तू मेरी जरूरत भी रहा, मेरी आदत भी।
तू ही खुदा था मेरा, मेरी इबादत भी।
दरिया से कतरा मांग कर क्या करता,
यही वक्त का तकाजा है, मेरी चाहत भी।
क्यूं शर्मिंदा रहूं करके इश्क-ए-गुनाह,
सज़ा भी यही है, और मेरी राहत भी।
यादों के टुकड़े जोड़ने की कोशिश में,
हुई कभी जीत, यही मेरी मात भी।
तुम्हारी मुहब्बत सूरज से क्या कह गयी,
उजला हुआ दिन, रौशन मेरी रात भी।
- रवि कुमार बाबुल
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