नेता जी क्या कहते हैं ?
31.1.12
नेता जी क्या कहते हैं ?
नेता जी क्या कहते हैं ?
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ब्लॉग- पहेली-१२
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सरस्वती के उद्दंड बेटे-ब्रज की दुनिया
Posted by ब्रजकिशोर सिंह 0 comments
30.1.12
पचपन और बचपन
Posted by Neeraj Tomer 1 comments
सृजन पथ: आज शहीद दिवस है
सृजन पथ: आज शहीद दिवस है: आज शहीद दिवस है राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का बलिदान दिवस।गांधीजी के अवदान को लेकर तमाम बातें की जा सकती हैं पर शांति ,अहिंसा और प्रेम का ...
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सीनियर्स के संन्यास लेने की माँग........ अपरिपक्वता की निशानी।
टीम के ऑस्ट्रेलियाई दौरे में खराब प्रदर्शन पर सबसे ज्यादा आलोचना झेलना पड़ा सचिन, द्रविड़, लक्ष्मण सरीखे त्रिदेव और कप्तान धोनी को।माना कि खराब दौर से तो सभी टीमों और कप्तानों को गुजरना पड़ता है लेकिन पिछले दो विदेशी दौरों पर टीम का प्रदर्शन सचमुच निराशाजनक रहा है।इस खराब प्रदर्शन के लिए किसी दो या तीन खिलाड़ी को जिम्मेदार ठहराना बिल्कुल गलत है।खासकर त्रिदेव और कप्तान धोनी पर ही सारा दोष डालना तो बेमानी होगी।पूरी टीम अगर एकजुट होकर अच्छा प्रदर्शन करती है तभी किसी टीम को जीत मिलती है, किसी एक या दो खिलाड़ियों के ही अच्छा प्रदर्शन कर लेने से टीम नहीं जीतती है।उसी तरह अगर टीम हारती भी है तो उसकी ज़िम्मेवार पूरी टीम है, न कि एक या दो खिलाड़ी।हाँ, यह बात अलग है कि जब टीम जीतती है तो अच्छा प्रदर्शन तो टीम के सभी खिलाड़ी करते हैं लेकिन सबसे ज्यादा क्रेडिट ले उड़ते हैं टीम के कप्तान।और इस बार जब टीम इंडिया लगातार दूसरे विदेशी दौरे पर टेस्ट मैचों में वाइटवाश हो चुकी है तो इसकी जिम्मेदार तो पूरी टीम है लेकिन एक कप्तान के रूप में सबसे ज्यादा जिम्मेदार धोनी ही हैं, जो उन्होंने स्वीकारी भी है।
पहले इंग्लैंड और फिर ऑस्ट्रेलियाई दौरे पर टीम के शर्मनाक प्रदर्शन के बाद धोनी को टेस्ट टीम की कप्तानी से हटाने की माँग तेज हो गई।कपिल देव और सुनील गावस्कर सरीखे क्रिकेट के दिग्गजों ने भी धोनी को कप्तानी से हटाने की बात कही।अगर क्रिकेट बोर्ड धोनी को टेस्ट टीम के कप्तानी से हटा भी देती है तो वैसे भी टीम के खराब प्रदर्शन के बाद यह कोई आश्चर्यजनक फैसला तो होगा नहीं लेकिन मुझे नहीं लगता है कि इससे कोई हल निकलने वाला है।अगर धोनी कप्तानी से हटा दिए जाते हैं तो मौजूदा टीम में मुझे तो कप्तानी के लिए कोई ठोस दावेदार नजर नहीं आ रहा है।धोनी के बाद आप किसे बनाओगे टेस्ट टीम का कप्तान?टीम के उपकप्तान सहवाग भी अपने उस रंग में नजर नहीं आ रहे हैं जिसके लिए वो जाने जाते हैं।