मित्रों,जबसे भारत में अन्ना हजारे के प्रखर नेतृत्व में जनांदोलन शुरू हुआ है इसके भारतीय लोकतंत्र पर संभावित प्रभावों का लगातार विश्लेषण किया जा रहा है.ताजा विश्लेषण किया है हमारी राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल जी ने.उनके मतानुसार भारतीय लोकतंत्र एक वृक्ष है और जनांदोलन उसे लगातार आंधी-तूफ़ान की तरह हिला रहे हैं,जिसके चलते हो सकता है कि यह पेड़ ही जड़ से उखड जाए.उन्होंने सीधे-सीधे जनांदोलनों का जिक्र तो नहीं किया है लेकिन उनके कथन के आशय को लेकर वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए किसी तरह के भ्रम की गुंजाईश भी नहीं है.अब प्रश्न उठता है कि क्या सचमुच भारत में लोकतंत्र खतरे में है और अगर खतरे में है भी तो उसे किन-किन तत्वों से और किस तरह का और कितना गंभीर खतरा है?
मित्रों,चाहे कोई भी शासन हो,किसी भी तरह का शासन हो उसकी मजबूती इस बात पर निर्भर करती है कि आम जनता का उसके ऊपर कितना विश्वास है.इतिहास गवाह है कि किसी भी शासन को सबसे ज्यादा खतरा होता है भ्रष्टाचार से और गरीबी तथा बेरोजगारी से.चाहे फ़्रांस की क्रांति हो या रूस की या फिर मिस्र या लीबिया की;ये क्रांतियाँ इसलिए हुई क्योंकि पूर्व प्रचलित शासन समय रहते जनाक्षाओं के अनुरूप खुद को नहीं बदल सका.चीन में च्यांग काई शेक अमेरिका आदि अतिशक्तिशाली देशों द्वारा खुले दिल से सहायता मिलने के बाबजूद गृहयुद्ध में इसलिए हार गया क्योंकि उसके शासन में इतना अधिक भ्रष्टाचार बढ़ गया था कि उसके सैनिक चंद पैसों के लिए अपने हथियार और गोलियां तक माओवादियों के हाथों बेच डालते थे.बढ़ते भ्रष्टाचार ने उसके मजबूत शासन को अन्दर से खोखला कर दिया था और जनता का उसमें विश्वास भी समय गुजरने के साथ निराशा के कारण कम होता जा रहा था.मित्रों,वर्तमान भारत की स्थिति भी कोई अच्छी नहीं है.निश्चित रूप से हमारा लोकतंत्र इस समय खतरे में है और खतरा भी बाह्य नहीं आतंरिक है शेक के चीन की तरह.हमारे लोकतंत्र को मधु कोड़ा,ए. राजा,सुखराम,मायावती,सुरेश कलमाड़ी,लालू प्रसाद यादव जैसे अनगिनत भ्रष्ट जनप्रतिनिधि मुँह चिढ़ा रहे हैं और वर्तमान केंद्र सरकार है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई प्रभावी कदम उठाना चाहती ही नहीं.ऐसे में जब अख़बारों और सोशल मीडिया में भ्रष्टाचार के खिलाफ लगातार आवाज उठाने और सरकार को कदम उठाने के लिए प्रेरित करने का कोई प्रभाव होता नजर नहीं आ रहा था तब जनता के सामने सिवाय जनांदोलन करने के कोई विकल्प ही नहीं था.पहले तो आम जनता ने अपने खास जनप्रतिनिधियों से 'तीन दिवस तक पंथ मांगते रघुपति सिन्धु किनारे,पढ़ते रहे छंद अनुनय के प्यारे-प्यारे.'शैली में हाथ जोड़कर विनती की और कहा कि "हे कृपानिधान!कृपया आप हमारी मांगों को मानते हुए जनलोकपाल कानून बनाईये जिससे हमें भ्रष्टाचार रुपी दानव से राहत मिल सके."परन्तु सत्ता की मद-वारुणी के पान में मस्त जनता द्वारा ही गलती से निर्वाचित हुई सरकार ने उनकी विनम्रता को उनकी कमजोरी का संकेत मान लिया.साथ ही वे आम जनता की ईच्छा को भी नहीं समझ सके.उन्हें लगा कि इस जनांदोलन में कोई आंतरिक ऊर्जा है ही नहीं और यहीं पर उन्होंने १६ अगस्त,२०११ को वह गलती कर दी जो ७-८ नवम्बर,१९१७ को रूस में जार निकोलस द्वितीय ने और १४ जुलाई,१७८९ को फ़्रांस में लुई १६वाँ ने की थी;उन्होंने क्रांति के सूरज को ही कैद करने की कोशिश की और नतीजे में अपना हाथ जला बैठे.बाद में उन्होंने भयभीत मन से अन्ना को अनशन की अनुमति तो दे दी लेकिन उनके हाव-भाव से आज भी ऐसा बिलकुल भी नहीं लग रहा है कि उन्होंने अपनी गलतियों से कुछ सीखा भी है.बाद में संसद में एक दन्त और विषविहीन लोकपाल की स्थापना का कुत्सित प्रयास भी सरकार द्वारा किया गया जो जनता के दबाव के चलते सौभाग्यवश असफल भी हो गया.इस बीच प्रधानमंत्री ने नए साल पर देशवासियों को भरोसा दिलाया कि वे नए साल में भ्रष्टाचार और कुशासन को दूर करने के लिए अपेक्षित कदम उठाएंगे परन्तु अभी तक इस तरह के कोई संकेत दृष्टिगत नहीं हो रहे हैं.
