ऐन वक्त पर रुश्दी की भारत यात्रा के रद होने को कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टिकरण का परिणाम बता रहे हैं एस शंकर
सलमान रुश्दी की सटैनिक वर्सेस 1988 में प्रकाशित हुई थी। 1989 में उसे लेकर ईरानी राष्ट्रपति अयातुल्ला खुमैनी ने रुश्दी को मार डालने का फतवा दिया। इसके बाद नौ वर्ष तक ब्रिटिश सरकार ने रुश्दी को सुरक्षा में रखा। फिर 1998 में ईरान की नई सरकार ने घोषणा की कि वह उस फतवे का अब समर्थन नहीं करती। धीरे-धीरे रुश्दी सार्वजनिक जीवन में भाग लेने लगे। अब तो लंबे समय से दुनिया के मुस्लिम जनमत ने भी उसे बीती बात मान लिया है। ऐसी स्थिति में नए सिरे से सलमान रुश्दी को जयपुर के अंतरराष्ट्रीय साहित्य सम्मेलन में भाग लेने से रोकने की दारुल उलूम की मांग कुछ विचित्र है। रुश्दी ने कोई नया अपराध नहीं किया है। 23 वर्ष पूर्व लिखी उस पुस्तक पर वह पहले ही लगभग दस वर्ष तक कैदी-सा जीवन नाहक बिता चुके हैं। अब जब उस प्रसंग को सभी पक्ष अलग-अलग कारणों से अतीत मान चुके हैं, तब यहां उलेमा द्वारा उसे उभारने का क्या अर्थ? पिछले 12 सालों में रुश्दी कई बार भारत आए-गए हैं। उन्होंने विविध मुद्दों पर लेख भी लिखे तथा उनके बयान भी आते रहे हैं। इनमें इस्लाम संबंधी बयान भी है। मसलन उन्होंने लिखा कि इस्लाम और आतंकवाद को पूरी तरह अलग-अलग करके देखने की जिद निरर्थक है। आखिर कोई चीज तो है जो इस्लामी अनुयायियों को आतंकवाद से जोड़ती है। वह क्या है? आदि। इन बातों पर भी मुस्लिम नेताओं ने कहीं हाय-तौबा नहीं मचाई। फिर अभी कौन-सा फितूर सूझा जो रुश्दी को भारत आने से रोकने की मांग की गई और सरकार के दब्बू रवैये के कारण यह मांग पूरी भी हो गई। संभवत: इसका संबंध उत्तर प्रदेश के चुनावी वातावरण से है। मुस्लिम वोटों के ठेकेदार यह समझते हैं कि अभी उनका बाजार भाव बढ़ा हुआ है। तो क्यों न अपनी शक्ति बढ़ाने की कोई जुगत भिड़ाई जाए! इसमें संदेह नहीं कि सार्वजनिक राजनीति में सांकेतिक जीतों का बड़ा महत्व होता है। रुश्दी को वीजा न देने की मांग करने वाले को इतनी भी समझ नहीं कि भारत में जन्मे और इसी मूल के होने के कारण रुश्दी को वीजा लेने की जरूरत ही नहीं। दिल्ली के एक इमाम साहब लंबे समय तक कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद को वह सलमान समझते रहे जिसने सटैनिक वर्सेस लिखी! ऐसे ही मुस्लिम नेताओं के दबाव पर हमारे कर्णधार मुंह चुरा कर उनकी ताकत और बढ़ाते हैं। रुश्दी के बहाने कुछ मुस्लिम नेता अपनी ताकत बढ़ाने में सफल होते दिख रहे हैं। उन्हें मालूम था कि इस चुनावी समय में उनका विरोध करने वाला कोई नहीं। उलटे सभी उन्हें खुश करने में लगे हैं। तब किसी लेखक को कहीं जाने से रोक देना कौन-सी बड़ी बात है! कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने पहले ही संकेत दे दिया था कि सुरक्षा कारणों से रुश्दी को जयपुर जाने से मना किया जा