वैसे तो धोनी के बाद सहवाग ही कप्तान के मुख्य दावेदार हैं लेकिन उनकी कप्तानी में भी वो बात नहीं है जो टीम के लिए फायदेमंद हो।युवाओं में अगर आप विराट कोहली की बात करें तो वो भी इस जिम्मेदारी के लायक नजर नहीं आ रहे हैं।सिर्फ एक पारी में उन्होंने शतक लगा लिया तो इसका यह मतलब नहीं कि वह टेस्ट टीम की कप्तानी के लायक हो गए।माना कि उनमें प्रतिभा है जिसपर किसी को संदेह नहीं है लेकिन उन्होंने भी पूरी सीरिज में अपनी प्रतिभा के अनुरूप प्रदर्शन नहीं किया।इसलिए भलाई इसी में है कि धोनी को अभी और मौका देना चाहिए।
अगर टीम के खराब प्रदर्शन की बात की जाए तो पूरी टीम अपनी रंग में नजर नहीं आई।बैटिंग, बौलिंग, किसी भी क्षेत्र में टीम खड़ी नहीं उतरी।बौलिंग में ईशांत शर्मा ने तो लुटिया ही डूबो दी।पूरे सीरिज में कभी भी वो रंग में नजर नहीं आए।आर. आश्विन को भी सिलेक्टर्स ने जिस उम्मीद से टीम में चुना था, वह भी सिलेक्टर्स की उम्मीद पर खड़े नहीं उतरे।बौलिंग तो टीम की लगभग ठीक ही रही क्योंकि टीम के गेंदबाजों ने कुछ मौकों पर ऑस्ट्रेलियाई बल्लेबाजों को रन बनाने के मौके नहीं दिए।कुछ मौकों पर भारतीय गेंदबाजों ने ऑस्ट्रेलियाई टीम के शुरूआती विकेट झाड़ कर उनकी बल्लेबाजी की रीढ़ तोड़ दी।लेकिन वे पूरे सीरिज में निरंतर अच्छा प्रदर्शन करने में नाकाम रहे।टीम की बल्लेबाजी तो काफी शर्मनाक रही।टीम के बल्लेबाज कभी भी ऑस्ट्रेलियाई टीम से मुकाबला के मूड में नहीं दिखे।ऑस्ट्रेलियाई टीम के अनुभवहीन लेकिन प्रतिभाशाली गेंदबाजों के आगे हमारी वर्ल्ड-क्लास अनुभवी और प्रतिभाशाली बैटिंग लाइन-अप ने घुटने टेक दिए।विराट कोहली को छोड़ बाकी कोई भारतीय बल्लेबाज तो पूरी सीरिज में शतक भी नहीं लगा सके।गौतम गंभीर जिन्हें भारतीय टीम के बेस्ट ओपनरों में से एक माना जाता है, वो पूरे सीरिज में रन बनाने के लिए जूझते रहे।हमारे टीम के दोनों ओपनरों ने टीम को अच्छी शुरूआत देकर एक बड़े स्कोर की नींव रखने की अपनी जिम्मेदारी को बिल्कुल नहीं निभाया।सहवाग को देखकर तो लग ही नहीं रहा था कि ये वही सहवाग हैं जिन्होंने पिछले वेस्ट-इंडीज दौरे पर वन-डे इतिहास का दूसरा दोहरा शतक लगाकर आक्रामकता और टेक्निक के मेल का क्रिकेट इतिहास का सबसे अच्छा परिचय दिया था।कप्तान धोनी पूरे सीरिज के दौरान बल्लेबाजों को अच्छा प्रदर्शन करने के लिए बोलते रहे।कप्तान धोनी ने तो खुद भी पूरे सीरिज में बल्ले से अच्छा प्रदर्शन नहीं किया।