मित्रों,कुछ करने के लिए एक दिन ही काफी होता है और नहीं करने के लिए सदियाँ भी नाकाफी होती हैं.सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी की ग़लतफ़हमी पालने की बीमारी अभी भी गई नहीं है.वह अन्ना के मुम्बई आन्दोलन की विफलता के बाद यह मान बैठी है कि उनके जनांदोलन में अब कोई ऊर्जा शेष ही नहीं रही और अगर पार्टी को पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में जीत हासिल होती है तब सीधे-सीधे यह मान लेना चाहिए कि जनता ने अन्ना और उनकी मांगों को ख़ारिज कर दिया है.हम यह अच्छी तरह से जानते हैं कि विधानसभा चुनावों की प्रकृति लोकसभा चुनावों से अलग होती है.इन चुनावों में ज्यादातर स्थानीय मुद्दे हावी होते हैं और राष्ट्रीय मुद्दों का प्रभाव कम ही होता है.यह बात कांग्रेस के नेता भी जानते हैं इसलिए इन चुनावों को किसी भी तरह अन्ना आन्दोलन पर जनमत संग्रह नहीं माना जा सकता है;नहीं माना जाना चाहिए.इस सत्य में कोई संदेह नहीं कि इस आन्दोलन में अभी भी पर्याप्त ऊर्जा है और अगर सही वक़्त में फिर से आन्दोलन छेड़ा जाता है तो हमारे मदांध शासकों को झुकाया जा सकता है और घुटनों पर आने के लिए मजबूर भी किया जा सकता है.इस आन्दोलन को न तो बैरम खान दिग्विजय सिंह के कुतर्क ही कमजोर कर सकते हैं और न ही अकबर राहुल गाँधी की कोरी राजनीतिक विरासत ही.यहाँ मैं यह स्पष्ट कर दूं कि यह आन्दोलन लोकतंत्र के खिलाफ हरगिज नहीं है बल्कि यह तो शासन-प्रशासन में लगातार बढ़ते भ्रष्टाचार के विरुद्ध है इसलिए इससे लोकतंत्र के पेड़ के जड़ से उखड जाने का खतरा राष्ट्रपति जी को क्यों महसूस हो रहा है,शायद उन्हें ही इसका बेहतर पता होगा.राष्ट्रपति जी लोकतंत्र अगर एक पेड़ है तो उसकी जड़ें है भ्रष्टाचार-मुक्त सुशासन और उसके इर्द-गिर्द की मजबूत मिटटी है जनता का उसके प्रति अटूट विश्वास.अगर इस पेड़ को समय रहते भ्रष्टाचार की इस विषबेल से नहीं बचाया गया और इसका वक़्त पर उपचार नहीं किया गया तो फिर एक दिन निश्चित रूप से यह पेड़ खोखला होकर सूखे ठूंठ में बदल जाएगा और मर जाएगा.शायद वह दिन अब ज्यादा दूर रह भी नहीं गया है.तब न तो इसे हिलाने की आवश्यकता होगी और न ही ईलाज करने की ही.इसलिए हमें अब से और अभी से ही भ्रष्टाचार की इस विषबेल को समाप्त करने की दिशा में कदम बढ़ाने शुरू कर देने चाहिए.तभी भारत में लोकतंत्र बच पाएगा और हमारे मदमस्त जनप्रतिनिधियों के पद भी शेष रह रह पाएँगे.वास्तव में भारतीय लोकतंत्र के वटवृक्ष को खतरा भ्रष्टाचार से है न कि जनांदोलनों से.बल्कि जनांदोलनों की सफलता से ही हमारे लोकतंत्र की सफलता का मार्ग अग्रसर होने वाला है.अब तो सरकार द्वारा इस दिशा में कदम उठाये जाने की भी इन्तहां हो रही है.दुष्यंत कुमार के शब्दों में 'हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए;सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए.'
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