शंकर जालान
कोलकाता। राजनीति में स्थाई दोस्ती या फिर स्थाई दुश्मनी की उम्मीद रखने की बात कुछ हजम नहीं होती, लेकिन इतनी जल्दी दोस्ती (गठबंधन) दुश्मनी (टूटने) की कगार पर पहुंच जाएंगी, यह भी किसी को मालूम नहीं था। जी हां, हम बात कर रहे हैं राज्य में सत्तासीन कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस के गठबंधन की। जिस गठबंधन ने 34 सालों तक राज करने वाले और लगातार सात पर चुनाव में अजेय रहने वाली वाममोर्चा को परास्त किया। वहीं, गठबंधन पर सात महीने के भीतर ही सवाल खड़ा होने लगा है। इन सात महीनों में कई बार ऐसे मौके आए जब कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस के नेता एक-दूसरे की खिचाई करते दिखे। अन्य नेताओं की तो बात ही क्या खुद तृणमूल कांग्रेस प्रमुख तृणमूल कांग्रेस ने शनिवार को कह दिया कि कांग्रेस चाहे तो गठबंधन से अलग हो सकती है।
सीटों के बंटवारे के मुद्दों पर हो, कृषकों की समस्या पर हो, केंद्र सरकार पर दवाब की बात हो या फिर राज्य की शिक्षा व स्वास्थ्य विभाग की बात। इन सभी मुद्दों पर कभी भी कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस के नेताओं की एक राय नहीं बन सकी। तभी तो राज्य के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री व वतर्मान में विधानसभा में विपक्ष के नेता सूर्यकांत मिश्र ने चुटकी लेते हुए कह दिया कि कांग्रेस व तृणमूल नेताओं को गठबंधन धर्म की समझ नहीं है।
ताजा मामला इंदिरा भवन के नाम को लेकर चल रहा है। तृणमूल कांग्रेस प्रमुख व राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इंदिरा भवन का नाम बदल कर काजी नजरूल इस्लाम भवन करने का एलान कर कांग्रेस के नेताओं को तृणमूल के खिलाफ एक बार फिर मुखर होने का मौका दे दिया है। राज्य के शहरी विकास मंत्री व ममता के करीबी माने जाने वाले फिरहाद हाकिम ने तो चुनौती भरे शब्दों में कह दिया है कि तृणमूल कांग्रेस को कांग्रेस की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने फिल्मी लहजे में कहा- हम उनसे नहीं, वे हमसे हैं।
कहना गलत नहीं होगा कि इससे पहले भी कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस के नेता एक-दूसरे के खिलाफ न केवल बयानबाजी कर चुके हैं, बल्कि जुलूस की शक्ल में सड़कों पर भी उतर चुके हैं। वैसे भी ममता बनर्जी गठबंधन से अलग होने में माहिर हैं। ध्यान रहे कि भाजपा की अगुवाई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार से ताबूत मुद्दे पर ममता ने बेवजह खुद को अलग कर लिया था।
राजनीति के जानकारों का कहना है कि भले ही ममता जनता के बीच लोकप्रिय हो। लोग उन्हें जुझारू नेता के रूप में जानते हो, लेकिन इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि जयललिता व मायावती की तुलना में ममता की राजनीति में वह पकड़ नहीं है। तभी तो जयललिता तमिलनाडु की और मायावती उत्तर प्रदेश की कई बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं। ममता बनर्जी के नाम के आगे पहली बार मुख्यमंत्री शब्द लगा है।
राजनीति के जानकार लोग इस बात पर अचरज करते हैं कि जिस ममता बनर्जी को लोग लालच विहीन व साफ-सुथरी छवि का मानते हैं। मगर सत्ता अथवा कुर्सी के लिए किसी भी हद तक जा सकती हैं। अगर पीछे की और नजर दौड़ाए तो यह दिखाई देगा कि केंद्र में भाजपा की अगुवाई वाली राजग सरकार में भी ममता रेल मंत्री थी और कांग्रेस की अगुवाई सप्रंग सरकार में भी रेल मंत्री रही हंै।
ध्यान रहे कि ममता बनर्जी को पहली बार सांसद बनने का मौका 1984 में मिला था। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में इंदिरा लहर के सहारे ही ममता कोलकाता के कालीघाट से दिल्ली के संसद भवन तक पहुंची थी मगर अब उनकी राजनीति का यह भी एक पहलू है कि इंदिरा भवन को लेकर कांग्रेसी नेताओं की भावनाओं से खेल रही हैं।
9.1.12
कांग्रेस-तृणमूल गठबंधन पर संकट के बादल
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