टीम के खराब प्रदर्शन के बाद क्रिकेट फैंस ने हमारे त्रिदेव की जमकर आलोचना की।त्रिदेव ने तो खराब प्रदर्शन किया ही लेकिन टीम के युवाओं ने कौन सा अच्छा प्रदर्शन किया।क्या भारतीय टीम ऑस्ट्रेलिया में हमारे सीनियर्स की वजह से हारी है?नहीं।पूरी टीम ने मिलकर अच्छा प्रदर्शन नहीं किया तभी टीम हारी। हम आखिर किस मुँह से कहते हैं कि हमारे त्रिदेव को संन्यास ले लेना चाहिए?वे लगभग पिछले डेढ़ दशक से भारतीय क्रिकेट को अपनी सेवा दे रहे हैं।कठिन से कठिन परिस्थितियों में उन्होंने टीम का साथ निभाया है।कई मौकों पर उन्होंने टीम को जीत दिलाई है।भारतीय क्रिकेट की पहचान हैं हमारे त्रिदेव।ऐसे में एक या दो सीरिज से उनके प्रदर्शन को तौलना और उनके संन्यास लेने की माँग करना तो अपरिपक्वता और नासमझदारी भरी माँग है।भारतीय दर्शकों में यही दिक्कत है, अगर यह टीम जीत जाती तो सभी कहते कि यह सर्वश्रेष्ठ टीम है।जब टीम हार गई तो सभी हमारे त्रिदेव को संन्यास लेने की माँग करने लगे।माना कि त्रिदेव ने निराशाजनक प्रदर्शन किया लेकिन हार का सारा दोष उन पर डालना और उनके संन्यास की माँग करना तो बेमानी होगी।सुनिल गावस्कर हमारे सीनियर्स की आलोचना करते हैं तो वो तो उनका अधिकार है।वे भारतीय क्रिकेट के दिग्गज हैं।हमारे त्रिदेव के भी गुरु हैं।हम सभी उनका सम्मान करते हैं।इसलिए उन्होंने एक गुरू के नाते हमारे त्रिदेव को फटकार लगाई जो कि बिल्कुल सही है।लेकिन हम क्या उनके गुरु हैं कि हम उन पर संन्यास लेने का दबाव डाल रहे हैं?सचिन, द्रविड़ और लक्ष्मण हम से ज्यादा समझदार हैं और वो क्रिकेट को हमसे ज्यादा अच्छी तरह से जानते और समझते हैं।संन्यास का फैसला किसी भी खिलाड़ी का निजी फैसला होता है।हमें या बोर्ड को उन पर संन्यास का दबाव नहीं डालना चाहिए।वे इतने दिनों से क्रिकेट में हैं, वे अच्छी तरह से जानते हैं कि कब उनके संन्यास लेने का समय है।हम कहते हैं कि अब उनमें रन बनाने की क्षमता नहीं रह गई है।अरे! मैदान में वो खेलते हैं, वो हमसे अच्छी तरह से अपनी खेल की क्षमता को जानते हैं।त्रिदेव हमारे टीम का अभिन्न हिस्सा हैं, वे जो भी फैसला लेंगे टीम हित में ही लेंगे।
कुछ लोग खराब प्रदर्शन का दोष आईपीएल को दे रहे हैं। माना कि आईपीएल में खिलाड़ी टेक्निक को भूलकर तेजी से रन बनाने में ही लग जाते हैं।लेकिन हार का एकमात्र कारण आईपीएल ही नहीं है।आईपीएल कोई खिलाड़ियों को जबर्दस्ती खेलने को नहीं कहता है।वो तो किसी खिलाड़ी की खुद की मर्जी है कि वह आईपीएल में खेलना चाहता है या नहीं।हार का कारण मुख्य रूप से टीम के सभी बल्लेबाजों का गैरजिम्मेदाराना तरीके से आउट होना और रन बनाने में बिल्कुल असफल होना है।टेस्ट मैचों में आपको विकेट पर टिककर खेलना होता है।आप अगर अपनी पारी के शुरूआती दस ओवर भी संभलकर डिफेंसिव मोड में खेल लेते हो तो ज्यादा संभावना है कि आप एक बड़ी पारी को अंजाम दे सकते हो।आप तीन-चार बड़े शॉट लगाकर एक अच्छी पारी टी-ट्वेंटी में खेल सकते हो, टेस्ट मैचों में नहीं।भारतीय टीम के खिलाड़ियों को रिकी पोंटिंग से सीख लेनी चाहिए।पिछले दो साल से उन्होंने टेस्ट में शतक नहीं लगाया था, और देखिए क्या शानदार वापसी की है उन्होंने।माइकल क्लार्क का भी कप्तानी करियर कुछ ठीक नहीं चल रहा था।पर उन्होंने भी जोरदार वापसी की।भारतीय क्रिकेट के बल्लेबाज भी उनकी तरह वापसी कर सकते हैं।