सकता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन मामलों पर कट्टरपंथियों को आसानी से फटकारा जा सकता था, वहां भी उनके सामने झुक कर हमारे नेता देश की मिट्टी पलीद करते हैं। अभी सरलता से कहा जा सकता था कि रुश्दी प्रसंग एक पीढ़ी से भी पुरानी बात हो चुकी। अरब विश्व में भी अब उसकी कोई बात नहीं करता। तब उसे उठाकर पुन: सांप्रदायिक वातावरण को बिगाड़ने का प्रयास नहीं होना चाहिए। किंतु ऐसे सरल मामलों में भी हमारे नेता घुटने टेक देते हैं। यह देश की सामाजिक एकता को चोट पहुंचाता है। इसमें सबसे दुखद भूमिका हमारे बुद्धिजीवियों की है। जो लोग हुसैन की गंदी पेंटिंगों, दीपा मेहता की अश्लील फिल्मों, जिस-तिस की हिंदू-विरोधी टिप्पणियों, लेखों आदि के पक्ष में सदैव तत्परता से बयान जारी करते हैं- वे सब सलमान रुश्दी पर मौन साधे बैठे हैं! वे लेखक, पत्रकार भी जो जयुपर सम्मेलन में सह-आमंत्रित हैं। यह प्रकरण फिर दिखाता है कि मुस्लिम कट्टरता पर बोलने से सभी कतराते हैं। यह सोची-समझी चुप्पी पहली बार नहीं देखी गई। इसके पीछे एक सुनिश्चित पैटर्न है। पहले भी तस्लीमा नसरीन, अय्यान हिरसी अली, सलमान तासीर, सुब्रह्ममण्यम स्वामी आदि की अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के लिए किसी सेक्युलर-लिबरल की आवाज सुनाई नहीं पड़ी। 22 वर्ष पहले भी केवल एक मुस्लिम नेता की मांग पर रुश्दी की पुस्तक किसी मुस्लिम देश से भी पहले यहां प्रतिबंधित हो गई। उसके लिए नियम-कायदों को भी ताक पर रख दिया गया। तब भी हमारे बुद्धिजीवी मौन थे। इसलिए हमें अपने बुद्धिजीवियों का दोहरापन पहचान लेना चाहिए। वे इस्लामी कट्टरवादियों के आगे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तुरत भुला देते हैं। रुश्दी, तसलीमा, हुसैन, रामानुजन आदि विविध प्रसंगों पर उनका रुख यह देख कर तय होता है कि किस समुदाय की भावना भड़की है? यदि किसी मूढ़ ने गलत समुदाय के नेताओं को क्रुद्ध कर दिया हो, तो वह कितना ही बड़ा लेखक, पत्रकार क्यों न हो- हमारे बुद्धिजीवी उसके लिए कुछ नहीं कर सकते! इस पक्षपाती रवैये से देश में सामाजिक सद्भाव बुरी तरह प्रभावित होता है। ऐसी मुंहदेखी चुप्पी से ही विभाजनकारी तत्वों को मौका मिलता है कि वे मजहब या भावना के नाम पर लोगों को बरगलाएं। हमारा राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग दोहरे मानदंड अपनाता है। इसका बार-बार प्रयोग होने से किसी समुदाय में अहंकार तो किसी में भेदभाव झेलने का रोष जमा होता है। दोरंगी दलीलें किसी को संतुष्ट नहीं करतीं। उनसे समाज पर बुरा प्रभाव पड़ता है। देश-हित में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सांप्रदायिक राजनीति पर समान मापदंड अपना कर लिखना, बोलना चाहिए। अन्यथा आज की सुविधाजनक चुप्पी कल स्वयं उनकी अपनी स्वतंत्रता को भी बाधित करेगी। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
No comments:
Post a Comment