैसा है
क्या गोमाता संग बछड़े अब भी गांव में पाले जाते हैं
और टुन-टुन घंटी वाली बकरी, लेकर ग्वाले आते हैं
क्या चेत सुदी पूनम का मेला अब भी वहां पर भरता है
मंदिर की चौखट पर सूरज,पहली किरणें धरता है
फागुन के गींदड़ में अब भी, केसरिया मेह बरसता है
क्या हर आंगन में अब भी वहां,रिश्ते का नेह बरसता है
हम किस्मत के मारे बन्धु,शहर भागकर आ गए
दो पैसे की खातिर खुद ही खुद की संस्कृति खा गए
तब बीघों में रहते थे,अब स्क्वायर फुट की मजबूरी
तब एक आंगन में पलते थे,अब किलोमीटर की दूरी
तब रामा-सामी चलती थी,अब दाम-दाम की माला है
विश्वास नहीं भाई-भाई का,हर धंधा गड़बड़झाला है
काम चले या कि न चले, पर रहते हरदम व्यस्त यहां
ये शहर फरेब की धरती है,कर्जे में सारे पस्त यहां
कुंवर प्रीतम
2 comments:
क्या हर आंगन में अब भी वहां,रिश्ते का नेह बरसता है
bhawbhini......bahut achchi lagi.
वह भाई मन को छू गयी तुम्हारी ये कविता और अचानक ही आँखों के आगे मेरा गाँव घूम गया
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