भारतीय बल्लेबाजों को आलोचकों पर ध्यान न देकर अपने खेल पर ध्यान देना चाहिए।तभी वे वापसी कर पाएँगे।धोनी की कप्तानी में भारत जब हारने लगा तो ऑस्ट्रेलियाई मीडिया में कुछ इस तरह की खबर आई कि धोनी की कप्तानी वन-डे क्रिकेट के लिए ठीक है, टेस्ट क्रिकेट के हिसाब से वे बेहद सुस्त हैं।ये मीडिया उस वक्त कहाँ थी जब भारत धोनी की कप्तानी में पहली बार टेस्ट में नंबर-वन बना था।धोनी भारतीय टीम के सर्वश्रेष्ठ कप्तान हैं।उन्हें आलोचकों पर ध्यान न देकर अपनी वही चमक फिर से हासिल करनी होगी।अच्छे समय में तो सभी साथ देते हैं।बुरे वक्त में अपने भी साथ छोड़ जाते हैं।जब धोनी की कप्तानी में भारतीय टीम पहली बार टेस्ट में नंबर-वन बनी थी तब तो किसी को धोनी से ऐतराज नहीं था।बस एक या दो सीरिज से ही आपलोगों ने भारत के सर्वश्रेष्ठ कप्तान को हटाने की माँग कर दी।धोनी जैसा कप्तान मिलना बहुत मुश्किल है।माना कि मौजूदा सीरिज में उनका प्रदर्शन बेहद ही साधारण रहा था लेकिन हम उन्हें इतनी आसानी से नहीं खो सकते।किस खिलाड़ी या कप्तान के बुरे दिन नहीं आए हैं?सभी को इस दौर से गुजरना पड़ता है।धोनी को अभी हमारे साथ की जरूरत है।मैं धोनी और पूरी टीम इंडिया के साथ हूँ।और आप?
Posted by Kaushik Raj 0 comments
नकल, एक और कालिख ?
निश्चित ही छत्तीसगढ़ विकास की दिशा में अग्रसर हो रहा है, लेकिन कई रोड़े भी नजर आ रहे हैं। शिक्षा के क्षेत्र में अनेक बदलाव के कारण यहां की प्रतिभाएं निखर कर सामने आ रही हैं। फिर भी शिक्षा नीति में कई बदलाव की जरूरत है। इसमें सबसे बड़ी जरूरत है, छग को नकल के कलंक से मुक्त करना। ऐसा लगता है, जैसे छत्तीसगढ़ का नकल से चोली-दामन का साथ हो गया है, तभी तो एक मामले को भूले भी नहीं रहते, नकल के दूसरे मामले आंखों के सामने आ जाते हैं। ऐसी स्थिति में नकल की प्रवृत्ति को खत्म करने सरकार को कड़े कदम उठाने चाहिए, तभी प्रदेश की प्रतिभाओं का भला होगा। नहीं तो, प्रतिभाओं के हिस्से को ‘मुन्नाभाई’ आकर चट करते रहेंगे और इससे कहीं न कहीं छग को ही नुकसान होगा। जाहिर सी बात है, ऐसे हालात में प्रतिभा पलायन भी होगा।
दरअसल, नकल का मामला एक बार फिर इसलिए गरमा गया है, क्योंकि पीडब्ल्यूडी सब इंजीनियर के लिए ली जाने वाली भर्ती परीक्षा में भी नकल के प्रकरण बने हैं और कई नकलची पकड़े गए हैं। उनके खिलाफ कार्रवाई की बात कही गई है, मगर इतने भर से काम चलने वाला नहीं है, क्योंकि नकलचियों पर सख्ती नहीं बरतने का ही परिणाम है कि प्रतिभाओं का दम तोड़ने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। नकल को कहीं न कहीं हम नौकरी पाने तथा किसी परीक्षा में सफल होने के लिए ‘चोर दरवाजा’ ही मान