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13.8.11

उच्च शिक्षा और दो टके की नौकरी



काफी दिनों से ये चर्चे सुन रही थी। परन्तु विश्वास अत्यंत कठिन था कि ऐसा कैसे हो सकता है? फिर सोचा कि हथकंगन को आरसी क्या और पढ़े लिखे को फारसी क्या? इसी तर्ज पर मैं निकल पड़ी वास्तविक अनुभव की चाह में। सोचा कि किसी की पीड़ा का अहसास तभी हो सकता है, जब स्वयं उस पीड़ा से दो-चार हुआ जाये। और यही सोचते हुए मैंने अपनी तैयारियाँ आरम्भ कर दी।
इस सफर का आगाज हुआ मेरठ शहर के एक प्रतिष्ठित विद्यालयों से। एक समाचार-पत्र के माध्यम से ज्ञात हुआ कि उस स्कूल में शिक्षकों की रिक्तियाँ हैं। मैंने अपने मिशन के तहत अपना प्रोफाइल और रिज्यूम तैयार किया। स्कूल में प्रवेश करते ही, रिज्यूम जमा करने और इंटरव्यू कराने का कोई विशेष प्रबंध दिखाई नहीं दिया। एडमिशन कार्य के मध्य ही इंटरव्यू होगा, यह जानकारी वहाँ बैठे किसी सज्जन से प्राप्त हुई। मैं प्रातः 9ः30 से 12ः55 तक इंटरव्यू प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा करती रही। इस बीच बच्चों के एडमिशन के लिए तड़पते-बिलखते-झगड़ते लाचार अभिभावक देखे। मासूम बच्चे जो पिता का पायजामा मुठ्ठी में भींचे उनके साथ-साथ खिंचे जा रहे थे। उन्हें शायद इस बात का इल्म तक न था कि इन बड़ी-बड़ी बातों व संघर्ष से एक छोटा सा परिणाम निकलकर आयेगा कि उनको दाखिला मिल गया। और फिर शुरू होगा बच्चों का असली संघर्ष। कुछ दुर्भाग्यशाली ऐसे बच्चे भी थे जिनके अभिभावक निराश लौटने के लिए मजबूर थे। उनके उड़ते-उड़ते संवाद सुनने को मिले, ‘‘यहाँ तो पैसा या एप्रोच चल रही है। कोई है क्या आपके जानने वाला?’’
खैर! बात इंटरव्यू की चल रही थी। 12ः55 बजे सभी आवेदकों को प्रधानाचार्य कक्ष के बाहर एकत्रित होने का आदेश प्राप्त हुआ। इंतजार के बीच चर्चाएँ शुरू हुई। ‘‘फलाँ स्कूल की स्थिति तो बहुत खराब है। कुछ भी नहीं देते वे लोग। हर जगह रिश्वत का बोलबाला है। सरकारी शिक्षक बनना है तो 15 लाख तैयार रखो भई।’’ वगैराह-वगैराह।
मुझे इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। ‘‘तू तो बहुत पढ़ ली बेटी। तीन बार एम. ए., नेट, और थ्रो आउट फर्स्ट। तेरा तो हो ही जाना है। पर बेटी तू लेगी क्या?’’, प्रिंसिपल ने पूछा।
सर मेरा अकैडमिक प्रोफाइल आप देख ही चुके हैं और मैं जानती हूँ कि आप लोग ज्यादा सैलरी भी नहीं देते। फिर भी कम से कम 5000 रू की तो मैं आशा करती ही हूँ। मैंने कहा।
बेटी मैं मैनेजमेंट से बात करूँगा, पर हमारे यहाँ इतना देते नहीं है। यह कहते हुए प्रिंसिपल ने मेरा रिज्यूम लौटा दिया।
यही अनुभव दो-तीन अन्य स्कूलों के साथ भी रहा। कहीं से पुनः बुलावा नहीं आया। आज यह लेख लिखने से पूर्व आखिरी स्कूल में आवेदन करते हुए मैंने अपना अनुसंधान समाप्त किया। शायद इससे अधिक अपमान सहन करने की मेरी क्षमता ने घुटने टेक दिये।