सकते हैं। नकल के कारण प्रदेश की प्रतिभाएं ज्यादा बदनाम होती हैं, क्योंकि जब वे बाहर शिक्षा के लिए जाती हैं तो उन्हें हमेशा कमतर आंका जाता है, जिसका खामियाजा उन्हें अपने कॅरियर निर्माण में भी भुगतना पड़ता है। समय-समय पर सरकार तथा शासन में बैठे लोग भी स्वीकारते हैं, लेकिन नकल पर रोक लगाने के लिए कारगर कदम नहीं उठाए जाते। लिहाजा, यह कृत्य रह-रहकर पुरानी बोतल से बाहर आते रहते हैं। नकल की दुष्प्रवृत्ति के घातक परिणाम से शिक्षाविद् आगाह भी करते हैं, लेकिन जिस तरह के हालात बनते जा रहे हैं, उससे तो लगता है कि नकल की प्रवृत्ति, एक तबके के खून में समा गई है, क्योंकि उन्हें अपनी वैतरणी पार लगाने के लिए कोई दूसरा सहारा नजर नहीं आता। कहीं न कहीं, पीडब्ल्यूडी की परीक्षा में नकल का मामला सामने आने से प्रदेश की परीक्षा तथा शिक्षा व्यवस्था पर एक बार फिर कालिख पूत गई है।
ऐसा नहीं है कि छत्तीसगढ़ में नकल के मामले पहली बार सामने आए हैं। कुछ बरसों की स्थिति को देखें तो प्रदेश में नकल की प्रवृत्ति ने व्यापक पैमाने पर पैर पसार लिया है। यही राज्य है, जहां बारहवीं व दसवी की बोर्ड परीक्षा की मेरिट सूची में गड़बड़ हो गई। इस प्रकरण से शिक्षा प्रणाणी तथा परीक्षा में बरती गई लापरवाही को लेकर प्रदेश का काफी छिछालेदर हुआ था। उससे पहले पीएससी की परीक्षा भी विवादों में रही है। इन मामलों के मध्य पर नजर डालें तो यही राज्य है, जहां पिछले साल प्री-पीएमटी की परीक्षा तीन बार आयोजित हुई। पीएमटी परीक्षा में फर्जीवाड़े ने सरकार को हिलाकर रख दिया, क्योंकि बिलासपुर जिले के तखतपरु में फर्जीवाड़े का खुलासा होने के बाद कई नामचीन लोगों के नाम आए, जिन्होंने अपने बेटे-बेटियों को परीक्षा पास कराने लाखों रूपये दिए थे। फिलहाल इस मामले में पुलिस जांच कर रही है, कुछ परीक्षार्थी पुलिस के हत्थे चढ़ गए हैं तो कुछ अपने रसूख तथा भूमिगत होने के कारण बचे हुए हैं। कई को कोर्ट से जमानत भी मिल गई है।
कुल-मिलाकर कहना यही है कि प्रदेश की शिक्षा की नींव, नकल के कारण कमजोर हो रही है। इसे मजबूत बनाने के लिए नकल माफिया से प्रदेश को बचाना होगा। शिक्षा के क्षेत्र में सतत् विकास हो रहा है, मगर जिस तरह नकल के सहारे तथा शॉर्टकट आजमाने की करतूत बढ़ती जा रही है। इसे विकास पथ पर अग्रसर प्रदेश के लिए बेहतर नहीं कहा जा सकता है। नकल पर लगाम लगाने के लिए सरकार को ध्यान देना होगा। प्रदेश के कई जिले हैं, जहां के प्रतिभावान छात्र इसलिए भी शंका की नजर से देखे जाते हैं कि वे उस जिले से ताल्लुक रखते हैं, जहां नकल की शिकायतें हैं। यहीं पर प्रतिभाओं का मनोबल टूटता है। ऐसी स्थिति में कहीं न कहीं सरकार और उनकी नीति जिम्मेदार मानी जा सकती है, क्योंकि देश, प्रदेश तथा समाज के हित में रोड़ा बन रही ‘नकल’ पर सरकार कहां रोक लगा पा रही है ? यदि ऐसा नहीं होता तो रह-रहकर नकल के मामले उजागर नहीं होते। सरकार की ढिलाई का ही नतीजा है कि ऐसे कृत्यों को बल मिल रहा है। आशा है कि सरकार, इस दिशा में सख्त निर्णय लेगी और प्रदेश की प्रतिभाओं को आगे लाने प्रयास करेगी, क्योंकि विकास के लिए शिक्षा की अहम भूमिका है, किन्तु ‘नकल’ बड़ा रोड़ा बनती जा रही है।
Posted by jindaginama 0 comments
29.1.12
गडकरी के बयानों से और बढ़ेगा घमासान
अब तक की सर्वाधिक बदनाम कांग्रेस सरकार की विदाई की उम्मीद में भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए घमासान शुरू हो चुका है। बड़े मजे की बात ये है कि उस घमासान समाप्त करने अथवा छुपाने की जिम्मेदारी जिस शख्स पर है, खुद वही नित नए विवाद की स्थिति पैदा कर रहा है। इशारा आप समझ ही गए होंगे।
बात भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की चल रही है। हाल ही उन्होंने नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री पद के लिए सबसे उपयुक्त बता कर अन्य दावेदारों को सतर्क कर दिया था। अभी इस पर चर्चा हो कर थमी ही नहीं थी उन्होंने एक बयान में अरुण जेटली और सुषमा स्वराज को भी प्रधानमंत्री के योग्य करार दे दिया। हालांकि यह सही है कि उन्होंने जैसा सवाल वैसा जवाब दिया होगा और उनका मकसद किसी को अभी से स्थापित करने का नहीं होगा, बावजूद इसके उनके बयानों से पार्टी कार्यकर्ताओं में तो असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो ही रही है। होता अमूमन ये है कि पत्रकार ऐसे पेचीदा सवाल पूछते हैं कि उसमें नेता को हां और ना का जवाब देना ही पड़ता है और जो भी जवाब दिया जाता है, जाहिर तौर पर उसके अर्थ निकल कर आ जाते हैं। जवाब देने वाला खुद भी यह समझ नहीं पाता कि ऐसा कैसे हो गया। उसका मकसद वह तो नहीं था, जो कि प्रतीत हो रहा होता है। कमोबेश स्थिति ऐसी ही लगती है। पता नहीं किस हालात में गडकरी ने मोदी को प्रधानमंत्री के पद के योग्य बताया और पता नहीं किस संदर्भ में उन्होंने सुषमा व जेटली को भी उस पंक्ति में खड़ा कर दिया। मगर जब इन सभी जवाबों को एक जगह ला कर तुलनात्मक समीक्षा की जाती है तो गुत्थी उलझ जाती है कि आखिर वे कहना क्या चाहते हैं। संभव है कि उन्होंने कोई विवाद उत्पन्न करने के लिए ऐसा नहीं किया हो, मगर उनके बयानों से पार्टी में असमंजस तो पैदा होता ही है।
जरा पीछे झांक कर देखें। आडवाणी के रथयात्रा निकालने के निजी फैसले पर जब पार्टी ने मोहर लगाई और उनका पूरा सहयोग किया, तब ये मुद्दा उठा कि आडवाणी अपनी दावेदारी पेश कर रहे हैं अथवा पार्टी उन्हें फिर से प्रोजेक्ट करने की कोशिश कर रही है। तब खुद गडकरी को ही यह सफाई देनी पड़ गई कि आडवाणी की यात्रा प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के रूप में नहीं है। उस वक्त