प्रातः 10 बजे से अपने नम्बर की प्रतीक्षा करते-करते 12ः30 बजे मुझे इंटरव्यू कक्ष में बुलाया गया। मुझसे शिक्षण का अनुभव पूछा गया। उनके प्रत्येक प्रश्न पर मैं खरी उतरी। बताना चाहूँगी कि यह इंटरव्यू मैंने खड़े-खडे़ दिया। अन्तिम संवाद इस प्रकार थे-
‘‘मैडम आपको पहले ही बता देना चाहंेगे कि हम 2000 रू से ज्यादा नहीं देंगे।’, इंटरव्यूअर ने कहा।
‘‘सर मैं ऐपॉइन्टमैन्ट नहीं चाहती परन्तु एक सुझाव अवश्य देना चाहूँगी। हालांकि आप मुझसे पद व उम्र दोनो में बड़े हैं और मेरा इस प्रकार आपको सुझाव देना शायद गलत................’’
‘‘नहीं-नहीं, कोई बात नहीं आप बताइये’’, इटंरव्यूअर ने कहा।
सर हमारे माता-पिता ने अपनी जीवन की गाढ़ी कमाई को हमारी शिक्षा पर पानी की भांति बहा दिया और हमें अपने पैरों पर खड़े होने योग्य बनाया। प्लीज आप इतनी सैलरी पर ऐपॉइन्ट करके हमारे माता-पिता और हमारी शिक्षा को अपमानित मत कीजिए। सैलरी का स्तर इतना मत गिराइये कि हमें अपने माता-पिता को 2000 रू देते हुए शर्मिंदगी महसूस हो। हमारी आँखें झुक जायें कि आपने हमारी शिक्षा पर व्यर्थ ही खर्च किया क्योंकि उसके बदले हम आपको 2000 रू से अधिक नहीं दे सकते। एक अनपढ़ मजदूर भी महीने के अंत में 2000 रूपये से ज्यादा अपने परिवार की हथेली पर रखता है। इस प्रकार 2000 रू में रखे गये शिक्षक, शिक्षा को क्या स्तर प्रदान करेंगें? क्या वे अपने कार्य के प्रति समर्पित रह सकेंगें?
यह कहकर मैं वापस आ गई और अपनी डिग्रियों के पुलिंदें को निहारते हुए सोच में डूब गई, ‘‘हम बेरोजगार है या लाचार हैं? अगर 2000 रू की सैलरी स्वीकार करते हैं तो बेरोजगारी का तगमा तो हट जायेगा परन्तु क्या वास्तव में हमें रोजगार प्राप्त हुआ? यह हमारी शिक्षा की कमी है या...........................
विषय बहुत गम्भीर है। मात्र एक लेख लिखने के लिये किये गये इस अनुभव ने मुझे झंकझोर दिया। जरा सोचिये उन परेशान चेहरों के विषय में जिन्हें इन नौकरियों की सख्त आवश्यकता है, जिनके घरों में भूख से बिलखते बच्चे रोज दरवाजे पर इस आस में ताकते रहते हैं कि शायद आज उनके पिता उनकी भूख का कोई प्रबंध कर पायें हो। दिन भर की मेहनत के उपरांत महीने के अंत में उनकी हथेली निहारती होगी उन 2000 रूपयों को.................

3 comments:

S.N SHUKLA said...

behatar prastuti
रक्षाबंधन एवं स्वाधीनता दिवस पर्वों की हार्दिक शुभकामनाएं तथा बधाई

अजित गुप्ता का कोना said...

प्राइवेट स्‍कूलों में ऐसे शिक्षक हैं जिन्‍हें नौकरी की कतई जरूरत नहीं हैं, वे ही ऐसे प्रस्‍ताव स्‍वीकार करते हैं और शिक्षक का सम्‍मान गिराते हैं।

Mirchi Namak said...

Jo kuch bhee aapne kaha wo ek kadvi sacchai hai per ye hamari siksha pradali ki bimari hai wo padhe likhe lachaar paida karti hai jo ek addad noukri ke liye kaye saalon tak apni chhaplen ghisa karte hain kyounki unhe iske alawa kuch bhee sikhya nahi gaye jindgee me risk lene se hamesa darte hain ye saari batein main apne anubhav ke aadhar pe kah raha hoon. Jaihind.