आडवाणी की दावेदारी को नकारने वाले गडकरी के ताजा बयान इस कारण रेखांकित हो रहे हैं कि वे क्यों मोदी, सुषमा व जेटली को दावेदार बता कर विवाद पैदा कर रहे हैं। स्वाभाविक सी बात है कि उनके मौजूदा बयानों से लाल कृष्ण आडवाणी और उनके करीबी लोगों को तनिक असहज लगा होगा कि गडकरी जी ये क्या कर रहे हैं। इससे तो आडवाणी का दावा कमजोर हो जाएगा। संभावना इस बात की भी है कि उन्होंने ऐसा जानबूझ कर किया हो, ताकि कोई एक नेता अपने आप को ही दावेदार न मान बैठे, लेकिन उनकी इस कोशिश से मीडिया वालों को अर्थ के अर्थ निकालने का मौका मिल रहा है। विशेष रूप से तब जब कि जिस गरिमापूर्ण पद वे बैठे हैं, उसके अनुरूप व्यवहार नहीं करते। उनकी जुबान फिसलने के एकाधिक मौके पेश आ चुके हैं। उनके कुछ जुमलों को लेकर भी मीडिया ने गंभीर अर्थ निकाले हैं। जैसे एक अर्थ ये भी निकाला जा चुका है कि भाजपा के इतिहास में वे पहले अध्यक्ष हैं, जिन्होंने अपनी बयानबाजी से पार्टी को एक अगंभीर पार्टी की श्रेणी पेश कर दिया है। इसे भले ही वे अपनी साफगोई या बेबाकी कहें, मगर उनकी इस दरियादिली से पार्टी में तंगदिली पैदा हो रही है। इससे पार्टी में प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को लेकर चल रही जंग को नया आयाम मिला है।
उल्लेखनीय है कि लोकसभा में विपक्ष की नेता श्रीमती सुषमा स्वराज और राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली के बीच ही इस पद को लेकर प्रतिस्पद्र्धा चल रही थी। बाद में गुजरात में लगातार दो बार सरकार बनाने में कामयाब रहे नरेन्द्र मोदी ने गुजरात दंगों से जुड़े एक मामले में उच्चतम न्यायायल के निर्देश को अपनी जीत के रूप में प्रचारित कर अपनी छवि धोने की खातिर तीन दिवसीय उपवास कर की, जो कि साफ तौर पर प्रधानमंत्री पद की दावेदारी बनाने के रूप में ली गई। यूं पूर्व पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी दावेदारी की जुगत में हैं। कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि पार्टी अध्यक्ष गडकरी भी गुपचुप तैयारी कर रहे हैं। वे लोकसभा चुनाव नागपुर से लडऩा चाहते हैं और मौका पडऩे पर खुल कर दावा पेश कर देंगे। कुल मिला कर भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए चल रहे घमासान को गडकरी के बयानों से हवा मिल रही है।
-tejwanig@gmail.com
Posted by तेजवानी गिरधर 1 comments
ये हवा चौपट
ये हवा चौपट हमारे देश में क्यों बह रही ?
रस मलाई है जो , अपने को जिलेबी कह रही ॥
हुस्न परदे से झलकता काबिले तारीफ़ है ,
किस लिए वह ज़माने की बेहयाई सह रही ॥
इल्म हासिल कर ,वफ़ा की राह पर चलते रहो ,
बुजुर्गों ने जो बनायी थी ईमारत ढह रही ॥
ये हवा चौपट ............................ ॥
Posted by Dr Om Prakash Pandey 1 comments
व्यंग्य - घोषणा ही तो है...
मैं बचपन से ही ‘घोषणा’ के बारे में सुनते आ रहा हूं, परंतु यह पूरे होते हैं, पता नहीं। इतना समझ में आता है कि ‘घोषणा’ इसलिए किए जाते हैं कि उसे पूरे करने का झंझट ही नहीं रहता। चुनावी घोषणा की बिसात ही अलग है। चुनाव के समय जो मन में आए, घोषणा कर दो। ये अलग बात है कि उसे कुछ ही दिनों में भूल जाओ। जो याद कराने पहुंचे, उसे भी गरियाने लगो। यही तो है, ‘घोषणा’ की अमर कहानी। नेताओं की जुबान पर घोषणा खूब शोभा देती है और उन्हें खूब रास आती है। यही कारण है कि वे जहां भी जाते हैं, वहां ‘घोषणा की फूलझड़ी’ फोड़ने से बाज नहीं आते। लोगों को भी घोषणा की दरकार रहती है और नेताओं से वे आस लगाए बैठे रहते हैं कि आखिर उनके चहेते नेता, कितने की घोषणा फरमाएंगे।
बिना घोषणा के कुछ होता भी नहीं है। जैसे किसी शुभ कार्य के पहले पूजा-अर्चना जरूरी मानी जाती है, वैसे ही हर कार्यक्रम तथा चुनावी मौसम में ‘घोषणा’ अहम मानी जाती है। तभी तो हमारे नेता चुनावी ‘घोषणा पत्र’ में दावे करते हैं कि उन्हें पांच साल के लिए जिताओ, वे गरीबों की ‘गरीबी’ दूर कर देंगे। न जाने, और क्या-क्या। लुभावने वादे की चिंता नेताओं को नहीं रहती, बल्कि गरीब लोगों की चिंता बढ़ जाती है। वे गरीबी में पैदा होते हैं और गरीबी में मर जाते हैं। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक केवल घोषणा का शंखनाद सुनाई देते हैं। चुनाव के दौरान घोषणा का दमखम देखने लायक रहता है। नेता से लेकर हर कोई घोषणा की लहर में हिलारें मारने लगता है, क्योंकि ‘घोषणा’ ऐसी है भी।
मन में जो न सोचा हो, वह घोषणा से पूरी हो जाती है। घोषणा की बातों का लाभ न भी मिले, तो सुनकर मन को तसल्ली मिल जाती है। गरीबों की गरीबी दूर करने की घोषणा चुनाव के समय होती है, लेकिन यह सभी जानते हैं कि गरीब, सत्ता व सरकार से हमेशा दूर रहे और गरीबी के आगे नतमस्तक होकर गरीब ही घोषणा के पीछे गुम होते जा रहे हैं।
अभी उत्तरप्रदेश समेत अन्य राज्यों में चुनावी सरगर्मी तेज है। हर दल के नेता ‘घोषणा’ पर घोषणा किए जा रहे हैं। सब के अपने दावे हैं। घोषणा में कोई छात्रों की सुध ले रहा है, किसी में गरीबों की धुन सवार है। कुछ आरक्षण के जादू की छड़ी घुमाने में लगा है। जो भी हो, घोषणा ऐसी-ऐसी है, जिसे नेता कैसे पूरी करेंगे, यह बताने वाला कोई नहीं है। इसी से समझ में आता है कि घोषणा का मर्ज जनता के पास नहीं है। लैपटॉप के बारे में छात्रों को पता न हो, मगर नेताओं ने जैसे ठान रखे हैं, चाहे तो फेंक दो, घर में धूल खाते पड़े रहे, कुछ दिनों बाद काम न आ सके, किन्तु वे लैपटॉप देकर रहेंगे। शहर में रहने वाले ‘गाय’ न पाल सकें, लेकिन वे घोषणा के तहत गाय देंगे ही। ये अलग बात है कि उसकी दूध देने की गारंटी न हो और उसके स्वास्थ्य का भी। नेताओं की घोषणा भी ‘गाय’ की तरह होती है, एकदम सीधी व सरल। सुनने में घोषणा, किसी मधुर संगीत से कम नहीं होती, लेकिन पांच साल के बीतते-बीतते, यह ध्वनि करकस हो जाती है।
नेताओं को भी घोषणा याद नहीं रहती। वैसे भी नेताओं की याददास्त इस मामले में कमजोर ही मानी जाती है। जब खुद के हक तथा फंड में बढ़ोतरी की बात हो, वे इतिहास गिनाने से नहीं चूकते। घोषणा की यही खासियत है कि जितना चाहो, करते जाओ, क्योंकि घोषणा, पूरे करने के लिए नहीं होते, वह केवल दिखावे के लिए होती है कि जनता की नेताओं की कितनी चिंता है। घोषणा के बाद यदि नेता चिंता करने लगे तो जनता की तरह वे भी ‘चिता’ की बलिवेदी पर होंगे। घोषणा की परवाह नहीं करते, तभी तो पद मिलते ही कुछ बरसों में दुबरा जाते हैं। जनता को भी पांच साल होते-होते समझ में आती है कि आखिर ये सब जुबानी, घोषणा ही तो है... ?
Posted by jindaginama 1 comments
Posted by Shri Sitaram Rasoi 5 comments